सारी रात दीवा जलाती कहानियां
।। डॉ बुद्धिनाथ मिश्र।। (वरिष्ठ साहित्यकार) पचीस साल पहले मैथिली जगत में रात-रात भर मूलकथा-पाठ करने-सुनने और उस पर अपने विचार व्यक्त करने की एक खास परंपरा शुरू हुई थी, जिसका नाम रखा गया था-‘सगर राति दीप जरय’. पंजाबी की ‘दीवा जले सारी रात’ से प्रेरणा लेकर मैथिली के तत्कालीन अग्रणी कथाकारों ने कथा-विधा को […]
।। डॉ बुद्धिनाथ मिश्र।।
(वरिष्ठ साहित्यकार)
पचीस साल पहले मैथिली जगत में रात-रात भर मूलकथा-पाठ करने-सुनने और उस पर अपने विचार व्यक्त करने की एक खास परंपरा शुरू हुई थी, जिसका नाम रखा गया था-‘सगर राति दीप जरय’. पंजाबी की ‘दीवा जले सारी रात’ से प्रेरणा लेकर मैथिली के तत्कालीन अग्रणी कथाकारों ने कथा-विधा को वाचिक परंपरा से जन-सामान्य तक पहुंचाने और नयी पीढ़ी को कथा-लेखन के लिए प्रोत्साहित करने के लिए इसे एक अभियान के तौर पर शुरू किया था.
इस तिमाही गोष्ठी की कुछ खास शर्ते थीं. जैसे, इसमें हर बार नयी लिखी कथा ही सुनानी होगी, जो अप्रकाशित, अप्रसारित और पूर्व गोष्ठियों में अपठित हो. इसका आयोजन कई स्थानों पर होगा. उपस्थित कथाकार ही अपने गांव या नगर में अगली कथा-गोष्ठी आयोजित करने का प्रस्ताव रख सकते हैं. सभी कथाकारों को आमंत्रण (हकार) दिया जायेगा, मगर यह जरूरी नहीं है. यह भी जरूरी नहीं है कि केवल आमंत्रित साहित्यकार ही कथापाठ करें. मार्ग-व्यय स्वयं प्रतिभागी कथाकार द्वारा वहन किया जायेगा. सभी के आवास-भोजन की व्यवस्था प्रस्तावक कथाकार अपने संसाधनों से या किसी स्थानीय संस्था के सहयोग से करते हैं. इसकी नियमावली यद्यपि मौखिक है, मगर कोई व्यक्ति अपनी सुविधा से उसमें फेर-बदल नहीं कर सकता.
मैथिल समाज आर्थिक दृष्टि से बहुत संपन्न नहीं है, इसलिए इसमें पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन भी नहीं के बराबर है और जो है भी, वह घाटे का व्यवसाय माना जाता है. ऐसी परिस्थिति में कविता की प्रस्तुति के लिए तो कवि सम्मेलन हो जाते हैं, जिनमें रात-रात भर काव्य-प्रेमी अवगाहन करते हैं, और जहाँ ‘विदाई’ भी थोड़ी-बहुत मिल जाती है, मगर साहित्य की अन्य विधाएं उपयुक्त मंच के अभाव में उपेक्षित रह जाती हैं. यही मूल कारण था, जिससे मैथिली के साहित्यकारों ने ‘सगर राति दीप जरय’ की आधारशिला रखी. धीरे-धीरे यह मिलने-जुलने और साहित्यिक विमर्श का बहाना भी बन गया. आज यह अपना नाम गिनीज बुक में दर्ज कराने का हक रखती है.
इस अभियान को अपनी प्रबंध-क्षमता और सर्जनात्मक प्रतिभा से खाद-पानी देकर पल्लवित करनेवाले कथाकार थे- प्रभास कुमार चौधरी. उन्होंने ही सबसे पहले 21 जनवरी, 1990 को मुजफ्फरपुर में ‘कथापाठ और कथा परिचर्चा के साथ रात्रि जागरण’ की इस परंपरा का श्रीगणोश किया था. वे जहां-जहां गये, इस कथागोष्ठी की निरंतरता कायम रखने के लिए प्रयत्नशील रहे. 28 दिसंबर, 1996 को कोलकाता में उनके द्वारा आयोजित 25वीं कथागोष्ठी (रजत जयंती) चिरस्मरणीय थी. पहली गोष्ठी की अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार रमानंद झा ‘रेणु’ ने की थी और रमेश (थाक), शिवशंकर श्रीनिवास (बसात में बहैत लोक), विभूति आनंद (अन्य पुरुष), अशोक (पिशाच), सियाराम झा सरस (ओहि सांझक नाम), प्रभास कुमार चौधरी(खूनी) प्रभृति ने कथापाठ किया था और जीवकांत, भीमनाथ झा, मोहन भारद्वाज और रमानंद झा ‘रमण’ ने कथाचर्चा की. दूसरी गोष्ठी तीन मास बाद जीवकांत के संयोजन में उनके कर्मस्थल ड्योढ़ गांव में हुई, जिसकी अध्यक्षता प्रभास जी ने की थी. तीसरी कथागोष्ठी दरभंगा में भीमनाथ झा और प्रदीप मैथिलीपुत्र के संयोजन में हुई, जिसकी अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार गोविंद झा ने की थी. उसमें उनकी ही पुस्तक ‘सामा क पौती’ का लोकार्पण भी हुआ. उसके बाद तो जैसे इस कथागोष्ठी को पंख लग गये, मिथिलांचल के गांवों से निकल कर यह जनकपुर, काठमांडू, पटना, बनारस, रांची, जमशेदपुर, दिल्ली, बोकारो, देवघर, कोलकाता, चेन्नई तक चली गयी. साहित्यकारों की सहभागिता इसी बात से समझी जानी चाहिए कि सुबह आठ बजे तक कथापाठ का सिलसिला जारी रहने के बाद भी कई प्रतिभागी अपनी बारी की प्रतीक्षा करते रह जाते हैं. इसकी एक कड़ी देहरादून में भी बिठाने की मैं वर्षो से कोशिश कर रहा हूं, मगर इस प्रस्ताव को रखने के लिए किसी गोष्ठी में उपस्थित होना जरूरी है. मेरी व्यस्तता इतनी अधिक है कि चाह कर भी यह संभव नहीं हो पाता.
