आर्थिक प्रबंधन की मुश्किलें
अजीत रानाडे सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन editor@thebillionpress.org हाल ही में विश्व के दो अहम निकायों ने भारतीय अर्थव्यवस्था पर अपनी चेतावनियां जारी की हैं. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) ने इस वर्ष के साथ ही अगले वर्ष के लिए भी भारत की विकास दर को लेकर अपने अनुमान नीचे किये हैं, जिनमें 2018 के लिए अनुमान […]
अजीत रानाडे
सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन
editor@thebillionpress.org
हाल ही में विश्व के दो अहम निकायों ने भारतीय अर्थव्यवस्था पर अपनी चेतावनियां जारी की हैं. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) ने इस वर्ष के साथ ही अगले वर्ष के लिए भी भारत की विकास दर को लेकर अपने अनुमान नीचे किये हैं, जिनमें 2018 के लिए अनुमान तो बस 7.4 प्रतिशत से घटकर 7.3 प्रतिशत तक ही गिरे हैं, पर अगले वर्ष के लिए उसने इसे 7.8 प्रतिशत से कमकर 7.5 प्रतिशत पर पहुंचा दिया है. सवाल इन अनुमानों के सही होने या न होने का नहीं है, बल्कि इन गिरावट की वजहों का है.
इससे इतर, राज्य सरकारों के बजटों पर अपनी वार्षिक रिपोर्ट में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआइ) ने इस माह की शुरुआत में ही यह स्पष्ट कर दिया था कि राज्यों के बजटों के कुल योग ने लगातार तीसरे वर्ष के लिए भी राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 3 प्रतिशत तक सीमित रखने के लक्ष्य को पार कर लिया है. तथ्य तो यह है कि 2018 के लिए राजकोषीय घाटे का लक्ष्य इसे 2.7 प्रतिशत पर सीमित रखना था, जबकि वस्तुतः यह 3.1 प्रतिशत पर पहुंच गया. ये आंकड़े राज्यों की समग्र अर्थव्यवस्था के विषय में कोई स्वस्थ तस्वीर पेश नहीं करते, जबकि यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि पिछले वर्ष 6.7 प्रतिशत की विकास दर पिछले चार वर्षों में न्यूनतम थी.
इस दिशा में पेश कुछ चुनौतियों पर गौर करें, तो उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति अभी 5 प्रतिशत है, जो ऊपर ही जा रही है. इतना ही नहीं, जून में थोक मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति पिछले चार वर्षों में सर्वाधिक 5.77 प्रतिशत पर थी. इस स्थिति की मुख्य वजह तेल की कीमतों में तेज वृद्धि है. भारत तेल की कीमतों में परिवर्तन के प्रति अत्यंत संवेदनशील है और इसमें किसी प्रकार की वृद्धि से मुद्रास्फीति, व्यापार संतुलन तथा राजकोषीय भार पर विपरीत प्रभाव पड़ता है. यह समग्र मांग पर नकारात्मक असर डाल आर्थिक विकास को भी कम कर देती है.
दूसरा अहम कारक राजकोषीय घाटा है, जिस पर लगाम लगाने में केंद्रीय सरकार तो एक हद तक सफल रही है, पर राज्य उसका अनुकरण नहीं कर सके. इस वर्ष कई राज्यों ने कर्जों को माफ करने की घोषणाएं की हैं. यह चाहे जितना भी जरूरी हो, ऐसे कदमों के अंतिम नतीजे चालू वित्तीय वर्ष में केंद्र और राज्यों का सम्मिलित राजकोषीय घाटा 6.8 या यहां तक कि 7 प्रतिशत तक भी पहुंचा दे सकते हैं, जो मुद्रास्फीति, ब्याज दरों, विदेशी निवेश भावना तथा देश की रेटिंग पर प्रतिकूल प्रभाव डालेंगे. अगले वर्ष देश में आम चुनाव भी होनेवाले हैं, जो बड़े व्ययों की वजह बनेंगे. जीएसटी दरों में हालिया कमी और फसलों के समर्थन मूल्य में वृद्धि चाहे जितने भी स्वागतयोग्य हों, पर उनकी वित्तीय लागत तो वहन करनी ही होगी.
चालू खाते का घाटा दूसरी बड़ी बाधा है. समग्र रूप में देखें, तो पिछले चार वर्षों में भारत के निर्यात स्थिर रहे हैं. निर्यातकों को कड़ी विनिमय दर, जीएसटी वापसी में विलंब, प्रचालन तंत्र तथा अवसंरचना की बढ़ी लागतें, कराधान का समग्र भार और खासकर स्थानीय एवं राज्य सरकारों के स्तरों पर विभिन्न अनुपालनों की लागत जैसी समस्याओं से जूझना पड़ता है. इसकी दीगर मिसाल हमारे परिधान उद्योग के निर्यात हैं, जिसमें बांग्लादेश और वियतनाम भी हमसे आगे निकल चुके हैं.
दूसरी ओर, खासकर धातु, रसायन, इलेक्ट्रॉनिक्स तथा उपभोक्ता माल में हमारे आयात बढ़ते ही जा रहे हैं. विश्व में तीसरे सबसे बड़े कोयला भंडार का स्वामी होने के बावजूद इस साल भारत 20 करोड़ टन कोयले का आयात करेगा. विदेशी शिक्षा हासिल करने में प्रतिवर्ष 10 अरब डॉलर से भी ज्यादा विदेशी मुद्रा हमारे देश से निकल जाती है. विभिन्न मुक्त व्यापार संधियों की वजह से कई तरह के माल की भारत के बड़े उपभोक्ता बाजारों तक चुंगी-मुक्त पहुंच बन चुकी है. नतीजतन, इस वर्ष चालू खाते का घाटा जीडीपी के 2.5 प्रतिशत से 2.8 प्रतिशत तक चले जाने का अंदेशा है, जो पिछले कई वर्षों के दौरान सर्वाधिक होगा.
चूंकि मुद्रास्फीति बढ़ रही है और मौद्रिक नीति इसे 2 से 6 प्रतिशत के दायरे में रखने पर लगी है, तो स्वभावतः ब्याज दरें ऊपर जायेंगी ही. आरबीआइ ने पिछले साढ़े चार वर्षों में पहली बार जून में अपनी नीतिगत दर बढ़ायी, पर अगले महीनों में उसे इसमें और भी बढ़ोतरी करनी ही पड़ेगी. यह और बात है कि इस वृद्धि के विपरीत वृहत प्रभाव होते हैं, क्योंकि इससे गृह ऋणों, बुनियादी ढांचे और रीयल एस्टेट हेतु वित्त तथा अन्य उपभोक्ता ऋणों की लागतें तो बढ़ ही जाती हैं, लघु एवं मध्यम उपक्रमों की कार्यशील पूंजी (वर्किंग कैपिटल) पर भी दबाव पड़ता है.
इन चुनौतियों से पार पाने के लिए दक्ष वृहद आर्थिक प्रबंधन, चतुर राजकोषीय लागत नियंत्रण, स्टॉक एवं बांड बाजार की चिंताओं के शमन, विदेशी निवेश प्रवाह का भरोसा बनाये रखने और रुपये को स्थिर तथा उचित मूल्य पर कायम रखने की जरूरतों के अतिरिक्त उपभोक्ताओं की भावनाओं को उड़ान भी देनी होगी. साफ है कि हमारे नीति-निर्माताओं के अत्यंत व्यस्त रहने की बारी है.
(अनुवाद: विजय नंदन)