साल 2019 की परीक्षा का पर्चा

नवीन जोशी वरिष्ठ पत्रकार naveengjoshi@gmail.com स्वाभाविक है कि भाजपा 2019 में केंद्र की सता में बहुमत से वापसी की कोशिश करे, जैसे कि विरोधी दल उसे बेदखल करने के प्रयत्न में लग रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष काफी समय से चुनावी मोड में हैं. अंदरखाने तैयारियां हैं ही, सरकारों के स्तर पर […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 11, 2018 12:08 AM
नवीन जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
naveengjoshi@gmail.com
स्वाभाविक है कि भाजपा 2019 में केंद्र की सता में बहुमत से वापसी की कोशिश करे, जैसे कि विरोधी दल उसे बेदखल करने के प्रयत्न में लग रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष काफी समय से चुनावी मोड में हैं.
अंदरखाने तैयारियां हैं ही, सरकारों के स्तर पर खुल्लम-खुल्ला लुभावनी चुनावी घोषणाएं होने लगी हैं. चर्चा यहां यह करनी है कि मोदी सरकार क्या उपलब्धियां लेकर जनता के पास जाना चाहती है और स्वयं जनता जनार्दन उसके लिए कैसा प्रश्नपत्र तैयार कर रही है?
साल 2014 में देश की जनता कांग्रेस नीत यूपीए शासन के भ्रष्टाचार से त्रस्त थी. वह बदलाव चाहती थी. भाजपा में तेजी से उभरे नरेंद्र मोदी ने अपने वक्तृत्व, तेजी और ताजगी से भ्रष्टाचार मिटाकर, काला धन वापस लाने एवं चौतरफा परिवर्तन के वादों से जो लहर पैदा की, उसने भाजपा को विशाल बहुमत से सत्ता में ला बिठाया. आज जब वे चार साल पूरे कर चुकने के बाद पांचवें वर्ष में जनता की परीक्षा में बैठनेवाले हैं, तो पास होने की कसौटी क्या होगी?
सरकार के पास तो उपलब्धियां गिनाने के लिए हमेशा ही बहुत कुछ होता है. मोदी सरकार ने भी अपना चार साल का प्रभावशाली लेखा-जोखा पेश किया है, मगर पास-फेल करना जनता के हाथ में है.
आर्थिक मोर्चे पर मोदी सरकार ने नोटबंदी जैसे दुस्साहसिक और जीएसटी जैसे साहसिक कदम उठाये. इनके नतीजों पर विवाद हैं. तमाम दावों के बावजूद अर्थव्यवस्था अच्छी हालत में नहीं है, विशेष रूप से वह हिस्सा, जो सीधे जनता को प्रभावित करता है. महंगाई लगातार बढ़ी है. पेट्रोल-डीजल के ऊंचे भावों ने उसे अनियंत्रित किया है.
बैंकों पर डूबे हुए कर्ज का बोझ बढ़ा, किंतु प्रयासों के बावजूद वसूली के प्रयास सफल होते नहीं दिखे. बेरोजगारों की संख्या बढ़ने की तुलना में रोजगारों का सृजन अत्यंत सीमित हुआ. युवा वर्ग में आक्रोश है, जो तरह-तरह के असंतोषों में फूटा.
इस पूरे दौर में देश का किसान क्षुब्ध और आंदोलित रहा. बदहाली के कारण उनकी आत्महत्याओं का सिलसिला बिल्कुल नहीं रुका. हाल ही में खरीफ फसलों के समर्थन मूल्यों में अब तक की सबसे बड़ी वृद्धि की जो घोषणा की गयी है, उससे भी किसान समुदाय का बड़ा हिस्सा प्रसन्न नहीं लगता.
आरोपों के अलावा मोदी सरकार को भ्रष्टाचार के मामलों में क्लीन चिट हासिल है. यूपीए-2 सरकार के लिहाज से यह बड़ी राहत है, लेकिन आम जनता को रोजमर्रा के कामों में भ्रष्टाचार से मुक्ति मिल गयी हो, ऐसा बिल्कुल नहीं है.
काले धन पर अंकुश नहीं लग सका. डिजिटल लेन-देन के मोर्चे पर भी शुरुआती उपलब्धि हाथ से फिसल गयी. नोबेल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने यह कहकर मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा किया है कि 2014 के बाद देश की अर्थव्यवस्था सबसे तेज गति से पीछे की ओर गयी है.
सामाजिक क्षेत्र में सरकार कुछ करती दिखायी दी, लेकिन वास्तव में परिवर्तन कितना आया? हाशिये पर जीनेवाली बड़ी आबादी के हालात कितना सुधरे? स्वच्छता अभियान और 2019 तक देश को खुले में शौच-मुक्त करने की महत्वाकांक्षी, सराहनीय योजना पर स्वयं प्रधानमंत्री ने बहुत रुचि ली, किंतु आंकड़ों से इतर व्यवहार में वह कितना उतर पायी?