पहले यह सोचा गया था कि ‘सगर राति दीप जरय’ कथागोष्ठी प्रस्तावक कथाकार के आवास पर ही आयोजित हो, ताकि अंतरंग वातावरण में विमर्श हो. चूंकि अधिकतर कथाकार मिथिलांचल गांवों में रहते थे, इसलिए गांवों में इस प्रकार की गोष्ठियों में जन-सहभागिता सुनिश्चित थी. मगर बाद में नगरों में फ्लैट छोटा होने के कारण सभागारों की शरण लेनी पड़ी. अभी तक हुई कुल 82 गोष्ठियों में लगभग 50 गोष्ठियां मिथिलांचल में हुई हैं और 32 बाहर के नगरों में. इसका एक कारण यह भी है कि मैथिली के साहित्यकार अब नौकरी पेशे की मजबूरी से मिथिलांचल से दूर रहने लगे हैं. अब मैथिली कथा की पृष्ठभूमि जमशेदपुर, दिल्ली, चेन्नई और जलंधर भी हो सकती है. दूसरा अंतर पीढ़ियों की रुचि, दृष्टि और शैली में आया है. पुरानी पीढ़ी को धीरे-धीरे कंप्यूटर के की-बोर्ड पर उंगली दौड़ानेवाली पीढ़ी धकिया रही है. नयी पीढ़ी के पास अंतर्जाल से प्राप्त विश्व भर के ज्ञान का भंडार है, जो कथा के परिवेश को व्यापक बनाता है. मगर कथा-लेखन में जो संवेदना और वैयक्तिक गहन अनुभूति की जरूरत पड़ती है, वह तेज रफ्तार से भाग रही नयी पीढ़ी के पास कम है. आज 86वीं ‘सगर राति दीप जरय’ गोष्ठी झंझारपुर के मेहथ गांव में हो रही है, जिसके संयोजक दिल्लीवासी गजेंद्र ठाकुर अंतजार्लीय साहित्यकारों में सबसे सक्रिय हैं.
किसी भी भाषा के लिए यह गौरव की बात हो सकती है कि ‘सगर राति दीप जरय’ जैसा स्ववित्तपोषित साहित्यिक आयोजन निरंतर 24 वर्षो से निर्बाध चले, उसकी 83 कथागोष्ठियां साहित्यकारों के निजी व्यय पर आयोजित हों और इन गोष्ठियों में पढ़ी जानेवाली नयी कथाओं से नयी पीढ़ी के कथाकारों को दिशा मिले. इस आंदोलन से शुरू से जुड़े रमण जी इसे मैथिली कथा-लेखन क्षेत्र में ‘शांतक्रांति’ कहते हैं. इन गोष्ठियों में पढ़ी गयी कथाओं के संग्रह भी समय-समय पर प्रकाशित होते रहे हैं, जिनमें रमेश-तारानंद वियोगी संपादित ‘श्वेतपत्र’, प्रदीप बिहारी संपादित ‘भरि राति भोर’, अर्धनारीश्वर संपादित ‘कथाकुंभ’ विशेष उल्लेख्य हैं, मगर सबसे विराट संग्रह अशोक अविचल संपादित ‘कथा पारस’ है, जिसमें रहुआ-संग्राम में नवंबर, 2008 में संत कवि लक्ष्मीनाथ गोसाईं के सिद्धस्थल पारसमणिनाथ परिसर में आयोजित 64वीं गोष्ठी में पठित 35 कथाओं के अलावा 1990 से 2011 तक ‘सगर राति दीप जरय’ में पढ़ी गयी कुल 125 मौलिक कहानियों को एक कलेवर में समेटा गया है.