नियमित हों कॉलेज शिक्षक
II आरके सिन्हा II सांसद, राज्यसभा rkishore.sinha@sansad.nic.in अब देशभर के कॉलेजों में नये सत्र के लिए विद्यार्थियों के दाखिले की प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी है. प्रमुख विश्वविद्यालयों के नामी कॉलेजों में दाखिला लेने के लिए जबरदस्त मारामारी है. नब्बे फीसदी से अधिक अंक लानेवाले छात्र-छात्राओं को भी यकीन नहीं हो रहा है कि उन्हें उनकी […]
II आरके सिन्हा II
सांसद, राज्यसभा
rkishore.sinha@sansad.nic.in
अब देशभर के कॉलेजों में नये सत्र के लिए विद्यार्थियों के दाखिले की प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी है. प्रमुख विश्वविद्यालयों के नामी कॉलेजों में दाखिला लेने के लिए जबरदस्त मारामारी है. नब्बे फीसदी से अधिक अंक लानेवाले छात्र-छात्राओं को भी यकीन नहीं हो रहा है कि उन्हें उनकी पसंद के कॉलेज और विषय में दाखिला मिल ही जायेगा. यह तस्वीर का एक पक्ष है. दूसरा पक्ष भयावह है. उसे जानकर अंधकारमय भविष्य की चिंता होने लगती है.
दरअसल, देश के चोटी के विश्वविद्यालयों में अध्यापकों के पद बड़ी संख्या में रिक्त हैं. चोटी के विश्वविद्यालयों का अर्थ केंद्रीय विश्वविद्यालयों से है. आरटीआई से मिली एक जानकारी के अनुसार, देश के 40 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 33 फीसदी अध्यापकों के पद खाली हैं. सबसे भयावह स्थिति इलाहाबाद और दिल्ली विश्वविद्यालय की है. यह स्थिति बीते जनवरी तक की है.
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में तो लगभग 64 फीसदी अध्यापकों के पद भरे जाने हैं. अब दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापकों के करीब 47 फीसदी स्थानों को भरा जाना है. सोचिये कि जब अध्यापक ही नहीं होंगे, तो फिर पढ़ायेगा कौन?
अध्यापकों की कमी को पूरा करने के लिए विश्वविद्यालयों ने एक आसान और भ्रष्ट रास्ता चुना है. ये शिक्षकों की तदर्थ आधार पर नियुक्तियां कर लेते हैं. योग्यता से समझौता और कम पैसे देकर व कभी भी निकाल दिये जाने के डर से केंद्रीय विश्वविद्यालयों में हजारों तदर्थ शिक्षक काम कर रहे हैं.
इन शिक्षकों को वह सब कुछ करना होता है, जो नियमित शिक्षक करते हैं, पर इन्हें पगार के नाम पर मिलती है दो कौड़ी. इलाहाबाद में जूनियर रिसर्च स्कॉलर भी कक्षाएं लेते हैं. उन्हें हर माह मात्र 30 हजार रुपये मानदेय मिलता है. दिल्ली विश्वविद्यालय में ही लगभग 3,500 तदर्थ शिक्षक हैं. सालों से ये ठेके पर काम कर रहे हैं.
इन्हें यह उम्मीद लगी रहती है कि इन्हें स्थायी नौकरी मिल जायेगी. दिल्ली विश्वविद्यालय में स्थायी अध्यापकों की भर्तियां बीते लगभग एक दशक से बंद हैं. कभी-कभार का मामला अलग है. तदर्थ शिक्षकों को चार माह के बाद कुछ दिन के ब्रेक के बाद फिर रख लिया जाता है.
अंधकारमय भविष्य से जूझने के कारण अनेक अध्यापक अवसाद और तनाव में रहने लगते हैं. एक तरफ इनकी पगार कम है, दूसरी तरफ किसी तरह के लाभ भी नहीं मिल रहे. प्रोविडेंट फंड और कर्मचारी बीमा की तो बात ही छोड़ दें. यानी जो व्यक्ति स्थायी अध्यापक की योग्यताओं को पूरा करता है, उसे आप उसके स्थायी सहकर्मी के समक्ष कुछ मानते ही नहीं.
