जनता को नौटंकी ही पसंद आती है!
।।लोकनाथ तिवारी।। (प्रभात खबर, रांची) बचपन से ही नौटंकी हमें बहुत भाती है. जैसे-जैसे बाली उमरिया बढ़ी नौटंकी का टेस्ट भी बदलता गया. बचपन में ‘शीत बसंत’ नाटक देख कर आंखें भर आती थीं. ‘सुल्ताना डाकू’ के डायलाग सुन कर भुजाएं फड़कने लगती थीं. हमें हर पात्र सजीव लगते थे. उनकी कारगुजारियां अनुकरणीय लगती थीं. […]
।।लोकनाथ तिवारी।।
(प्रभात खबर, रांची)
बचपन से ही नौटंकी हमें बहुत भाती है. जैसे-जैसे बाली उमरिया बढ़ी नौटंकी का टेस्ट भी बदलता गया. बचपन में ‘शीत बसंत’ नाटक देख कर आंखें भर आती थीं. ‘सुल्ताना डाकू’ के डायलाग सुन कर भुजाएं फड़कने लगती थीं. हमें हर पात्र सजीव लगते थे. उनकी कारगुजारियां अनुकरणीय लगती थीं. एक नौटंकी देख कर आने के बाद कई दिनों तक उसी की चर्चा करते रहते थे.
आप कहेंगे कि क्या बेमौके राग छेड़े हुए हैं. भाई साब यह अनायास नहीं है. बीते सप्ताह कुहनियों तक हाथ जोड़ कर मां को प्रणाम करते एक चित्र को अखबार के प्रथम पृष्ठ पर देख कर हमें नौटंकी की याद आ गयी. हम पूछते हैं कि क्या आपने कभी अपनी मां से कहा है- ऐ मां तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी. क्या अपने भाई से कभी कहा है कि ‘जहां तेरा पसीना बहेगा, वहां मैं अपना खून बहा दूंगा.’ कभी अपने पिताजी को भगवान का दरजा देते हुए संबोधन किया है.
कभी कहा है कि ‘आपके चरणों में सारा जहां बसता है.’ क्या अपनी पत्नी के साथ पेड़ों के इर्द-गिर्द गाना गाया है. आप कहेंगे कि ये फिल्मों और नाटकों में ही अच्छा लगता है. ये सारी बातें सही जीवन में व्यक्त करने की नहीं होतीं. अपनी ही नजरों में अटपटा लगता है. मां व बाबूजी से प्यार करने के लिए उनके चरणों में लोटने की जरूरत नहीं पड़ती. जब भी संकट व दुख की घड़ी आती है, अपनी मां को ‘माई रे!’ का उच्चरण कर हम उसे पुकारते आये हैं. मां के लिए माई जी और आप का संबोधन कभी नहीं किया. मां के लिए हमारे दिल में जो जगह है, उसे दिखाने की जरूरत कभी नहीं पड़ी. दूर रहने पर मां को पत्र लिखते समय आंसू छलक पड़ते थे, लेकिन साथ रहने पर यह दिखावा करने की नौबत नहीं आयी.
विडंबना यह है कि स्वाभाविक आचरण करनेवाले हमें भाते भी तो नहीं. हमें तो नौटंकी करनेवाले ही भाते हैं. जनता को जनार्दन व मालिक बतानेवाले संसद की सीढ़ियों पर मत्था टेकते हैं तो जनता वाहवाह कर उठती है, जबकि इसी संसद में स्वघोषित अपराधियों (शपथ पत्र के अनुसार शताधिक) की फौज बैठेगी. हो सकता है, उनमें से कई मंत्री भी बन बैठें. फिल्मों के हीरो भी इसी तरह के सीन करते हैं तो उनके डायलॉग और अभिनय पर लोग तालियां पीटते हैं. हमारे नेताओं को भी ये बातें पता हैं. शायद वे बचपन से ही नौटंकी करते आये हैं.
तभी तो बात-बात पर ड्रामा करते हैं. वह भी इस सफाई से कि बड़े-बड़े अभिनय सम्राट भी इनके सामने पानी मांगने लगे. ये जानते हैं कि सफल नेता वही है, जो बात-बात पर दर्शकों को वाह-वाह करने और ताली पीटने के लिए मजबूर कर दे. सफल होने के लिए नौटंकी करने की कला तो आनी ही चाहिए. नौटंकीबाज जीवन भर चकल्लस काटते हैं. और जिसे नौटंकी नहीं आती उसकी आत्मा मरने के बाद भी भटकती रहती है. काश! हम भी अपने जीवन में नौटंकी कर पाते तो आज कहां के कहां होते.