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वैचारिक अस्पृश्यता का युगांत

II तरुण विजय II नेता, भाजपा tarunvijay55555@gmail.com जवाहरलाल नेहरू विवि (जेएनयू) अनेक उन कारणों से सुार्खियों में रहा, जो देश तोड़नेवाली आवाजों से जुड़े थे. वहां पहली बार बीते 27 जून को डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी का स्मरण किया गया, जिसमें उपकुलपति प्रो जगदीश कुमार ने लोकसभा में डॉ मुखर्जी के एक भाषण (2 जून, […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 29, 2018 7:49 AM

II तरुण विजय II

नेता, भाजपा

tarunvijay55555@gmail.com

जवाहरलाल नेहरू विवि (जेएनयू) अनेक उन कारणों से सुार्खियों में रहा, जो देश तोड़नेवाली आवाजों से जुड़े थे. वहां पहली बार बीते 27 जून को डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी का स्मरण किया गया, जिसमें उपकुलपति प्रो जगदीश कुमार ने लोकसभा में डॉ मुखर्जी के एक भाषण (2 जून, 1951) का उल्लेख किया, जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘पंडित नेहरू एक ऐसे समय सांप्रदायिकता का मुद्दा उठा रहे हैं, जब देश गरीबी, भूख, कुप्रशासन, भ्रष्टाचार और पाकिस्तान के सामने संपूर्ण समर्पण जैसी चुनौतियों का सामना कर रहा है.’

प्रो जगदीश कुमार ने कहा कि आज भी देश जब विकास के रास्ते पर चल रहा है, तो देश के भीतर और बाहर कुछ लोग देश का ध्यान बांटने का प्रयास कर रहे हैं. इसको नेहरू की आलोचना मान लिया गया और मीडिया में टिप्पणियां शुरू हो गयीं. विडंबना यह है जिन लोगों ने 49 वर्षों तक जेएनयू में श्यामा प्रसाद मुखर्जी के स्मरण तक को अघोषित प्रतिबंधित कर रखा था, उन्होंने नेहरू के बारे में एक टिप्पणी को ही इतना आपत्तिजनक क्यों माना? क्या नेहरू के बारे में कोई अन्य स्वर, समीक्षा और आलोचनात्मक टिप्पणी संभव ही नहीं?

इस कार्यक्रम में मुझे विषय पर बीज व्याख्यान देना था और केंद्रीय राज्य मंत्री डॉ जितेंद्र सिंह तथा लेफ्टिनेंट जनरल अता हसनैन को राजनीतिक एवं सुरक्षा विषयों पर बोलना था. जनरल हसनैन ने डॉ मुखर्जी को एक विराट व्यक्तित्व का महापुरुष कहा, जिन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा को राजनीतिक क्षेत्र में सर्वाधिक महत्व दिया. डॉ जितेंद्र सिंह ने कहा कि विश्वविद्यालयों को राष्ट्रीय एकता एवं देशभक्ति का केंद्र होना चाहिए. यह उस जेएनयू के लिए अनोखा अनुभव था, जहां नारे ही आजादी और सैनिकों के खिलाफ लगते रहे हैं.

डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी देश के मूर्धन्य शिक्षाशास्त्री थे. ब्रिटिश काल में जब सामान्यतः विश्वविद्यालयों में प्राध्यापक अंग्रेज ही होते थे. उनकी विद्वत्ता का इतना प्रभाव था कि 33 वर्ष की आयु में उनको कलकत्ता विवि का उपकुलपति नियुक्त किया गया.

उन्होंने बेंगलुरु से डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन को अपने यहां बुलवाया और उन्हें एक सार्वजनीन विद्वत क्षेत्र में अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर दिया, जिसे डॉ राधाकृष्णन आजीवन नहीं भूले. डॉ मुखर्जी ने कविगुरु रबींद्र नाथ ठाकुर को दीक्षांत भाषण के लिए आमंत्रित किया, तो कविगुरु ने उनको टेलीग्राम भेजकर कहा यदि आप मुझे बांग्ला में बोलने देंगे, तो मैं आऊंगा. डॉ मुखर्जी ने कहा यह हमारा सौभाग्य होगा. और कलकत्ता विवि में पहली बार भारतीय भाषा में दीक्षांत भाषण हुआ.

