।। उर्मिलेश ।।
वरिष्ठ पत्रकार
इस बात से इनकार करना नाइंसाफी होगी कि प्रधानमंत्री के तौर पर डॉ मनमोहन सिंह कश्मीर-समस्या का मर्म समझते थे. उन्हें कांग्रेस नेतृत्व ने छूट दी होती, तो कश्मीर मसले को लेकर भारत-पाक रिश्तों के इतिहास में एक ऐतिहासिक अध्याय जुड़ा होता.शानदार शुरुआत के बावजूद देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की कश्मीर-नीति बहुत सुसंगत नहीं रही.
‘शानदार शुरुआत’ इसलिए कह रहा हूं कि पंडित नेहरू और शेख मो अब्दुल्ला के साझा प्रयासों से ही जम्मू कश्मीर का भारतीय संघ में सम्मिलन हुआ. दूसरी कई रियासतों की तरह यह विलय नहीं था. सम्मिलन के समझौते पर 26 अक्तूबर, 1947 को महाराजा हरि सिंह ने हस्ताक्षर किये और 27 अक्तूबर को भारतीय सेना की टुकड़ी पहली बार श्रीनगर हवाई अड्डे पर उतरी. इसे अमलीजामा पहनाने में गृह मंत्री सरदार पटेल और नौकरशाह वीपी मेनन की महत्वपूर्ण भूमिका थी. भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 अचानक नहीं जुड़ा.
समझौते के कुछ उपबंधों को व्यावहारिक जमीन देने के लिए कश्मीर को विशेष दर्जा मिलना लाजमी था. 1949 के मई से अक्तूबर के बीच इसके लिए नेहरू और शेख अब्दुल्ला के बीच लगातार संवाद हुए. संविधान सभा और नेहरू-कैबिनेट के वरिष्ठ सदस्य होने के नाते सरदार पटेल और श्यामा प्रसाद मुखर्जी को कश्मीर के विशेष प्रावधान-प्रस्ताव की पूरी जानकारी और उस पर सहमति थी. लंबी चर्चा के बाद इसे संविधान में शामिल किया गया. शुरू में वजीरे आजम शेख की सरकार ने कई बड़े काम किये. लेकिन 1953 आते-आते हालात अचानक बदल गये. नेहरू-शेख के बीच ऐसी दरार पैदा हुई कि 8 अगस्त की रात कश्मीर के वजीरे आजम को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया. शेख कैबिनेट के वरिष्ठ सदस्य बख्शी गुलाम मोहम्मद को वजीरे आजम की शपथ दिला दी गयी.
आजाद भारत में जनतंत्र और केंद्र-राज्य रिश्तों की गरिमा पर यह कुठाराघात था. केंद्रीय मंत्रिमंडल के कुछ सदस्यों, निकटस्थ सेनाधिकारियों और कश्मीर के कुछ बड़े कांग्रेसी नेताओं की सलाह पर नेहरू ने अपने दोस्त व सूबे के वजीरे आजम के विरुद्ध इस कार्रवाई को हरी झंडी दी. शेख के लोकप्रिय कार्यक्रमों, खासकर नयी कश्मीर नीति और भूमि सुधार आदि से सूबे की एक ताकतवर लॉबी नाराज थी.
कश्मीर, खासकर भारत में उसके सम्मिलन के खास कालखंड और बाद के संबद्ध घटनाक्रमों के संक्षिप्त व्योरे से कश्मीर पर नेहरू की सोच और उनकी विरासत को अच्छी तरह समझा जा सकता है. उनके बगैर भारत में कश्मीर के सम्मिलन की कल्पना भी संभव नहीं होती. समृद्ध डोगरा रईसों, जमींदारों, सैन्य अधिकारियों और निहित स्वार्थ से भरे कुछ कांग्रेसी नेताओं की सलाह पर उन्होंने शेख जैसे अपने भरोसेमंद दोस्त को सत्ता से उठा कर जेल भेज दिया और इस तरह भारत में कश्मीर के सम्मिलन की खराब शुरुआत हुई. उसके दंश कश्मीर में आज भी महसूस किये जा सकते हैं. यही नहीं हुआ, अनुच्छेद-370 के तहत कश्मीर को मिले बहुत सारे विशेष प्रावधानों का क्रमश: लोप होता रहा.
