सूखे में हो रही बारिश
कुमार प्रशांत गांधीवादी विचारक k.prashantji@gmail.com किसान खुशहाल हो गये! अब किसान नेता अपने-अपने अांदोलन वापस ले लें. सूखे के अांकड़ों की ऐसी बारिश हुई है कि धरती अाप्लावित हो गयी है. प्रधानमंत्री ने कबीर-भूमि पर जाकर शताब्दियों का ऐसा कॉकटेल बनाया कि इतिहास अौर इतिहासकार सभी चारों खाने चित हो गये. उन्होंने ‘मेरे किसान भाइयों’ […]
कुमार प्रशांत
गांधीवादी विचारक
k.prashantji@gmail.com
किसान खुशहाल हो गये! अब किसान नेता अपने-अपने अांदोलन वापस ले लें. सूखे के अांकड़ों की ऐसी बारिश हुई है कि धरती अाप्लावित हो गयी है. प्रधानमंत्री ने कबीर-भूमि पर जाकर शताब्दियों का ऐसा कॉकटेल बनाया कि इतिहास अौर इतिहासकार सभी चारों खाने चित हो गये.
उन्होंने ‘मेरे किसान भाइयों’ की तरफ नजर घुमायी अौर एक ऐसी लकीर खींच दी कि किसान इधर अौर समस्याएं उधर रह गयीं. किसानों को कर्जमाफी का इंतजार था, प्रधानमंत्री ने उनके खेतों में ‘द्रौपदी का बटुअा’ गाड़ दिया!
मौका इतना बड़ा माना गया कि प्रेस से बात करने खुद गृहमंत्री को ला बिठाया गया.
गृहमंत्री ने इतिहास को टांग मारते हुए कहा कि किसानों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में इतनी बड़ी वृद्धि कभी नहीं की गयी थी! हमने इतिहास खंगाला, तो तथ्य निकला कि हर अाम चुनाव से पहले ‘द्रौपदी का बटुआ’ इसी तरह खोला जाता रहा है अौर अपनी सुविधा की फसलों का समर्थन मूल्य बढ़ाया जाता रहा है.
साल 2008-09 अौर फिर 2012-13 के चुनावी-दौर में भी ऐसी ही बड़ी वृद्धि की गयी थी. तब उनकी सुविधा की 11 फसलें कुछ दूसरी थीं, इस सरकार की सुविधा की छह फसलें दूसरी हैं. इस सरकार ने जिन फसलों को चुना है- गेहूं, सोयाबीन, मक्का, दलहन, कपास अौर बाजरा- ये वे फसलें हैं जिनकी पैदावार उन इलाकों में ज्यादा होती हैं, जिनमें चुनाव आनेवाले हैं.
बाजरा, रागी, मूंग, तुअर अादि की खरीदी सरकार कितना करती रही है, यह अांकड़ा देखें, तो इन घोषणाअों की पोल खुल जाती है. न्यूनतम मूल्य तो सरकार देनेवाली है न, बाजार नहीं. सरकार जिसे खरीदती नहीं है या कम खरीदती है अौर बाजार जिनकी खरीद में सबसे ज्यादा लूट करता है, उसकी खरीद के न्यूनतम मूल्य में वृद्धि कितना बड़ा धोखा है!
सरकार में शक्ति नहीं है कि वह नौकरशाही के भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा सके, तो उससे यह उम्मीद ही कैसे की जा सकती है कि वह बाजार अौर नौकरशाही की मिलीभगत से चलनेवाली लूट को रोक सकेगी? मतलब सीधा है कि सरकार ने एमएसपी में वृद्धि इस लूट को ज्यादा फलप्रद बनाने के लिए अौर उन शक्तिमान किसानों को लाभ पहुंचाने के लिए की है, जिनके बारे में कहा जाता है कि किसान अांदोलनों की चोटी इनके ही हाथ में है.
देश का किसान अांदोलन इतनी बुरी तरह टूटा हुअा है कि राजनीतिक दलों की बैसाखी बिना चल ही नहीं पाता है. कोटा (राजस्थान) में हड़ौती किसान के अामंत्रण पर जब मैं एक किसान सभा में किसानों को उनकी भूमिका बदलने के लिए सजग कर रहा था, तब एक संभ्रांत किसान ने कहा था- ‘किस किसान को अाप संबोधित कर रहे हैं?
