एनडीए में जदयू की भूमिका
केसी त्यागी राष्ट्रीय प्रवक्ता, जदयू kctyagimprs@gmail.com साल 1996 के लोकसभा चुनाव के बाद देश में तेजी से राजनीतिक बदलाव हुए. 161 सीटों के साथ भाजपा संख्या बल के शिखर पर थी, लेकिन कोई बड़ा गठबंधन न होने के कारण महज 14 दिनों में ही यह सत्ता से बाहर हो गयी. स्वयं अटल बिहारी वाजपेयी ने […]
केसी त्यागी
राष्ट्रीय प्रवक्ता, जदयू
kctyagimprs@gmail.com
साल 1996 के लोकसभा चुनाव के बाद देश में तेजी से राजनीतिक बदलाव हुए. 161 सीटों के साथ भाजपा संख्या बल के शिखर पर थी, लेकिन कोई बड़ा गठबंधन न होने के कारण महज 14 दिनों में ही यह सत्ता से बाहर हो गयी. स्वयं अटल बिहारी वाजपेयी ने इस संख्या बल को लेकर लोकसभा में अपना दर्द बयां किया था कि ‘कांग्रेस पार्टी पराजित हुई और मुझे बड़े दल के रूप में जनता का विश्वास मिला, लेकिन मैं इस संख्या बल के सामने नतमस्तक होता हूं और इस्तीफा देता हूं.’ इसके बाद जनता दल के नेता एचडी देवेगौड़ा प्रधानमंत्री बने, जिन्हें कई क्षेत्रीय दलों का सहयोग प्राप्त हुआ और कांग्रेस बाहर से समर्थन दे रही थी.
लेकिन देवगौड़ा ने सीताराम केसरी के इशारे पर नृत्य करने से मना कर दिया. उन्हें भी इस्तीफा देना पड़ा और इंदिरा गांधी के सहयोगी इंद्र कुमार गुजराल को प्रधानमंत्री बनाया गया. इस गठबंधन की मियाद भी लंबी नहीं रही. राजीव गांधी की हत्या में द्रमुक की भूमिका को लेकर सवाल उठे, जिसके बाद कांग्रेसी नेताओं की मांग रही कि सरकार में शामिल द्रमुक के मंत्रियों को बाहर किया जाये. इसका पटाक्षेप गुजराल के इस्तीफे से हुआ. यद्यपि यूपीए-2 से लेकर आज तक द्रमुक कांग्रेस के साथ ही है. कांग्रेस के निर्देशन में कमोबेस यही हाल चंद्रशेखर के साथ भी हुआ. हरियाणा पुलिस के दो सिपाहियों के गुप्तचरी के आरोप में एक सरकार स्वाहा हो गयी.
वस्तुतः गठबंधन की राजनीति के दो नायक हुए. पहला ज्योति बसु और दूसरा अटल बिहारी वाजपेयी. बसु के 25 वर्षों के शासन में सहयोगी पार्टी की सीट व विभाग जस के तस बने रहे. यह गठबंधन के स्वर्णिम क्रियान्वयन का बड़ा उदाहरण है. 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी विध्वंस के बाद भाजपा अलग-थलग पड़ गयी. यद्यपि लोकसभा व विधानसभाओं में इसकी संख्या जरूर बढ़ी, लेकिन सहयोगी दल के रूप में सिर्फ शिवसेना का ही समर्थन मिला. उधर बिहार में लालू प्रसाद के कुशासन, जातिवादी तथा अहंकारी नेतृत्व के कारण जनता दल में बड़ा विद्रोह हुआ.
जॉर्ज फर्नांडिस, नीतीश कुमार, रबी राय, चंद्रजीत यादव, सैयद शहाबुद्दीन, अब्दुल गफूर सरीखे नेता विद्रोह के बाद 1994 में समता पार्टी का निर्माण करा चुके थे. ममता बनर्जी के नेतृत्व में टीएमसी, जनता दल से अलग होकर बीजेडी, टीडीपी सरीखी पार्टियां अपनी सार्थक कारगर भूमिका की तलाश में थीं. भाजपा का बंबई में राष्ट्र्ीय अधिवेशन था. इसी दौरान जॉर्ज फर्नांडिस जसलोक अस्पताल में भर्ती थे. लालकृष्ण आडवाणी उनसे कुशल-क्षेम पूछने गये हुए थे, जहां नीतीश कुमार भी मौजूद थे. आडवाणी भाजपा अधिवेशन में समता पार्टी के नेताओं की उपस्थिति चाहते थे और ऐसे लचीले गठबंधन की इच्छा भी रखते थे, जिसमें गैर-कांग्रेसी दलों को भी शामिल किया जा सके.
