अधर में पाकिस्तान

पाकिस्तान की राष्ट्रीय और प्रांतीय असेंबलियों के लिए मतदान में दस दिन बाकी हैं, लेकिन इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया से उत्साहित होने की जगह देश आशंकाओं से घिरा हुआ है. तीन दफा प्रधानमंत्री रहे नवाज शरीफ अपनी बेटी के साथ जेल में हैं और उनके भाई के चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी गयी है. शरीफ […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 16, 2018 6:25 AM

पाकिस्तान की राष्ट्रीय और प्रांतीय असेंबलियों के लिए मतदान में दस दिन बाकी हैं, लेकिन इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया से उत्साहित होने की जगह देश आशंकाओं से घिरा हुआ है. तीन दफा प्रधानमंत्री रहे नवाज शरीफ अपनी बेटी के साथ जेल में हैं और उनके भाई के चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी गयी है.

शरीफ की पार्टी मुस्लिम लीग के बड़ी संख्या में कार्यकर्ता जेल में हैं. सिंध प्रांत तक सिमट चुकी बिलावल भुट्टो की पीपुल्स पार्टी सत्ता पर अपनी दावेदारी पहले ही छोड़ चुकी है. नवाज शरीफ की पार्टी समेत कई अन्य छोटी-बड़ी पार्टियों की सभाओं पर आतंकी हमले हो रहे हैं या प्रशासन का रवैया सख्त है.

इसके उलट, पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी इमरान खान की तहरीके-इंसाफ पार्टी बड़े आत्मविश्वास से सत्ता को करीब आती देख रही है. इस माहौल में यह शंका वाजिब है कि दशकों से देश की सत्ता पर प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से काबिज सेना और उसकी कुख्यात खुफिया एजेंसी आइएसआइ इस चुनाव में दखल दे रही है.

पाकिस्तान के अन्य नेताओं की तरह नवाज शरीफ भी सेना के कभी करीबी रहे हैं. उनकी सियासी और कारोबारी बढ़त में जियाउल हक के जमाने से सेना मददगार रही है, पर जेनरल परवेज मुशर्रफ द्वारा तख्तापलट किये जाने के बाद से सेना से उनके संबंध बिगड़ते चले गये और उनकी पिछली सरकार के समय तो कई बार ऐसा लगा कि सेना सत्ता को हथिया सकती है.

जानकारों का मानना है कि सेना सीधे सरकार अपने हाथ में न लेकर ऐसे व्यक्ति को प्रधानमंत्री पद पर बैठाना चाहती है, जो उसके इशारे पर काम करे और इसके लिए उसने इमरान खान को चुना है. नवाज शरीफ और उनके परिवार पर भ्रष्टाचार के आरोपों के साथ एक बड़ा मुद्दा भारत भी है. इमरान खान और हाफिज सईद जैसे सरगनाओं की कट्टरपंथी पार्टियां लगातार यह कह रही हैं कि नवाज शरीफ भारत के प्रति नरम हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उनकी दोस्ती है. ऐसा कहकर वे भारत-विरोधी वोटों को अपनी झोली में डालना चाहते हैं.

आतंकी गिरोह उन्हीं पार्टियों को निशाना बना रहे हैं, जो पाकिस्तान में लोकतंत्र चाहती हैं और राजनीति में सेना के बेजा दखल का विरोध करती हैं. आतंकियों पर अंकुश लगाने की जगह सेना और सुरक्षा एजेंसियां उन पार्टियों के कार्यकर्ताओं की धर-पकड़ में लगी हुई हैं. जगजाहिर है कि पाकिस्तानी सेना भारत और अफगानिस्तान के साथ अपने देश में भी आतंकवादी गिरोहों को शह देती रही है. सियासी असर के जरिये सैनिक अधिकारियों और नौकरशाहों ने पाकिस्तान के आर्थिक संसाधनों का भी खूब दोहन किया है.

ये ताकतें अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए इस बार लोकतंत्र की आड़ ले रही हैं. चुनावी प्रक्रिया के दौरान पाकिस्तानी राजनीति, शासन और समाज में बड़ी दरारें पड़ चुकी हैं, जिन्हें पाटना आसान काम नहीं होगा. चुनावी नतीजे चाहे जो हों, पाकिस्तान अस्थिरता के मुहाने पर खड़ा है. यह दक्षिण एशिया के लिए बुरी खबर है.

Next Article

Exit mobile version