केंद्र ने एक योजना के तहत ऐसे अनेक प्रावधानों को खत्म किया. दुनिया के अनेक लोकतांत्रिक देशों में स्वायत्तता-प्राप्त सूबे या इलाके आज भी राजी-खुशी हैं. यदाकदा, केंद्रीय सत्ता से उभरनेवाले उनके अंतर्विरोध को सुलझाने के तंत्र विकसित किये गये हैं. पर हमारे गणराज्य के संचालकों ने 1953 में ही मान लिया कि कश्मीर को मिले विशेष प्रावधान ‘राष्ट्रहित’ में नहीं हैं. 1965 आते-आते इन विशेष प्रावधानों को बेहद सीमित कर दिया गया. अब 370 के नाम पर ऐसा कुछ नहीं बचा है, जो सवा अरब आबादी वाले मजबूत लोकतांत्रिक गणराज्य को खतरा पैदा करे. इसलिए अब मोदी सरकार को इतिहास की गलतियों को दोहराने की जगह, उनसे सबक लेने की जरूरत है.
कश्मीर को आज यह बताने की जरूरत है कि दिल्ली उस पर उतना ही भरोसा करती है, जितना दूसरे राज्यों पर. बार-बार छेदे गये अनुच्छेद 370 से मोदी या भाजपा को डरने की जरूरत ही कहां है? मोदी अगर इतिहास से सबक लेना चाहते हैं, तो उन्हें कश्मीर पर नेहरू के बुनियादी नजरिये की तरफ लौटना होगा कि भारत में कश्मीर के सम्मिलन की कामयाबी हमारी राष्ट्रीय एकता और धर्मनिरपेक्षता की कामयाबी की भी जरूरी शर्त है. मोदी को कामयाब होना है, तो उन्हें संघ-परिवार और अपनी पार्टी मैनिफेस्टो के दायरे से बाहर जाकर ठोस राजनीतिक प्रयास करने होंगे.
अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार ने एक बड़ा मौका गंवा दिया था. एनडीए-राज में जम्मू कश्मीर विधानसभा ने स्वायत्तता पर एक रिपोर्ट पारित कर केंद्र के विचारार्थ भेजा. तत्कालीन सरकार ने उसे देखने से भी इनकार कर दिया. उसके कुछ ही समय बाद उमर अब्दुल्ला विदेश राज्यमंत्री बने. जम्मू कश्मीर में उनके पिता डॉ फारूक अब्दुल्ला मुख्यमंत्री थे. इन दोनों ने एनडीए नेतृत्व पर दबाव बनाने के बजाय कुर्सी से चिपके रहना श्रेयस्कर समझा. इस घटनाक्रम से केंद्र और राज्य की अवाम के बीच दरार और बढ़ी.
बेशक! नरेंद्र मोदी की चुनावी कामयाबी में यूपीए-2 सरकार की विफलता की बड़ी भूमिका रही. पर इस बात से इनकार करना इतिहास के साथ नाइंसाफी होगी कि प्रधानमंत्री के तौर पर डॉ मनमोहन सिंह कश्मीर-समस्या का मर्म समझते थे. उन्हें कांग्रेस नेतृत्व ने खुली छूट दी होती और अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों ने साथ दिया होता, तो यूपीए काल में कश्मीर मसले को लेकर भारत-पाक रिश्तों के इतिहास में एक ऐतिहासिक अध्याय जुड़ा होता. लेकिन समस्या के अध्ययन और समाधान की दिशा सुझाने के लिए उनकी पहल को इतिहास कभी भुला नहीं पायेगा. उन्होंने नेहरू-विरासत के सकारात्मक पहलू को चुना. हर पक्ष से संवाद बढ़ा. इस तरह की पहल की शुरुआत यूपीए-1 के दौरान डॉ सिंह और तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ की हवाना-बैठक के साथ हुई.
उसी दौर में मुशर्रफ का 4-सूत्री फामरूला सामने आया. ठोस समझौता न हो सके, इसके लिए डॉ सिंह पर उनकी पार्टी के एक हिस्से और रक्षा-सैन्य नौकरशाही के दबाव थे, तो मुशर्रफ पर वहां के कट्टरपंथी मुल्लाओं और आतंकी गुटों का दबाव था.
इसके अलावा यूपीए-1 के दौरान डॉ सिंह ने कश्मीर पर पांच कार्यसमूह बनवाये. यूपीए-2 में तीन सदस्यीय वार्ताकार समिति बनायी गयी. वस्तुत: इस कमेटी का गठन घाटी में भड़के राजनीतिक जनाक्रोश को ठंडा करने के मकसद से किया गया. कार्यसमूहों और कमेटी की रपट से और कुछ हुआ हो या नहीं पर नार्थ और साउथ ब्लाक के लिए एक साफ नजरिया सामने आया. वे रपटें अब सरकारी आलमारियों में बंद पड़ी हैं. मोदी चाहें तो उन्हें खोल कर कश्मीर मामले में नया अध्याय लिख सकते हैं. पर मोदी को इसके लिए नेहरू की विरासत के सकारात्मक पहलुओं को आगे रखना होगा. क्या संघ परिवार उन्हें इसकी इजाजत देगा?