भला कानून, बुरा असर
श्रम-शक्ति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने और उन्हें समुचित अधिकार व सुविधाएं देने के लिए समय-समय पर कायदे-कानून बनाये जाते रहे हैं. पिछले साल संगठित क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं के लिए प्रसूति प्रसुविधा (संशोधन) अधिनियम के तहत गर्भवती होने की स्थिति में वेतन सहित 26 सप्ताह के अवकाश की व्यवस्था लागू की गयी थी. इससे […]
श्रम-शक्ति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने और उन्हें समुचित अधिकार व सुविधाएं देने के लिए समय-समय पर कायदे-कानून बनाये जाते रहे हैं. पिछले साल संगठित क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं के लिए प्रसूति प्रसुविधा (संशोधन) अधिनियम के तहत गर्भवती होने की स्थिति में वेतन सहित 26 सप्ताह के अवकाश की व्यवस्था लागू की गयी थी.
इससे पहले अवकाश की अवधि 12 सप्ताह होती थी. माना जा रहा था कि परिवार और संतान की जिम्मेदारियों के कारण नौकरी छोड़ने को मजबूर महिलाओं को इससे फायदा होगा, लेकिन इसका उलटा असर होता दिख रहा है. टीमलीज के सर्वे से यह तथ्य सामने आया है कि मातृत्व अवकाश के खर्च से बचने के लिए कंपनियां महिलाओं को रोजगार देने में संकोच कर रही हैं. औद्योगिक और सेवा से जुड़े 10 क्षेत्रों की 300 कंपनियों के इस सर्वे का आकलन है कि मौजूदा वित्त वर्ष में 11 से 18 लाख महिलाओं की नौकरी जा सकती है.
करीब 65 फीसदी कंपनियों ने संकेत दिया है कि उन्हें महिलाओं की भर्ती में हिचक होगी तथा 43 फीसदी कंपनियों ने कहा है कि वे पुरुषों को नौकरी देना पसंद करेंगी. आशंका जतायी जा रही है कि पूरे संगठित क्षेत्र में 1.2 करोड़ महिलाओं की नौकरी मुश्किल में पड़ सकती है. बीते एक-डेढ़ दशक से विभिन्न कारणों से श्रम-शक्ति में स्त्रियों की भागीदारी लगातार घट रही है. साल 2004-05 से 2011-12 के बीच सात वर्षों में सालाना 28 लाख महिलाएं कम हुई हैं.
साल 2016-17 में महिलाओं के लिए 60 लाख नौकरियां सृजित हुई थीं, पर अगले वित्त वर्ष में 50 लाख नौकरियां चली भी गयी थीं. वर्ष 2017 में देश के कुल 51 करोड़ की श्रम-शक्ति में महिलाओं की संख्या 13.8 करोड़ यानी महज 27 फीसदी थी. मातृत्व अवकाश बढ़ाने से कंपनियों पर खर्च के बोझ की शिकायत बेजा नहीं है.
बड़ी और मध्यम आकार की कंपनियां तो इसे बर्दाश्त कर सकती हैं, पर छोटे और सूक्ष्म स्तर की ईकाईयों के लिए इसकी भरपाई आसान नहीं है, क्योंकि उनकी लागत-मुनाफा का अनुपात बहुत कम होता है. कानून बनाते समय इस अंतर का ध्यान रखा जाना चाहिए था. जानकारों की राय है कि करों में छूट या कुछ अन्य राहत के बदले महिलाओं को अवसर देने की नीति लागू की जानी चाहिए.
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार, 58 फीसदी देशों में ऐसी छुट्टियों की भरपाई सरकार की सामाजिक सुरक्षा योजना के जरिये की जाती है और 16 फीसदी में सरकार और कंपनी साझेदारी में खर्च वहन करते हैं. भारत समेत 25 देशों में यह जिम्मेदारी कंपनी की है. बीते ढाई दशकों में अनेक देशों में साझेदारी को लागू किया गया है.
इस सर्वे के निष्कर्षों और कामकाजी महिलाओं की घटती भागीदारी के मद्देनजर सरकार को तुरंत जरूरी कदम उठाना चाहिए. भारतीय अर्थव्यवस्था की तेजी को बनाये रखने के लिए रोजगार से जुड़े मसलों पर ध्यान देना नीतिगत प्राथमिकता होनी चाहिए.