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तेल आयात व भारत-ईरान संबंध
पुष्पेश पंत अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार pushpeshpant@gmail.com अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप ने पूर्व राष्ट्रपति ओबामा द्वारा ईरान के संपन्न परमाणु समझौते को न केवल खारिज कर दिया है, बल्कि ईरान के विरुद्ध कड़े आर्थिक प्रतिबंध भी लागू करने की घोषणा की है. जो बात और भी चिंताजनक है, वह यह कि ट्रंप ने अपने सभी […]
पुष्पेश पंत
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार
pushpeshpant@gmail.com
अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप ने पूर्व राष्ट्रपति ओबामा द्वारा ईरान के संपन्न परमाणु समझौते को न केवल खारिज कर दिया है, बल्कि ईरान के विरुद्ध कड़े आर्थिक प्रतिबंध भी लागू करने की घोषणा की है.
जो बात और भी चिंताजनक है, वह यह कि ट्रंप ने अपने सभी संधि मित्रों और अन्य देशों को यह चेतावनी दी है कि यदि उन्होंने ईरान के साथ अपने आर्थिक संबंधों को यथावत रखा, उनमें कटौती नहीं की, तो उन्हें भी इन आर्थिक प्रतिबंधों का सामना करना पड़ेगा. भारत जैसे देश के लिए यह बड़ी चुनौती है, क्योंकि ईरान के साथ न केवल हमारे देश के हजारों साथ पुराने संबंध हैं, बल्कि वहां से हम बड़ी मात्रा में तेल का आयात करते हैं
इराक और सऊदी अरब के बाद ईरान दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल निर्यातक देश है और भारत अपनी तेल जरूरत का लगभग 14-15 प्रतिशत हिस्सा ईरान से प्राप्त करता है. यह सोचना तर्कसंगत नहीं कि हम अमेरिका की धमकी के आगे आसानी से घुटने टेकने को मजबूर हैं. इस मामले में हमारे राष्ट्रहित का कोई भी संयोग या सन्नीपात अमेरिका के स्वार्थों के साथ नहीं.
अमेरिका और ईरान के संबंधों में वैमनस्य का इतिहास बहुत पुराना है. शीतयुद्ध के आरंभ में ही ईरान के जनतांत्रिक प्रधानमंत्री मोसादेग का खात्मा कर ईरानीयन-अमेरिकन पैट्रोलियन कंपनी को हथियाने में अमेरिकी तेल कंपनियां कामयाब रही थी और उसके बाद से ईरान के तानाशाह रजाशाह पहलवी अमेरिका के सहयोगी बने रहे और अमेरिकी छत्रछाया में ही मध्य एशिया में अमेरिकी सामरिक हितों की रखवाली में प्रमुख भूमिका निभाते रहे थे.
इस स्थिति में बदलाव 1970 के दशक में आया, जब अपनी अकूत तेल संपदा से मदांध रजाशाह ने कई बड़ी अमेरिकी कंपनियों को खरीद लिया और अमेरिकियों को यह स्थिति नागवार गुजरी. इस दशक के अंत तक फ्रांस में देश निकाला झेल रहे आयतुल्ला खुमैनी की प्रेरणा से एक इस्लामी क्रांति संपन्न हुई, जिसने ईरान में राजशाही को खत्म कर इस्लामी गणराज्य की स्थापना की. इसी समय हनटिंगटन जैसे विद्वान सभ्यताओं की मुठभेड़ के सिद्धांत का प्रतिपादन कर रहे थे और ईरान-अमेरिका का अंतर्विरोध इसाइयत और इस्लाम के बीच लड़े गये हजारों साल पुराने क्रूसेड नामक धर्मनीति की याद ताजा कराने लग गया.