डॉ मुखर्जी ने उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बांग्ला सहित भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा के लिए अनथक प्रयास किये. वे केवल 23 वर्ष की आयु में कलकत्ता विवि के निर्वाचित फेलो चुने गये थे. 26 की आयु में बैरिस्टर बने. 28 की आयु में कांग्रेस के टिकट पर विश्वविद्यालय सीट से बंगाल विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुए.

जब वे कलकत्ता विवि के उपकुलपति बने, तो उनके द्वारा लाये शैक्षिक सुधारों का इतना अच्छा असर हुआ कि उनको लगातार दो कालखंडों के लिए उपकुलपति बनाया गया- 1934 से 1938 तक. उन्हें उनके मातृ विवि और फिर बनारस विवि ने मानद डॉक्टरेट की उपाधियां 1938 में ही दे दी थीं (37 वर्ष की आयु में). उनका अंतिम दीक्षांत भाषण 1952 में दिल्ली विवि में हुआ.

देश में जिस तरह से जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग सक्रिय थी, डॉ श्यामा प्रसाद हिंदू महासभा में आ गये और वीर सावरकर ने उनको राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष बनाया. उनके लिए कभी भी कांग्रेस ने सरकारी-गैरसरकारी स्तर पर सम्मान का भाव नहीं दिखाया.

यद्यपि गांधीजी के कहने पर नेहरू मंत्रिमंडल में देश के प्रथम उद्योग मंत्री भी बने, जिन्होंने देश की उद्योग नीति का खाका बनाया. लेकिन नेहरू-लियाकत अली समझौते को खुले तौर पर पाकिस्तान समर्थक और हिंदू-विरोधी मानते हुए उन्होंने केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया तथा रष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक गुरुजी गोलवलकर के परामर्श से भारतीय जनसंघ की स्थापना की.

एक ऐसे महान विद्वान की कांग्रेस ने सिर्फ इसलिए निंदा की, क्योंकि नेहरू ने कभी श्यामा प्रसाद को स्वीकार नहीं किया. लोकसभा में श्यामा प्रसाद एक सदस्यीय विपक्ष थे. उनकी धीर-गंभीर वाणी और अकाट्य तर्कों से नेहरू तिलमिला जाते थे. एक बार नेहरू ने लोकसभा में श्यामा प्रसाद से कहा- मैं जनसंघ को कुचल दूंगा- (तब जनसंघ के सिर्फ तीन सदस्य थे), तो श्यामा प्रसाद बोले- मैं आपकी कुचलनेवाली मानसिकता कुचल दूंगा.

इसीलिए उनको संसद का शेर कहा जाता था. ऐसे श्यामा प्रसाद यदि जेएनयू में एक विमर्श का विषय बनें, तो उससे ऐसे शिक्षा परिसर की प्रतिष्ठा में ही वृद्धि होती है.

कश्मीर बचाना है, तो डॉ श्यामा प्रसाद के विचारों पर ही चलना होगा. वहां से दूसरा झंडा हटना चाहिए, जो देश से विद्रोह और अलगाव का प्रतीक बन गया है. धारा 370 भी डॉ श्यामा प्रसाद के आदर्शों और विचारों के एकदम विपरीत है. जेएनयू से प्रारंभ श्यामा प्रसाद चर्चा का महत्व धीरे-धीरे समझ आता जायेगा.

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में श्यामा प्रसाद मुखर्जी का आगमन वैचारिक अस्पृश्यता के सेक्युलर पैरोकारों को झटका है और मुक्तता के भाव का सबलीकरण है.

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