समाधान कोई जादुई छड़ी नहीं

II अजय साहनी II रक्षा विशेषज्ञ ajaisahni@gmail.com कश्मीर में राजनीतिक हालात में तेजी से बदलाव का बड़ा कारण रहा कि बिना किसी रणनीति के संघर्ष-विराम घोषित कर दिया गया. इसके नतीजे केवल विफलता की ओर ही नहीं, नुकसान की आेर भी गये हैं. कश्मीर में सरकार चलाने वाली दोनों पार्टियाें- पीडीपी और भाजपा में पहले […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 21, 2018 6:46 AM
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II अजय साहनी II
रक्षा विशेषज्ञ
ajaisahni@gmail.com
कश्मीर में राजनीतिक हालात में तेजी से बदलाव का बड़ा कारण रहा कि बिना किसी रणनीति के संघर्ष-विराम घोषित कर दिया गया. इसके नतीजे केवल विफलता की ओर ही नहीं, नुकसान की आेर भी गये हैं.
कश्मीर में सरकार चलाने वाली दोनों पार्टियाें- पीडीपी और भाजपा में पहले से ही अनेक तरीके का वैचारिक मतभेद रहा है. इन दोनों की आइडियोलॉजी आपस में बिल्कुल नहीं मिलती है. ऐसे में इस सरकार को लंबे अरसे तक चला पाना आसान नहीं था. हालांकि, यह एक सियासी मसला है, जिसके बारे में अपनी ओर से ज्यादा कहना मुश्किल है, लेकिन इतना तय है कि ‘सीजफायर’ के मसले पर जिस तरह से दोनों दलों के बीच असहमति के स्वर उभर रहे थे, उससे यह प्रतीत हो रहा था कि यह गठबंधन टूटने के कगार पर है.
जहां तक भाजपा के समर्थन वापसी की टाइमिंग की बात है, तो यह कहना सही नहीं होगा कि साल या छह माह पहले भी ऐसा किया जा सकता था, और लोकसभा चुनाव नजदीक आने पर ऐसा किया गया.
हालिया सीजफायर एक तरीके से केंद्र के ऊपर थोपा गया था. कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा ने इसकी घोषणा कर दी और गठबंधन धर्म का निर्वहन करते हुए केंद्र को इसे मानना पड़ा था. इस घटना से दोनों ही दलों के बीच जारी तनाव हद पार कर गया और इसी कारण भाजपा की ओर से शायद यह फैसला लिया गया.
यह वह वक्त था, जब सुरक्षा बलों ने अनेक जगहों पर अभियान छेड़ते हुए अपना दबदबा कायम करना शुरू कर दिया था और इस दिशा में वे तेजी से आगे बढ़ रहे थे. ऐसे में बिना पूरी तैयारी के फैसले का नतीजा सकारात्मक तरीके से निकाल पाना मुश्किल होता है.
जहां तक बात कश्मीर में शांति और सुरक्षा के विकल्प की है, तो हमें यह समझना होगा कि इसका कोई विकल्प नहीं होता है. सुरक्षा और शांति की रणनीति होती है. कश्मीर की समस्या का क्या समाधान हो सकता है? राज्य में वर्ष 2001 में करीब 4,112 लोग मारे गये थे.
वहीं पिछले वर्ष पूरे कश्मीर में करीब 335 आदमी मारे गये थे. कैंसर की बीमारी को डॉक्टर ने पूरी तरह से खत्म कर दिया, लेकिन लोग कह रहे हैं कि डॉक्टर निकम्मा है, क्योंकि वह सर्दी-जुकाम का समाधान नहीं कर पा रहा है. आपको समझना होगा कि समाधान हो रहा है. यदि आप उम्मीद करते हैं कि एक दिन में सबकुछ ठीक हो जाये, तो ऐसा नहीं हो सकता. लाेग बात करते हैं राजनीतिक समाधान की, तो इसका मतलब यह है कि जब ऑपरेशन चल रहे हैं, तो क्या राजनीति खत्म हो गयी? चुनाव नहीं होते क्या वहां पर? लोग एकदूसरे से बात नहीं करते क्या?
राजनीतिक दल आपस में बात नहीं करते क्या? राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि लोगों के बीच में जाते नहीं हैं क्या? लोग कहते हैं कि राजनीतिक वार्ता जारी रहनी चाहिए, तो क्या वहां यह जारी नहीं है? यह भी तो राजनीति है कि मैं आपकी सरकार का समर्थन कर रहा था और अब मैंने इसे वापस ले लिया है. यह भी तो सियासत है.
