मजबूत भारत नेहरू की ही देन
।। शम्सुल इस्लाम ।। राजनीतिक विश्लेषक नेहरू का साफ कहना था कि हमारे लिए दो क्रांतियां बेहद अहम हैं. पहली तो यह कि हमने राजनीतिक क्रांति के जरिये आजादी हासिल कर ली है और दूसरी यह कि अब सामाजिक समरसता के साथ आर्थिक क्रांति के जरिये लोकतंत्र को और मजबूत बनाना है. वर्तमान में पंडित […]
।। शम्सुल इस्लाम ।।
राजनीतिक विश्लेषक
नेहरू का साफ कहना था कि हमारे लिए दो क्रांतियां बेहद अहम हैं. पहली तो यह कि हमने राजनीतिक क्रांति के जरिये आजादी हासिल कर ली है और दूसरी यह कि अब सामाजिक समरसता के साथ आर्थिक क्रांति के जरिये लोकतंत्र को और मजबूत बनाना है.
वर्तमान में पंडित जवाहरलाल नेहरू की प्रासंगिकता को कई मायने में देखा जा सकता है. लोकतांत्रिक समाजवाद की अवधारणा, आर्थिक विकास, वैज्ञानिक विकास, धर्म-राजनीति के गठजोड़ से इनकार, आदि कुछ ऐसे महत्वपूर्ण बिंदू हैं, जिन पर नेहरू की प्रासंगिकता को परखा भी जा सकता है. किसी भी देश को और उसकी राजनीति को अपनी आजादी के तुरंत बाद इन मुद्दों पर गंभीरता से सोचना होता है, क्योंकि देश को आगे बढ़ाने के लिए राजनेता ही नीतियां बनाते हैं.
कुछ कमियों के साथ पंडित नेहरू इन सभी मुद्दों पर खरे उतरे और आधुनिक भारत की नींव रखी. बहुत से लोग नेहरू की आलोचना करते हैं और कहते हैं कि आज नेहरू का दौर नहीं रहा, इसलिए उनकी बातों का कोई अर्थ नहीं. लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि आज जिस मजबूत भारत में वे जी रहे हैं, वह नेहरू की देन है.
आजादी मिलने के बाद कई ऐसे देश हैं, जो अपनी आजादी को बचा पाने में नाकामयाब होकर या तो तानाशाही के शिकार हो गये या फिर वहां लोकतंत्र जैसी चीज रही ही नहीं. लेकिन वहीं, हमारा भारत दुनिया का एक मात्र देश है, जो आजाद होने के इतने साल बाद भी एक मजबूत लोकतंत्र बना हुआ है. दुनिया के इतिहास में एक मात्र देश भारत ही है, जहां 17 अगस्त, 1947 को जो पद्धति लागू हुई थी, उसके मूल्य छह दशक से ज्यादा का समय बीत जाने के बाद आज भी बरकरार हैं. इसका श्रेय भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को ही जाता है.
लोकतांत्रिक समाजवाद की जो उनकी अवधारणा थी, वह देश के जनमानस में रची-बसी थी, जिसे उन्होंने और मजबूत बनाने का काम किया. उनका साफ कहना था कि हमारे लिए दो क्रांतियां बेहद अहम हैं. पहली तो यह कि हमने राजनीतिक क्रांति के जरिये आजादी हासिल कर ली है और दूसरी यह कि अब सामाजिक समरसता के साथ आर्थिक क्रांति के जरिये लोकतंत्र को और भी मजबूत बनाना है. हालांकि, नेहरू में भी कई कमजोरियां थीं, लेकिन वे लोकतंत्र को जीना जानते थे. यही वजह है कि काफी हद तक उन्होंने अपनी राजनीति में परिवारवाद को कोई बढ़ावा नहीं दिया, जैसा कि आज की राजनीतिक पार्टियां करती हैं.
हालांकि, नेहरू बहुत क्रांतिकारी आदमी नहीं थे, लेकिन वे एक प्रजातांत्रिक देश की समृद्धि के ऐतबार से आर्थिक आधार को मजबूत करने के लिए आधुनिक भारत की सोच रखते थे. उनका इतना ही मानना था कि जब तक देश आर्थिक रूप से मजबूत होकर अपने पैरों पर खड़ा नहीं होगा, तब तक वह आगे नहीं बढ़ पायेगा. सर्वागीण विकास के लिए उन्होंने सूचना तकनीक को बेहतर माध्यम के रूप में समझा और इसलिए उन्होंने तत्कालीन शिक्षा-पद्धति में इसको शामिल किया. आज भारत सूचना प्रौद्योगिकी में आगे बढ़ रहा है, तो यह उस शिक्षा-पद्धति की ही देन है. क्या ही सच है कि आज का दौर सूचना का दौर है. आज हमारे पास दुनिया की तमाम सुख-सुविधाएं हैं, लेकिन हमारे अंदर दूरदृष्टि की कमी है. इसलिए यह प्रासंगिक हो जाता है कि हम नेहरू की नीतियों से इत्तेफाक रखें और अपनी दूरदृष्टि से लोकतंत्र को मजबूत करें.
वर्तमान में धर्म और राजनीति के गंठजोड़ के नजरिये से देखें, तो यह लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है. धर्म आधारित समाजों-देशों का जो हाल है, वह यह कि आज वे दुनिया भर में बरबादी का जामा पहने समृद्धि की तलाश में भटक रहे हैं. पंडित नेहरू इस बात को अच्छी तरह समझते थे और इसलिए वे धर्म और राजनीतिक को अलग करके देखते थे. उनका मानना था कि राजनीति पूरे समाज के लिए होती है और धर्म बेहद व्यक्तिगत होता है.
यह उस वक्त बहुत बड़ी बात थी, क्योंकि तब देश में तकरीबन 80 प्रतिशत हिंदू आबादी थी. हालांकि वे इतना जरूर मानते थे कि यदि जरूरत पड़े, तो राजनीति को चलाने के लिए धर्म का सहारा ले लेना चाहिए, लेकिन राजनीति को पूरी तरह से धर्म पर निर्भर नहीं होना चाहिए. इससे देश का न सिर्फ लोकतांत्रिक नुकसान होता है, बल्कि समाजार्थिक नुकसान भी होता है.
पंडित नेहरू के समय में धर्मोपदेशक भी वैज्ञानिक जीवन जीने की बात करते थे, लेकिन आज जिस तरह से मौजूदा धर्मोपदेशकों का पाखंडी रूप हमारे समाज को बिगाड़ रहा है, इसमें बरबस ही पंडित नेहरू याद आ जाते हैं. नेहरू युगीन राजनीति धर्म पर हावी हुआ करती थी, लेकिन मौजूदा दौर की राजनीति पर धर्म हावी हो चला है. अगर आज पंडित नेहरू की आत्मा होती, तो सच्ची वह भारतीय राजनीति की इस हालत को देख कर बहुत ही परेशान होती. गौरतलब है कि अगर नेहरू भी धर्म-राजनीति के घालमेल को स्वीकार कर लेते, तो आज हमारा देश भी पाकिस्तान की राह पर चल कर समाप्ति की ओर बढ़ रहा होता. धर्म और राजनीति का घालमेल लोकतंत्र के लिए बहुत ही जहर है.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)