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विरोध का अधिकार
नागरिकों को अमन-चैन से जीने का अधिकार है, तो एकत्र होने और विरोध प्रदर्शन करने का भी. अगर इन अधिकारों में टकराव हो, तो वरीयता किसे दी जाये? संसद के सामने जंतर-मंतर पर विरोध प्रदर्शनों पर लगी रोक के खिलाफ दायर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने विचार करते हुए लोकतंत्र के हक में अत्यंत सराहनीय […]
नागरिकों को अमन-चैन से जीने का अधिकार है, तो एकत्र होने और विरोध प्रदर्शन करने का भी. अगर इन अधिकारों में टकराव हो, तो वरीयता किसे दी जाये?
संसद के सामने जंतर-मंतर पर विरोध प्रदर्शनों पर लगी रोक के खिलाफ दायर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने विचार करते हुए लोकतंत्र के हक में अत्यंत सराहनीय फैसला दिया है कि धरने-प्रदर्शनों पर पूरी तरह से रोक नहीं लगायी जा सकती है.
अगर नागरिकों के दो बुनियादी अधिकार टकरा रहे हों, तो उचित यही है कि सरकार दोनों के बीच संतुलन साधे. सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से दिशा-निर्देश जारी करने को कहा है कि किन शर्तों का पालन करते हुए जंतर-मंतर या बोट क्लब पर प्रदर्शन किया जा सकता है. पिछले साल राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने जंतर-मंतर पर प्रदर्शन करने पर रोक लगाते हुए तीन कारण गिनाये थे. एक, जंतर-मंतर को विरोध जताने की जगह चिह्नित करते हुए कोई आधिकारिक आदेश मौजूद नहीं है.
दूसरा, इसको दिल्ली के मास्टर प्लान में चूंकि आवासीय इलाका बताया गया है, सो इसका इस्तेमाल अन्य उद्देश्यों के लिए नहीं हो सकता. तीसरा तर्क था कि विरोध प्रदर्शन करनेवाले लोग लाउडस्पीकरों के जरिये शोर करते हैं, जो प्रदूषण की श्रेणी में आता है.
इस फैसले को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन मानते हुए सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी थी. ताजा आदेश के बाद अब जंतर-मंतर पर फिर से जनता की आवाजें सुनायी दे सकेंगी. दिल्ली में विरोध की सिकुड़ती जगह के इतिहास के लिहाज से अदालत का फैसला बेहद अहम है.
जंतर-मंतर 1993 से जन संगठनों और अभियानों के लिए सरकार से अपनी बात कहने, नीति-निर्माण पर असर डालने तथा लोकतंत्र में जवाबदेही तय करने की जगह बनकर उभरा. इससे पहले बोट क्लब संसद और मंत्रालयों के नजदीक होने के कारण जन आंदोलनों की जगह था. साल 1988 में बोट क्लब और इंडिया गेट पर किसानों के बड़े प्रदर्शन के बाद कानूनी प्रावधानों की आड़ में उस जगह को प्रतिबंधित कर दिया गया. इसके लिए दिल्ली पुलिस ने चिह्नित जगहों पर धारा 144 लगा दी, जो आज तक कायम है.
चूंकि इस धारा के तहत जारी आदेश दो माह से ज्यादा प्रभावी नहीं रह सकता है, सो दिल्ली पुलिस लगातार धारा 144 की अधिसूचना जारी कर देती है. प्रदर्शन की दूसरी जगह रामलीला मैदान संसद से दूर है और यहां प्रदर्शन के लिए रोजाना के हिसाब से मोटा शुल्क वसूला जाता है.
ये सारे तथ्य हमारे लोकतंत्र में विरोध की घटती-सिमटती जगह और गुंजाइश की ओर इंगित करते हैं. इसी कारण जंतर-मंतर पर विरोध प्रदर्शन की बंद राह फिर से खोलनेवाला सुप्रीम कोर्ट का फैसला लोकतंत्र को जीवंत और उसमें हर आवाज की जगह बनाये रखने के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण है. उम्मीद है कि सरकार और पुलिस द्वारा अदालती आदेश के अनुसार जल्दी ही सकारात्मक निर्देश तैयार किये जायेंगे, ताकि जनता की आवाज संसद तक पहुंचने के मौके बने रहें.
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