अमेरिकियों को लगने लगा कि यह घटनाक्रम उनके लिए जोखिम पैदा कर रहा है और जब खुमैनी के अनुयाइयों ने अमेरिकी दूतावास की सालभर लंबी घेराबंदी की, तब अमेरिकियों को सैनिक हस्तक्षेप का बहाना मिल गया. राष्ट्रपति कार्टन के शासनकाल में यह दुस्साहसिकता अमेरिकियों को महंगी पड़ी और असफल सैनिक अभियान के बाद ईरानियों का कद इस्लामी जगत में बढ़ गया. यहां इस बात को रेखोंकित करने की जरूरत है कि ईरान एक शिया बहुल देश है और उसकी ऐतिहासिक प्रतिद्वंद्विता सुन्नी-सऊदी के साथ है. इस बात को भी भुलाया नहीं जाना चाहिए कि अमेरिकी पक्षधर इस्राइल को लगता है कि ईरान के परमाण्विक कार्यक्रम का मकसद उनके यहूदी राष्ट्र को निशाने पर रखना है, इसीलिए वह पहले ही आत्मरक्षात्मक प्रहार द्वारा ईरान को ध्वस्त करना चाहते हैं.
कई विश्लेषकों का मानना है कि इस्राइली गुप्तचर सेना ईरानी परमाणु वैज्ञानिकों की हत्या की साजिश का अंजाम देती रही है. यह बात भी याद रखने लायक है कि कड़े आर्थिक प्रतिबंधों और अप्रत्यक्ष-अघोषित युद्ध के बावजूद अमेरिका ईरान के परमाणु कार्यक्रम को रोकने में असमर्थ रहा है. इसलिए ओबामा ने धमकी से नहीं सुलह से इस गुत्थी को सुलझाने का प्रयास किया.
भारत की मजबूरी यह है कि लगभग 25 वर्ष से भारत गुटनिरपेक्षता की नीति छोड़कर अमेरिका के विश्व दर्शन का साझा रहा है. अमेरिकी दबाव में ही भारत ने संयुक्त राष्ट्र में ईरान के विरुद्ध कभी अनुपस्थित रहकर, तो कभी तटस्थ रहकर उसके विरोध में ही हाथ बटाया है.
अमेरिका ने भले ही संकेत दिये हैं कि ईरान में जिस चाबहार बंदरगाह के निर्माण में भारत हाथ बटा रहा है, उसको इन प्रतिबंधों के दायरे के बाहर रखा जायेगा, पर इसे रियायत नहीं समझा जा सकता. यह बंरदगाह भूमिबद्ध अफगानिस्तान तक पहुंचने का पाकिस्तान के बाहर एक वैकल्पिक मार्ग प्रस्तुत करता है और यह भारत से ज्यादा अमेरिका के सामरिक हितों के लिए जरूरी है. यह अनदेखी कठिन है कि जो ईरान कभी भारत में कुदरेमुख जैसी महत्वाकांक्षी परियोजनाओं को आगे बढ़ाता था, वह अब भारत के आर्थिक विकास में सहकार में कोई उत्साह नहीं दिखा रहा, क्योंकि उसे लगता है कि भारत में अमेरिका का मुकाबला करने में उसके साथ प्रत्याशित सहयोग नहीं किया है.
विडंबना यह है कि राष्ट्रपति ट्रंप ने इस घड़ी एक-साथ कई मोर्चे खोले हैं, वह चीन के खिलाफ वाणिज्य युद्ध की घोषणा कर चुके हैं और इसी तरह अमेरिका को प्राथमिकता देने की हठ के कारण यूरोप के देशों और कनाडा को खिन्न कर चुके हैं.
मैक्सिको में वामपंथी राष्ट्रपति के चुनाव के बाद उनके लिए एक और मुसीबत उठ खड़ी हुई है. भारत इस सब का राजनयिक लाभ उठा सकता है. भारत को भी एहसास है कि मध्य पूर्व में ईरान, लेबनान और पुतिन की फौजी टुकड़ियों ने उस रणक्षेत्र में तैनात अमेरिकी सेना और उसके सहयोगियों के बल से कहीं अधिक मजबूत जड़ें जमायी हैं. ट्रंप के लिए ईरान पर काबू पाना प्राथमिकता हो सकती है. भारत के लिए अमेरिकी राजनय में हाथ बटाना अदूरदर्शी आत्मघातक नादानी ही समझा जा सकता है.
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