अधिवेशन में नीतीश की उपस्थिति व संबोधन राष्ट्रीय राजनीति में बदलाव का मील का पत्थर साबित हुआ. हालांकि, 1996 के लोकसभा व विधानसभा के चुनावों में समता पार्टी पराजित हुई, लेकिन देश की राजनीति के लिए गठबंधन की राहें आसान हो गयीं. मंडल कमीशन की अनुशंसाओं के लागू होने के बाद बिहार में लालू प्रसाद और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव बड़े नेता के रूप में उभरे. मुलायम सिंह अनुभवी व समाजवादी आंदोलन की मुख्यधारा की उपज थे जबकि लालू केवल छात्र राजनीति की उत्पत्ति थे. बिहार में कुशासन, भ्रष्टाचार के विरुद्ध व्यापक जनजागरण शुरू हुआ. जॉर्ज और नीतीश कुमार की बड़ी-बड़ी सभाएं होने लगीं, जिसमें पिछड़े तबकों के विभिन्न वर्गों तथा खासकर अतिपिछड़ों को संगठित करने का काम किया गया.
निःसंदेह कुशवाहा जाति के बड़े नेता के रूप में सकुनी चौधरी भी नीतीश के इस मुहिम का हिस्सा बने, जिसे लोग ‘लव-कुश’ की राजनीति भी कहते थे. यह दौर लालू के खिलाफ पिछड़ी जातियों को लामबंद करने का था. 1998 तथा 1999 के लोकसभा चुनावों में इस गठबंधन के नतीजे दिखने शुरू हो गये थे तथा अटल बिहारी की अध्यक्षता व जॉर्ज साहब के संयोजन में एनडीए की स्थापना हुई. विवादास्पद मुद्दों से एनडीए ने दूरी बनायी, जिसमें तय था कि अनुच्छेद-370 यथावत रहेगा, राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामला सर्वोच्च न्यायालय के अधीन व दोनों धर्म गुरुओं के संयुक्त संतुति के अनुसार रहेगा तथा सामान नागरिक संहिता में कोई बदलाव नहीं किया जायेगा.
इस तरह से वाजपेयी के नेतृत्व में क्षेत्रीय दलों की लंबी कतार लग गयी, जो इस गठबंधन में शामिल हुए. टीएमसी, टीडीपी, अकाली दल, समता पार्टी, कुछ समय के लिए बसपा समेत कई दल इसके अंग बने. किसी भी वैचारिक या आर्थिक मुद्दे पर 2005 तक कोई बड़ा विवाद नहीं हुआ.
जहां तक एनडीए में जदयू की भूमिका का प्रश्न है, जदयू सामाजिक न्याय की राह चल सबके विकास को संकल्पित रहा है. यह भ्रष्टाचार के सवालों पर बनी-बनायी सरकार तक का त्याग करने का साहस रखती है. पार्टी के हजारों कार्यकर्ता जेपी और वीपी सिंह के नेतृत्व में भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का हिस्सा रह चुके हैं. आपातकाल में जेल जा चुके हैं. यही कारण रहा कि लालू और उनके परिवार द्वारा संपत्ति अर्जित करने के मामले के सार्वजनिक होने के बाद गठबंधन चलाना असंभव हो गया था. नीतीश सुशासन के पैरोकार रहे हैं, इसलिए सिर्फ सत्ता में बने रहने मात्र हेतु भ्रष्टाचार से समझौता असंभव था और यहां भाजपा ने जदयू को समर्थन दे एनडीए को पुनर्जीवित करने का नेक काम किया.
हाल में कुछ स्तंभकारों व राजनीतिक विश्लेषकों द्वारा नीतीश की राजनीति पर टिप्पणियां की गयी हैं. साल 2014 जदयू के लिए सबसे बुरा वर्ष रहा, जब लोकसभा चुनाव में इसे महज दो सीटों पर संतोष करना पड़ा. महत्वपूर्ण है कि इस चुनाव में भी पार्टी को 16 फीसदी मत प्राप्त हुए, जो किसी जाति या संप्रदाय विशेष के मत नहीं थे. सुशासन और विकास की न तो जाति होती है और न ही वोट बैंक होता है. इसकी सिर्फ साख होती है, जो घटते-बढ़ते की बजाय इतिहास में दर्ज होती है.
सीएसडीएस-एबीपी के सर्वे के अनुसार बिहार अकेला राज्य है, जहां एनडीए गठबंधन सबसे सुदृढ़ स्थिति में है और यदि 2014 के एनडीए और जदयू के मतों को देखें, तो आज भी यह गठबंधन 40 में से 38 पर बढ़त में है और नीतीश कुमार घोषणा कर चुके हैं कि 2019 का चुनाव एनडीए घटक के रूप में ही लड़ा जायेगा. यह घोषणा तमाम अटकलों को विराम देने के लिए काफी है.