ओपेक और भारत का तेल आयात

संदीप बामजई आर्थिक मामलों के जानकार sandeep.bamzai@gmail.com भारत ने तेल उत्पादक देशों (ओपेक देशों) से यह कहा है कि वे कीमतें घटाएं, नहीं तो मांग में कमी के लिए तैयार रहें. मेरे ख्याल में इस तरह की चेतावनी का कोई मतलब नहीं है. यह एक प्रकार का भ्रम है कि भारत तेल की मांग को […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 13, 2018 7:42 AM
संदीप बामजई
आर्थिक मामलों के जानकार
sandeep.bamzai@gmail.com
भारत ने तेल उत्पादक देशों (ओपेक देशों) से यह कहा है कि वे कीमतें घटाएं, नहीं तो मांग में कमी के लिए तैयार रहें. मेरे ख्याल में इस तरह की चेतावनी का कोई मतलब नहीं है.
यह एक प्रकार का भ्रम है कि भारत तेल की मांग को कम करेगा, क्योंकि भारत और चीन इस वक्त सबसे बड़े तेल उपभोक्ता वाले देश हैं. इसलिए सबसे पहले हमें यह समझना होगा कि कच्चे तेल की अर्थव्यवस्था चलती कैसे है. भारत 82-83 प्रतिशत कच्चा तेल बाहरी देशों से आयात करता है.
वहीं भारत में तेल का उत्पादन एक मजाक बनकर रह गया है. पिछले साठ साल में भारत की सबसे बड़ी तेल उत्पादक कंपनी ‘ओएनजीसी’ ने एक नये तेल के ब्लॉक की खोज नहीं की है. ओएनजीसी की शेयर प्राइस हमेशा स्थिर रहती है, क्योंकि इस कंपनी में कोई नया काम नहीं हो रहा है, बस चल रही है.
दरअसल, जो भ्रम पल रहा है, वह यह है कि चीन और भारत मिलकर एक ‘आॅयल बायर्स क्लब’ बनायेंगे, क्योंकि ये दोनों दुनिया के सबसे बड़े तेल उपभोग करनेवाले देश हैं.
अब सवाल है कि यह ऑयल बायर्स क्लब कहां से तेल खरीदेगा, अगर ओपेक देश से नहीं खरीदेगा तो? इसका जवाब है कि यह क्लब अमेरिका से तेल खरीदेगा, क्योंकि अमेरिका में तेल का रिकॉर्ड उत्पादन हो रहा है, साथ ही ‘शेल आॅयल’ (पत्थरों के बीच से निकलनेवाला तेल) का तो सबसे ज्यादा अमेरिका में ही उत्पादन होता है, जो क्रूड ऑयल का एक विकल्प है.
इसलिए ओपेक देशों को यह हिदायत मिली है कि वे तेल के दाम घटाएं. लेकिन, इस भ्रम को भारत को समझना चाहिए कि अमेरिका और चीन एक-दूसरे के खिलाफ ट्रेडवार में लगे हुए हैं. जिस तरह से चीन और अमेरिका का अपने-अपने उत्पादों के लिए रवैया है, उसके मद्देनजर तेल के दाम तो आसमान पर चढ़ जायेंगे. अर्थ साफ है कि ऑयल बायर्स क्लब बनाना आसान है, लेकिन उसे आगे बढ़ाना बहुत ही मुश्किल है.
जहां तक भारत की बात है, तो कच्चे तेल के लिए भारत की निर्भरता ओपेक देशों पर ज्यादा है, क्योंकि भारत एक ‘क्रूड मार्केट’ है और डीजल इकोनॉमी है. क्रूड ऑयल दो तरह का होता है- स्वीट क्रूड आयल और साॅर क्रूड ऑयल. स्वीट क्रूड ऑयल बेनेजुएला से आता है और सॉर क्रूड ऑयल मिडिल ईस्ट से आता है. स्वीट क्रूड ऑयल ही सबसे अच्छी गुणवत्ता वाला तेल होता है.
बेनेजुएला दक्षिण अमेरिका में पड़ता है, जहां से स्वीट ऑयल लाने में बहुत ज्यादा खर्च है. इसके उलट सॉर आॅयल को मिडिल ईस्ट से लाना आसान है. मिडिल इस्ट के सारे देश ओपेक के सदस्य देश हैं और सऊदी अरब इनका बॉस है. ओपेक एक तरह से आर्थिक के बजाय राजनीतिक मामला है. यही वजह है कि कुछ ही दिन पहले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने सऊदी अरब के प्रिंस को फोन करके कहा था कि कच्चे तेल का उत्पादन बढ़ाएं, जिसे प्रिंस ने मान लिया. यह सारा खेल राजनीतिक है, आर्थिक नहीं. ओपेक आर्थिक सिद्धांतों पर नहीं चलता, बल्कि राजनीतिक सिद्धांतों पर चलता है.
