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पचास साल बाद ”राग दरबारी”

रविभूषण, वरिष्ठ साहित्यकार श्री लाल शुक्ल (31 दिसंबर, 1925- 28 अगस्त, 2011) के उपन्यास ‘राग दरबारी’ के प्रकाशन (1968) के अर्धशती वर्ष में इस औपन्यासिक कृति पर विस्तार से विचार की पुन: आवश्यकता है. पचास वर्ष बाद नये सिरे से विचार का आरंभ साहित्येतर लोगों ने किया. दिल्ली विवि के राजनीति विज्ञान विभाग ने उपन्यास […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 30, 2018 12:55 AM

रविभूषण, वरिष्ठ साहित्यकार

श्री लाल शुक्ल (31 दिसंबर, 1925- 28 अगस्त, 2011) के उपन्यास ‘राग दरबारी’ के प्रकाशन (1968) के अर्धशती वर्ष में इस औपन्यासिक कृति पर विस्तार से विचार की पुन: आवश्यकता है. पचास वर्ष बाद नये सिरे से विचार का आरंभ साहित्येतर लोगों ने किया. दिल्ली विवि के राजनीति विज्ञान विभाग ने उपन्यास प्रकाशन की अर्धशती पर एक द्वि-दिवसीय सेमिनार (29-30 जनवरी, 2018) किया- ‘पॉलिटी ऐज फिक्शन. फिक्शन ऐज रियलिटी : फिफ्टी ईयर्स ऑफ राग दरबारी.’ सेमिनार में बीस से अधिक जिन लोगों ने अपने पेपर्स पढ़े, उनमें हिंदी का कोई लेखक-आलोचक नहीं था. क्या कारण है कि प्रो कृष्ण कुमार जैसे शिक्षाशास्त्री और श्यामाचरण दुबे जैसे समाजशास्त्री ‘राग दरबारी’ पर विचार करते हैं? प्रताप भानु मेहता ने शिवपालगंज का पुनरावलोकन किया है- ‘री विजिटिंग शिवपालगंज’. विश्वविद्यालयों के हिंदी अध्यापक और हिंदी आलोचक संभवत: इस कृति पर विचार की कोई जरूरत नहीं समझते.

‘राग दरबारी’ उपन्यास के लेखन का आरंभ 1960 में हुआ था. यह उपन्यास स्वतंत्र भारत का एक साथ आख्यान और प्रत्याख्यान है. यह एक नये भारत (‘न्यू इंडिया’ की नहीं) के निर्माण की आकांक्षा का उपन्यास है, जो समूचे तंत्र को बदलने की प्रस्तावना है. स्वयं श्रीलाल शुक्ल ने इस उपन्यास को ‘तंत्र के ऊपर किया गया आघात’ कहा है. आज इस पर विचार करते समय हमें 1950 से अब तक के भारत को (नेहरू से मोदी तक) ध्यान में रखना होगा और इसके पाठ के साथ-साथ इस पूरे समय का सर्वांगीण पाठ करना होगा. साहित्यिक पाठ के साथ-साथ सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक-आर्थिक पाठ के बिना ‘राग दरबारी’ के महत्व की पहचान नहीं हो सकती. नेमि जैन ने जब इसे ‘असंतोष का खटराग’ और श्रीपत राय ने इसे ‘महाऊब का महाउपन्यास’ कहा था, तब उपन्यास को देखने-समझने की उनकी दृष्टि पुरानी थी. ‘राग दरबारी’ सर्वथा एक नये किस्म के गंभीर पाठक, अध्यापक और आलोचक की मांग करता है.