केंद्रीय विश्वविद्यालयों में स्थायी अध्यापक डेढ़-दो लाख रुपये मासिक तक की पगार उठा रहे हैं और क्लास लेते हैं तदर्थ शिक्षकों से भी कम.
सब अपनी खाल बचाने में लगे हैं. इन विश्वविद्यालयों ने तदर्थ यानी ‘एड हॉक’ शिक्षकों की बहाली कर रखी है, ताकि ऐसा लगे कि कक्षाएं सही ढंग से चल रही हैं. हालांकि, वास्तव में यह बात नहीं है. ये बेचारे किस्मत के मारे शोषण, मानसिक यंत्रणा और अधिक काम के शिकार हो रहे हैं.
इन विषम दशाओं में आप किसी अध्यापक से अपना सर्वश्रेष्ठ देने की आशा कैसे कर सकते हैं? जिस शख्स के सिर पर हर वक्त नौकरी जाने का भय रहेगा, उससे आप क्या उम्मीद करेंगे? इनकी स्थिति बंधुआ मजदूरों से भी बदतर है. जिन दिनों कॉलेजों में गर्मियों का अवकाश रहता है, तब इनके पास कोई काम ही नहीं होता. इन्हें जुलाई में फिर किसी कॉलेज में जगह मिल जाती है.
इनकी नौकरी कॉलेज के प्रधानाचार्य या फिर विभागाध्यक्ष के रहमों-करम पर ही चलती है. अपनी न्यूनतम और जायज मांगों के लिए भी ये बेचारे आवाज तक नहीं उठा पाते. स्थिति इतनी खराब हो गयी है कि इन्हें कॉलेजों में अपने वरिष्ठ अध्यापकों की क्लास भी लेने के लिए मजबूर किया जाता है.
किसी भी विश्वविद्यालय के लिए यह जरूरी है कि वह अपने यहां तदर्थ शिक्षक कम-से-कम रखे और उन्हें भी समय-समय पर नियमित करता रहे. उन्हें स्थायी अध्यापकों के बराबर ही वेतन और अन्य लाभ भी मिलें.
उन अध्यापकों पर कठोर एक्शन हो, जिनकी कक्षाओं में पढ़ने वाले छात्रों का प्रदर्शन खराब आ रहा हो. स्थायी नौकरी मिलने का मतलब शिक्षक यह न समझें कि अब वे मौज करते रहेंगे.
दुर्भाग्यवश हमारे देश के विश्वविद्यालयों के अनेक अध्यापकों में यह मानसिकता काफी हद तक जगह बना चुकी है कि स्थायी बनने के बाद अब काम करने की जरूरत ही नहीं है. स्थायी नौकरी का पत्र मिलने के बाद ये राजनीति ज्यादा करते हैं. आपको गिनती के ही ऐसे शिक्षक मिलेंगे, जो स्थायी नौकरी के बाद भी गंभीर शोध कर रहे हों. इस मानसिकता पर कठोर प्रहार करने की जरूरत है.
पर सबसे पहले विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) को तुरंत यह देखना होगा कि सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में लंबे समय से पड़े रिक्त पद भरे जाएं. यूजीसी भी घोर काहिली का शिकार है. उसके ऊपर दायित्व है कि वह देश के तमाम सरकारी विश्वविद्यालयों के कामकाज से लेकर उनके पाठ्यक्रम वगैरह पर भी नजर रखे.
उन फर्जी विश्वविद्यालयों के खिलाफ एक्शन ले, जो बच्चों के कैरियर के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं. क्या यूजीसी इस लिहाज से अपने काम को अंजाम दे रही है? कतई नहीं. जिस दिन से यूजीसी में तरीके से काम होने लगेगा, तब देश के विश्वविद्यालयों की हालत में भी सुधार होने लगेगा.