यहां कांग्रेसी किसान हैं, भाजपाई किसान हैं, समाजवादी व बसपाई किसान हैं, लेकिन अाप जिसको खोज रहे हैं, वैसा किसान अब नहीं मिलेगा!’ यही वह सत्य है, जिसे सरकार ने निशाने पर रखकर एमएसपी का निर्धारण किया है.
अाप खुद सोचिए न कि प्रधानमंत्री सार्वजनिक रूप से स्वीकार करते हैं कि रोजगार तो बहुत बढ़ा है, लेकिन उसके अांकड़े हमारे पास नहीं हैं.
प्रधानमंत्री की इस बात से जो भयंकर सत्य बाहर अाता है, वह यह है कि सरकार के पास अांकड़े जुटाने अौर उन अांकड़ों के अाधार पर गणित बनाने का तंत्र नहीं है. फिर तो पूछना ही चाहिए कि जिस सरकार के पास अांकड़े जुटाने का तंत्र भी नहीं है, वह करोड़ों किसानों के कृषि-खर्च, बीज-खाद-पानी की जरूरत, कर्ज, खेती में हुए नुकसान, भरपाई की हैसियत अौर अात्महत्या के शिकारों के अांकड़े कैसे प्राप्त करती है अौर उस अाधार पर एमएसपी भी तय कर लेती है? क्या यह सच नहीं है कि किसान जिस जमीन पर जीता-मरता, पसीने बहाता, अन्न उगाता है अौर फिर लाखों की संख्या में अात्महत्या कर लेता है, उस गांव-जमीन तक सरकार की कोई पहुंच नहीं है?
अौर क्या यह भी उतना ही बड़ा सच नहीं है कि गांव-कस्बे की जिस मंडी में जीवन-मौत का यह सौदा होता है, वहां सरकार की कोई हैसियत नहीं है? नौकरशाही प्रायोजित दौरों से, हेलिकॉप्टरों के हवाई सर्वेक्षणों से अौर चमकीली चुनावी रैलियों से जो गांव देखे जाते हैं, उनका असलियत से कोई रिश्ता नहीं होता है.
सच यह है कि एमएसपी केवल छह प्रतिशत किसानों तक पहुंचता हैं. 94 प्रतिशत किसान इस तंत्र तक पहुंच भी नहीं पाते हैं अौर न उनमें इतनी ताकत होती है. देश के गांवों-कस्बों में दलालों की दुरभिसंधि खुले अाम बनी हुई है, जो लाचार किसानों को कहती है कि न्यूनतम मूल्य बाजार में मिलेगा नहीं, न्यूनतम मूल्य की घोषणा करनेवाली सरकारी व्यवस्था बनी नहीं है, कब अौर कैसे बनेगी हम जानते नहीं हैं.
नकद पैसा चाहिए, तो हमारी कीमत पर अनाज उतार जाअो अौर नकद पैसा ले जाअो. सौदा हो जाता है, किसान अपना कफन खरीदकर घर लौट जाता है. फिर दलालों की चांडाल-चौकड़ी उस अनाज को अपनी टीम के ‘सरकारी अधिकारी’ को न्यूनतम मूल्य पर बेचता है अौर दोनों अपने-अपने हिस्से की कमाई संभालते घर चले जाते हैं.
यह अगर सच नहीं है, तो न्यूनतम मूल्य की घोषणा करनेवाली बहादुर सरकार बताये कि किसानों की अात्महत्या में न्यूनतम गिरावट भी क्यों नहीं अा रही है? पैदावार बढ़ी है, लेकिन बाजार में अनाज की जगह क्यों नहीं है?
सरकारों का भोग-विलास अविश्वसनीय सीमा छू रहा है, लेकिन किसानों की दरिद्रता का चक्र थम नहीं रहा है. तो सरकारी विशेषज्ञ क्या रास्ता निकाल रहे हैं? जवाब एक ही है- चुनाव के मद्देनजर ऐसे सवाल नहीं पूछे जाते! सूखे में हो रही इस बारिश का यही सच है.