उपन्यास के आरंभ में जो ट्रक है, वह भारतीय लोकतंत्र है. यह ट्रक सभी सवारियों की निगाह में ट्रक न होकर ‘आग की लहर है, बंगाल की खाड़ी से उठा हुआ तूफान है, जनता पर छोड़ा हुआ बदकलम अहलकार है, पिंडारियों का गिरोह है.’ पचास के दशक में नागार्जुन और मुक्तिबोध ने कविताओं में और अमरकांत ने कहानियों में, रेणु ने अपने उपन्यास में इस लोकतंत्र के असली रूप-स्वरूप की पहचान कर ली थी. प्रताप भानु मेहता ने ठीक ही इसमें ‘लोकतंत्र का विरोधाभास’ देखा है और ‘एक गहरे सांस्कृतिक संकट’ की ओर ध्यान भी दिलाया है.
‘गोदान’ के बेलारी, सेमरी और ‘मैला आंचल’ के मेरीगंज से भिन्न है- शिवपालगंज. शिवपालगंज स्थान नहीं, मेटाफर (रूपक) है. उसे ‘एटम बम’ भी कहा गया है. जब हम इस उपन्यास को आज के समय से जोड़कर देखते हैं, तो यह ‘टेक्स्ट’ एक विराट रूप में हमारे सामने आ जाता है. कब कोई उपन्यास साहित्य रहते हुए साहित्य के बाहर की दुनिया में प्रवेश कर जाता है, इसे गोदान, मैला आंचल और राग दरबारी से समझा जा सकता है. नीलाभ ने चालीस वर्ष बाद और नित्यानंद तिवारी ने तैंतीस वर्ष बाद जब इस उपन्यास पर दोबारा लिखा, उनका ध्यान अनछुए स्थलों-प्रसंगों पर गया. मार्च 2018 में चेतन भगत ने ‘फिक्सिंग द इंडियन बस’ नामक अपने लेख में ‘सिस्टम’ में सुधार की बात कही है. श्रीलाल शुक्ल भारतीय प्रशासनिक सेवा में रहे. प्रशासनिक अधिकारी रहते हुए उन्होंने यह समझ लिया था कि यह ‘सिस्टम’ सुधर नहीं सकता. इसे अंग्रेजी उपन्यासकार नहीं समझता.

उपन्यास में रुप्पन ने रंगनाथ से यह कहा है कि ‘पॉलिटिक्स में बड़ा-बड़ा कमीनापन चलता है.’ धर्म, राजनीति, समाज, पूंजी, न्याय, नैतिकता, लोकतंत्र, शिक्षण-संस्था, पंचायत, चुनाव, कोऑपरेटिव मूवमेंट, नेता, कार्यकर्ता, अदालत, पुलिस व्यवस्था, अधिकारी, चुनाव-प्रणाली, विकास विज्ञापन, नैतिकता, शिक्षा, बुद्धिजीवी, संस्थान, संस्कृति, अंग्रेजी, गुटबंदी, भाई-भतीजावाद, गबन, भ्रष्टाचार, भ्रष्ट व्यवस्था, भारतीय यथार्थ- सब कुछ पर उपन्यास में विचार है. व्यंग्य तीखा है, हास्य भरपूर है, भाषा का अपना सौंदर्य और भिन्न किस्म का लालित्य है, पर जो करुणा बहुत भीतर विद्यमान है, उसे देखे-समझे बिना उपन्यास का समुचित मूल्यांकन संभव नहीं है. यह उपन्यास झूठ के खिलाफ है. और, यह झूठ आज के समय में तेजी से फैला-फैलाया जा रहा है. छंगामल विद्यालय इंटरमीडिएट कॉलेज उपन्यास के केंद्र में है, जिसे हम आज के कई विश्वविद्यालयों में देख सकते हैं. वैद्य जी के नाम में ही व्यंग्य है. वे रोग फैलाते हैं, रोग का निदान नहीं करते. उपन्यास के अंतिम अध्याय ‘पलायन-संगीत’ में चारों ओर फैले कीचड़ की बात कही गयी है, कीचड़ से बचने को कहा गया है, क्योंकि कीचड़ में कीचड़ ही पनपता है, वही फैलता है, वही उछलता है. पचास वर्ष बाद अब देश के प्रधानमंत्री कह रहे हैं कीचड़ में कमल खिलता है.

श्रीलाल शुक्ल ने अपने समय की सही पहचान कर ली थी. ‘राग दरबारी’ के बाद का हिंदुस्तान और अधिक चिंताजनक है. इस उपन्यास में देश का संपूर्ण साक्षात्कार है. यह उपन्यास एक दस्तावेज और आरोप-पत्र है. यह सुधीजनों को आमंत्रित करता है कि हमारा पाठ केवल एक टेक्स्ट का पाठ न होकर पूरे ‘नेशन’ का पाठ है.

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