दलितों के कल्याण के वास्ते घोषणाएं बहुत हुईं, लेकिन उन्हें सचमुच कितनी आजादी और सामर्थ्य मिली? महिलाओं के प्रति समाज और राजनीति के नजरिये एवं व्यवहार में कितना फर्क आया?
दैनंदिन जीवन में अनुभव करने के कारण जनता इन मुद्दों से सीधे जुड़ी रहती है. वह क्या महसूस करती है? यहां यह कहना जरूरी है कि देश की ये समस्याएं न आज की हैं, न इनके लिए मोदी सरकार जिम्मेदार है.
चूंकि स्वयं मोदी ने व्यक्तिगत रूप से भी इस बारे में जनता में बहुत ज्यादा उम्मीदें जगायीं, बढ़-चढ़कर दावे किये थे, इसलिए उनकी सरकार की जवाबदेही निश्चय ही बढ़ जाती है.
पिछले दिनों की चंद घटनाओं ने संकेत दिये हैं कि मोदी सरकार इन कसौटियों पर शायद असहज अनुभव कर रही है. प्रधानमंत्री का जोर आज भी परिवर्तन और विकास के मुद्दों पर है.
उनकी लोकप्रियता अधिक कम नहीं हुई है, लेकिन उनके मंत्री और भाजपा नेता क्या कर रहे हैं? केंद्रीय नागरिक उड्डयन राज्यमंत्री जयंत सिन्हा ने चंद रोज पहले झारखंड में उन आठ लोगों को जमानत पर छूटने पर माला पहनाकर मिठाई खिलायी, जिन्हें अदालत ने गोरक्षा के नाम पर हत्याओं का दोषी पाया है.
उसी दिन केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह बिहार के अपने निर्वाचन क्षेत्र में दंगा भड़काने के आरोप में जेल में बंद बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं के घर गये, उनके साथ हुए ‘अन्याय’ पर रोये और बिहार की अपनी ही सरकार को ही दोष देने लगे.
इन्हें हम इन नेताओं की स्फुट भटकनों के रूप में भी देख सकते थे, परंतु विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की अपने ही कैडर के हाथों अब तक जारी ट्रॉलिंग को किस रूप में देखें, जबकि पार्टी नेतृत्व और सरकार उनके पक्ष में आना तो दूर, मौन साधे रहे? राजनाथ सिंह और गडकरी उनके बचाव में आये, मगर काफी बाद में. फिर, पिछले महीने जम्मू-कश्मीर सरकार से भाजपा के अचानक अलग होने के फैसले से क्या समझा जाये, जबकि कश्मीर में शांति बहाली भाजपा सरकार का प्रमुख एजेंडा था?
तो, क्या इसे उग्र हिंदुत्व और प्रखर राष्ट्रवाद के पुराने एजेंडे को प्रमुख स्वर देने के रूप में देखा जाये? यह आशंका इसलिए बलवती होती है कि 2014 के चुनाव की पूरी तैयारी भाजपा ने इसी एजेंडे के तहत की थी. प्रधानमंत्री-प्रत्याशी के रूप में नरेंद्र मोदी परिवर्तन लाने, विकास करने तथा भ्रष्टाचार और परिवारवाद मिटाने की गर्जनाएं कर रहे थे, तो उनके कई नेता गोहत्या, खतरे में हिंदुत्व, देशद्रोह जैसे मुद्दे उछालने में लगे थे.
खूबसूरत सपने दिखाने और भावनाओं के उबाल का यह चुनावी मिश्रण-फॉर्मूला सफल रहा था. अब, जबकि सपनों को साकार करने के प्रयासों की परीक्षा होनी है, तब क्या फिर से धर्म और राष्ट्रवाद की भावनाओं का ज्वार उठाना भाजपा को आवश्यक लग रहा है? विपक्षी मोर्चेबंदी की काट के लिए उपलब्धियां पर्याप्त नहीं लग रहीं? ध्रुवीकरण का सहारा लिए बिना रास्ता कठिन लग रहा है?
सरकारों की परीक्षा का पैमाना जनता कब क्या बनाती है, यह स्पष्ट नहीं होता. साल 2004 में एनडीए के ‘शाइनिंग इंडिया’ को उसने नकार दिया और 2009 में यूपीए को अप्रत्याशित विजय दे दी थी. साल 2014 में जनता ने भाजपा को विशाल बहुमत दिया. तो अब 2019 के लिए भी प्रश्न-पत्र जनता बना ही रही होगी.

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