पाकिस्तान चुनाव और लोकतंत्र
डॉ अमित रंजन रिसर्च फेलो, नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर amitranjan.jnu@gmail.com कल 25 जुलाई को पाकिस्तान अपनी नयी सरकार चुनने के लिए लगातार तीसरी बार चुनावों का गवाह बनने जा रहा है. चुनाव में मतदाता एक साथ नेशनल असेंबली (निचले सदन) तथा अपनी प्रांतीय परिषदों के लिए सदस्यों का चुनाव करेंगे. ‘डान’ ने बताया है कि […]
डॉ अमित रंजन
रिसर्च फेलो, नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर
amitranjan.jnu@gmail.com
कल 25 जुलाई को पाकिस्तान अपनी नयी सरकार चुनने के लिए लगातार तीसरी बार चुनावों का गवाह बनने जा रहा है. चुनाव में मतदाता एक साथ नेशनल असेंबली (निचले सदन) तथा अपनी प्रांतीय परिषदों के लिए सदस्यों का चुनाव करेंगे. ‘डान’ ने बताया है कि पाकिस्तान चुनाव आयोग द्वारा प्रकाशित अंतिम मतदाता सूची के अनुसार, वहां कुल 1,050.960 लाख मतदाता हैं, जिसमें 590.220 लाख पुरुष और 460.730 लाख महिलाएं हैं.
हालांकि, प्रधानमंत्री नसीरुल मुल्क की कार्यवाहक सरकार ने आश्वस्त किया है कि चुनाव निष्पक्ष एवं पारदर्शी होंगे, लेकिन पाकिस्तानियों के एक तबके को आशंका है. यह धारणा फैली हुई है कि पाक सेना किसी ‘अपने’ व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनाने के लिए चुनाव परिणामों को प्रभावित करेगी. कहने के लिए तो 2008 से देश की राजनीति में सेना की भूमिका मामूली रही है, यद्यपि वह निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में सक्रिय रही है. इस दौरान कुछेक ऐसे पल जरूर थे, जब अतीत की तरह सेना सत्ता हथिया सकती थी,लेकिन उसने राजनीति में किसी सीधी भूमिका के निर्वाह के उन मौकों को टाल दिया.
इन चुनावों में भ्रष्टाचार एक प्रमुख मुद्दा है. पनामा पेपर लीक मामले में नाम आने से पाकिस्तान मुस्लिम लीग (पीएमएल-एन) के नेता और पूर्व पाक प्रधानमंत्री नवाज शरीफ चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य करार दिये गये हैं. पीएमएल-एन का नेतृत्त्व इसके अध्यक्ष शाहबाज शरीफ कर रहे हैं. चर्चा यह भी है कि मरियम नवाज के बेटे जुनैद सफदर चुनावों में भाग ले सकते हैं. नवाज शरीफ की इस स्थिति के पीछे सेना के हाथ होने की फुसफुसाहटें भी हैं, हालांकि इसका कोई ठोस सबूत नहीं है.
पाकिस्तान चुनाव में इस बार अभूतपूर्व ढंग से भारत एक अहम चुनावी मुद्दा बन गया है. वहां एक बहुत लोकप्रिय नारा चल रहा है ‘मोदी का जो यार है, वह गद्दार है.’ इस नारे के निशाने पर नवाज शरीफ हैं, जिनसे मिलने के लिए दिसंबर, 2016 में प्रधानमंत्री मोदी आश्चर्यजनक ढंग से लाहौर रुके थे. इस नारे ने भारत-पाक के बीच तनाव बढ़ा दिया है. वहां इस नारे को अपनानेवाले बहुत लोग हैं.