ये सभी एक डायनेमिक सोलुशन के हिस्से हैं. सोलुशन कोई जादुई छड़ी नहीं है कि एक बार आपने उसे घुमाया और वह सही हो गया. प्रत्येक वर्ष वहां मरने वालों की तादाद हजारों में होती थी, जो अब घट कर 200 से 300 तक पहुंच गयी है. इन सबका समाधान ऐसे ही होता है.
आतंकवाद धीरे-धीरे खत्म होगा. जब तक यह आतंकवाद हावी है, तब तक कुछ तबके राजनीतिक समाधान के लिए सामने आ नहीं सकते. हुर्रियत का कोई आदमी सामने आकर नहीं कह सकता कि मैं शांति के समर्थन में हूं और वार्ता की प्रक्रिया में आना चाहता हूं, क्योंकि उन्हें मालूम है कि ऐसा करने पर उन्हें मार दिया जायेगा. बीच में से जब बंदूक हट जायेगी, और वह तभी हटेगी, जब आतंकी संगठन और उनके समर्थकों को यह समझ में आ जायेगा कि उन्हें इसमें कोई सफलता नहीं मिलने वाली है. और ऐसे हालात पैदा करना सुरक्षा बलों का काम है.
बीते लोकसभा चुनाव में भाजपा ने कश्मीर के बारे में देशभर में जो वादे किये थे, उन्हें पूरा कर पाना संभव नहीं है. कहा जा सकता है कि ये वादे झूठे थे. इसी गलत राजनीति की वजह से भी हालात बिगड़े हैं.
वर्ष 2012 में कश्मीर में केवल 117 लोग लोग मारे गये थे, जबकि इसके बाद इसकी संख्या बढ़ती गयी. दरअसल, राजनीति का ध्रुवीकरण करने से यह समस्या बढ़ गयी. इस वक्त धारा-370 का मसला उठाने का कोई कारण नहीं है. फिलहाल इसे लागू कर पाना बहुत मुश्किल है, लेकिन राजनीतिक लाभ के लिए गाहे-बगाहे इसे उठाया जाता है.
यह कहना मुमकिन नहीं कि सियासत कहां जायेगी? राष्ट्रपति शासन कब तक रहेगा? लेकिन इतना जरूर है कि पिछले एक-डेढ़ साल से कश्मीर में सुरक्षा बलों का वर्चस्व बढ़ा है. और इसका एक बड़ा कारण यह भी रहा है कि उसे आंतरिक स्रोतों से बड़ी संख्या में सूचनाएं हासिल हो रही हैं.
यही कारण था कि सुरक्षा बलों ने ‘टारगेट-बेस्ड ऑपरेशंस’ को अंजाम दिया है. आतंकियों के खिलाफ वहां नागरिकों में धारणा कायम हो रही है, और इसीलिए वे सुरक्षा बलों को सूचना मुहैया करा रहे हैं. किसी मकान में आतंकी छिपे होने पर सुरक्षा बल यूं ही उसकी घेराबंदी नहीं करते. उसे कोई यह जानकारी मुहैया कराता है.
इस तरह के नागरिक रुझान संकेत देते हैं कि सुरक्षा बलों को कामयाबी मिल सकती है. आतंकी नेतृत्व की हार होगी. चूंकि इन्हें पाकिस्तान से समर्थन मिलता रहता है, इसलिए पूरी तरह से इन्हें खत्म कर पाना मुश्किल है. सीजफायर के दौरान एक उल्लेखनीय चीज रही कि हिजबुल मुजाहिदीन द्वारा कोई हमला नहीं किया गया.
सभी हमले लश्कर-ए-तैयबा या जैश-ए-मोहम्मद द्वारा ही किये गये थे. कश्मीर के अंदर के हालात पर धीरे-धीरे सुरक्षा बलों का वर्चस्व कायम हो रहा है. पाकिस्तान से आने वाले आतंकियों पर रोक लगाने के लिए अलग से रणनीति बनाने की जरूरत है.
चीनी राजदूत का यह कहना कि भारत और पाकिस्तान के साथ चीन की त्रिपक्षीय वार्ता होनी चाहिए, इसका कोई मतलब नहीं है. चीन ने खुद भारत की जमीन पर कब्जा कर रखा है. ऐसे में उसके इस बयान काे तवज्जो देने का कोई मतलब नहीं है. चीन शुरू से ही पाकिस्तान का समर्थन करता आया है. कई ऐसे कारण रहे हैं, जिससे यह कहा जा सकता है कि चीन इसमें मध्यस्थता के काबिल नहीं है.
(कन्हैया झा से बातचीत पर आधारित)
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