ओपेक देशों को चेतावनी देना उचित नहीं है. इससे भारत के तेल आयात पर असर पड़ सकता है. ओपेक 1972 में शुरू हुआ और तब से यह काम कर रहा है. ओपेक का कोई भी निर्णय वैश्विक अर्थव्यवस्था पर सीधा पड़ता है. इसलिए भारत के लिए यह ठीक नहीं कि वह ओपेक को ऐसी कोई हिदायत दे. ओपेक के किसी निर्णय के बाद अमेरिका, रूस और ईरान का क्या रवैया होगा, यह समझ पाना बहुत मुश्किल है.
इस पूरे परिदृश्य में भारत को एक और भ्रम है कि अमेरिका के नेतृत्व में एक ‘नॉन-ओपेक ऑयल काडर’ बनेगा. लेकिन, सवाल फिर वही है कि क्या अमेरिका के साथ ईरान आयेगा? कभी नहीं आयेगा. अमेरिका के साथ रूस भी नहीं आ सकता. तो फिर अमेरिका के अलावा तेल आयेगा कहां से? जाहिर है, तेल की कीमतें आसमान पर ही होंगी.
ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट के अनुसार, इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन के चेयरमैन ने कहा है कि यदि ओपेक देशों ने तेल के दाम कम नहीं किये, तो हम नये विकल्प तलाशेंगे. इसका विकल्प इलेक्ट्रिक व्हीकल हो सकता है.
लेकिन, यहां समस्या यह है कि अभी भारत में इलेक्ट्रिक व्हीकल का उत्पादन और अनुगमन फिलहाल संभव नहीं है, क्योंकि इलेक्ट्रिक व्हीकल एक चार्ज में सौ किलोमीटर तक चलने की भी ताकत नहीं रखते. एक अमेरिकी कंपनी टेसला है, जिसके इलेक्ट्रिक व्हीकल पांच सौ किमी तक जाने की क्षमता रखते हैं. जिस तरह से आज हर जगह पेट्रोल पंप हैं, उसी तरह से रिचार्ज प्वॉइंट बनने पड़ेंगे, जो कि फिलहाल संभव नहीं है.
एक दूसरी समस्या यह भी है कि इसके लिए ज्यादा बिजली की जरूरत होगी और बिजली के उत्पादन में भी तेल और कोयले का इस्तेमाल होता है. भारत में महिंद्रा और टाटा दाेनों ही इलेक्ट्रिक व्हीकल बना रहे हैं, जो एक चार्ज में 80 से 100 किमी तक ही चल सकते हैं. इसका अर्थ है कि हर 70-80 किमी पर रिचार्ज प्वॉइंट बनाने पड़ेंगे. इसके लिए एक बहुत बड़े इन्फ्रास्ट्रक्चर की जरूरत होगी.
आप खुद सोचिए कि क्या देशभर में इतनी आसानी से यह संभव है? इसमें भी दूसरा विकल्प यह बचता है कि या तो अमेरिकी कंपनी टेसला से इलेक्ट्रिक व्हीकल खरीदे जाएं या फिर उस कंपनी की एक शाखा भारत में लगायी जाये. टेसला ने कहा भी है कि वह भारत आना चाहती है, लेकिन उसे कोई रास्ता नहीं दिख रहा है कि किस तरीके से वह भारत में खुद को स्थापित करे.
तेल की निर्भरता के मद्देनजर एक और विकल्प हो सकता है, वह है अमेरिका. लेकिन, अमेरिका से तेल खरीदने और वहां से भारत लाने में ओपेक देशों के मुकाबले खर्च ज्यादा आयेगा. पर हां, अगर यह देखा जाये कि अमेरिका बहुत बड़ा बाजार है और इससे भारत को भी फायदे हो सकते हैं, तो इस विकल्प पर विचार किया जा सकता है. पिछले दिनों अमेरिका ने भारतीय मूल की निकी हेली को भारत भेजा था, जिन्होंने ईरान के साथ भारत के तेल आयात को खत्म करने पर जोर दिया था.
आखिर इसका मतलब क्या है? इसका मतलब साफ है कि भारत अगर ईरान से तेल लेना बंद कर देगा, तो तेल बहुत ज्यादा महंगा हो जायेगा. दूसरी बात यह है कि भारत जिस तरह से तेल उपभोग के मामले में चीन से आगे निकल रहा है, इसके मद्देनजर भारत को अपनी कूटनीति पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए, ताकि तेल आयात को लेकर किसी तरह की कोई दिक्कत न आने पाये.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

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