नवाज के जेल में होने के कारण संघीय स्तर पर पीएमएल-एन सरकार को हटाने का एक मौका इमरान खान के पास है. इसके लिए उनकी पार्टी को पंजाब और सिंध में अच्छा करना होगा, जहां क्रमश: 174 और 75 सीटें हैं. पंजाब में पीएमएल-एन मजबूत है, जबकि सिंध में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) की पकड़ मजबूत मानी जाती है. यह भी चर्चा है कि इमरान की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) को सत्ता से दूर रखने के लिए पीपीपी और पीएमएल-एन गठबंधन सरकार बना सकती हैं. हालांकि यह चुनाव परिणामों तथा उसके बाद के राजनीतिक हालात पर निर्भर करता है.
मतदाता सर्वेक्षण कहते हैं कि संघीय स्तर पर मुकाबला मुख्यतः पीटीआई और पीएमएल-एन के बीच है. गैलप चुनाव सर्वेक्षण पीएमएल-एन को पीटीआई से थोड़ा ही आगे दिखा रहा है.
दूसरी ओर, पल्स सर्वे पीटीआई को पीएमएल-एन पर बढ़त दिखा रहा है. प्रांतीय स्तर पर, पल्स कंसल्टेंट, गैलप पाकिस्तान तथा इंस्टीट्यूट फॉर पब्लिक ओपिनियन एंड रिसर्च (आईपीओआर) ने पंजाब में पीएमएल-एन को अब भी मतदाताओं की पसंद बताया है. पीपीपी सिंध में पसंदीदा पार्टी है और इमरान खान खैबर पख्तूनख्वाह में मजबूत बने हुए हैं. बलूचिस्तान में पीपीपी को अन्य सभी से थोड़ा आगे बताया है.
किसी देश के लोकतांत्रिक मिजाज का अनुमान अल्पसंख्यकों की स्थितियों को देखकर लगाया जा सकता है. पाकिस्तानी संविधान का अनुच्छेद 41(2) तथा 91(3) राष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्री के पद को सिर्फ मुसलमानों के लिए सुरक्षित रखता है. हालांकि, अन्य सार्वजनिक पदों के लिए गैर-मुस्लिम समुदायों के लिए कोई संवैधानिक रोक नहीं है, बावजूद इसके वहां अल्पसंख्यकों की स्थिति नगण्य है.
पाकिस्तान के अल्पसंख्यक समूहों में एक कायदानी अहमदिया हैं, जिनके विरुद्ध साफ तौर पर भेदभावपूर्ण व्यवहार होता आ रहा है. वे गैर रूढ़िवादी सुन्नी माने जाते हैं और 1974 में जुल्फिकार भुट्टो के नेतृत्व वाली पीपीपी सरकार द्वारा गैर-मुस्लिम करार दिये गये थे. अहमदी आबादी के विरुद्ध ऐसा जबर्दस्त भेदभाव है कि कायदानी अहमदियों की मतदाता सूची अलग से बनायी जाती है.
इसके चलते समुदाय के नेताओं को 25 जुलाई के चुनावों के बहिष्कार का निर्णय लेना पड़ा. अहमदियों के लिए कायदानी पुरुष या महिला शीर्षक के साथ अलग मतदाता सूची तैयार करायी जा रही है. इसके कारणों को स्पष्ट करते हुए अहमदी समुदाय के प्रवक्ता सलीमुद्दीन ने कहा कि यह कोशिश अहमदियों को उनके मताधिकार से बेदखल करने के लिए की जा रही है. ऐसा आग्रही व्यवहार पाकिस्तान के संस्थापकों के सपनों के विरुद्ध है तथा यह संविधान एवं संयुक्त चुनावी व्यवस्था का उल्लंघन है.
अकेली उम्मीद यही है कि कोई भी जीते, पाकिस्तान में वैधानिक लोकतंत्र को वह मजबूती देगा. हालांकि, अल्पसंख्यकों के विरुद्ध गैरबराबरी, मौजूदा संवैधानिक, राजनीतिक, सामाजिक भेदभावों तथा धार्मिक व सांप्रदायिक हिंसा एवं नागरिक नेतृत्व पर सैन्य वर्चस्व से निबटने हेतु पाक को वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना करनी होगी.
(अनुवाद : कुमार विजय)