नये मध्य-वर्ग का चरित्र
।। पवन के वर्मा।। (पूर्व राजनयिक, लेखक व बिहार के मुख्यमंत्री के सलाहकार) भारत का युवा गणतंत्र संकट में है, और भारतीय मध्य-वर्ग इसमें मुखर प्रतिभागी और हाशिये पर खड़ा दर्शक बना हुआ है. इस द्वैध के कई कारण हैं. इतिहास में किसी वर्ग के लिए यह असामान्य नहीं रहा है कि वह अपने अंदर […]
।। पवन के वर्मा।।
(पूर्व राजनयिक, लेखक व बिहार के मुख्यमंत्री के सलाहकार)
भारत का युवा गणतंत्र संकट में है, और भारतीय मध्य-वर्ग इसमें मुखर प्रतिभागी और हाशिये पर खड़ा दर्शक बना हुआ है. इस द्वैध के कई कारण हैं. इतिहास में किसी वर्ग के लिए यह असामान्य नहीं रहा है कि वह अपने अंदर कहीं बड़ी संभावना रखता हो, लेकिन आम तौर पर उससे बेखबर हो तथा उस बड़ी भूमिका को निभाने के लिए उसकी उतनी तैयारी भी न हो. सामाजिक रूपांतरण की गत्यात्मकता ने एक स्तर पर काम किया है और उस वर्ग की जागरूकता दूसरे स्तर पर विकसित हुई है, जिसकी भूमिका बृहत् स्तर पर बदलाव के दौर से गुजरी है, जिसकी वजह से यथार्थ और जागरूकता के बीच एक टूटन भी पैदा हुई है. अपने विकासक्रम में भारतीय मध्यवर्ग इसी संक्रांति के दौर में है.
पहली बार, 2014 के चुनावों, और भविष्य में होनेवाले चुनावों में यह महत्वपूर्ण खिलाड़ी होनेवाला है. इससे निपटने के लिए सभी राजनीतिक दलों के युद्ध कक्ष की तैयारियां चल रही हैं. मध्य-वर्ग इस नये-नये मिले महत्व से पूरी तरह बेखबर भी नहीं है. बल्कि इस बात से अच्छी तरह बाखबर है कि क्या बदला है और किस अंदाज से, और इसने यह भी फैसला किया हुआ है कि क्या यह राजनीतिक शक्तियों का दाना-पानी भर बन कर रह जायेगा या अपने तई निर्णायक तौर पर उनका खेल बदल कर रख देगा? यह भारतीय मध्य-वर्ग के सामने एक ऐतिहासिक चयन का अवसर है, और 2014 इस मामले में निर्णायक साबित होनेवाला है कि उसने जो चयन किया वह बुद्धिमानी से किया था या नहीं. कम-से-कम छह ऐसे कारण हैं जिससे पता चलता है कि मध्य वर्ग की भूमिका क्यों बदली है, और उनमें से प्रत्येक का संबंध पहले इस वर्ग के विकासक्रम से है.
पहला, मध्य-वर्ग संख्या में उस हद तक पहुंच चुका है कि वह देश के चुनावी अंकगणित में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है. दूसरे, संख्या में इस बढ़त ने इस वर्ग की आरंभिक एकरूपता पर फिर से काफी हद तक बल दिया है, इतिहास में इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ, कि इसने विशिष्ट पहचानवाले एक ऐसे वर्ग का गठन किया है जो महत्वपूर्ण ढंग से जातीय निष्ठाओं के परे जाता दिखाई देता है. तीसरे, बड़ी संख्यावाले इस वर्ग ने पहली बार एक पहचान अजिर्त की है जिसकी प्रकृति अखिल भारतीय है, जिसका मतलब यह हुआ कि यह देश भर में एक पहचान योग्य इकाई की बड़ी तादाद का प्रतिनिधित्व करता है, जो पहले से अधिक है. चौथे, यह मध्य वर्ग कभी भी इतना युवा नहीं रहा है, बड़ी संख्या में इससे सदस्य 25 वर्ष की आयु के आसपास हैं. पांचवां, सूचना एवं संचार, साथ ही, मोबाइल फोन, सोशल मीडिया और 24 घंटे के समाचार चैनलों की वजह से इस वर्ग की शक्ति में सच्चे अर्थो में क्रांतिकारी फर्क पड़ा है. इतिहास में इसके बहुत कम उदाहरण मिलते हैं जब इतने कम समय में किसी वर्ग ने इतनी विशिष्टता अजिर्त की हो.
छठा, पहले जहां इस वर्ग में अलग-अलग रहने की प्रवृत्ति थी, अब उसमें फर्क आया है, और ऐसे संकेत मिलने लगे हैं, हालांकि इसके उदाहरण अभी गिने-चुने हैं, कि इस वर्ग ने ऐसे मुद्दों के प्रति संलग्नता दिखायी है जो इसके तात्कालिक हितों तक ही सीमित नहीं है. और आखिर में, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कि शासन की असफलता को लेकर, अर्थव्यवस्था के कुप्रबंधन को लेकर तथा भ्रष्टाचार, नकारात्मकता, आदर्शवाद की कमी एवं राजनीतिक वर्ग तथा उससे सांठ-गांठ रखनेवालों के नैतिक दिवालियेपन को लेकर भारतीय मध्य-वर्ग इतने गुस्से में रहा हो. ये छह कारण मध्य-वर्ग के चरित्र, प्रभाव, भूमिका एवं संभावनाओं में गुणात्मक बदलाव को दर्शाते हैं, और उपयोगी यह होगा कि इनके बारे में संक्षेप में चर्चा कर ली जाये. 1947 में मध्य-वर्ग मोटे तौर पर एक छोटा और खास तबका था, जो आम तौर पर औपनिवेशिक काल में अंगरेजों के साथ मेल-जोल से निर्मित हुआ.
बाद के दशकों में धीरे-धीरे इसकी संख्या में वृद्धि हुई, जिसमें शामिल हुए लाखों दुकान चलानेवाले, छोटे-मोटे व्यवसायी, अर्धकुशल औद्योगिक एवं सेवा क्षेत्र में काम करनेवाले तथा कम तनख्वाह वाले परिवार, जिनकी थोड़ी बहुत अतिरिक्त आय होती थी. इसमें शामिल होनेवाले नये लोगों में ‘बैलगाड़ी वाले पूंजीपति भी थो जो गांव-देहातों से आते थे और जिन्होंने अपने संसाधनों को सावधानीपूर्वक खर्च किया था और उनको राज्य द्वारा खेती को दिये जानेवाले अनुदान के साथ-साथ 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू किये जाने के बाद सरकारी नौकरियों में मिलनेवाले आरक्षण का फायदा भी मिला था. लेकिन, निस्संदेह, मध्यवर्ग के तेजी से विकास के लिए निर्णायक रहे 1991 के आर्थिक सुधार और उसकी वजह से विकास दर में जो तेजी आयी. एक तरफ आय में वृद्धि हुई (भारत की प्रति व्यक्ति आय 2003 के 530 डॉलर से बढ़ कर आज करीब 1600 डॉलर हो गयी है),
इसी तरह मध्य-वर्ग के लिए नौकरियों और व्यवसाय के अवसर भी बढ़े, इसके नीचे के लोगों के मुकाबले यह अवसर बहुत अधिक बढ़े. यह हुआ उस दशक के दौरान उच्च विकास दर के कारण और 1991 के बाद एक ऐसी संरचना बनी जो मध्यवर्ग के लिए खास तौर पर सहायक रही. उदाहरण के लिए, सेवा क्षेत्र में कृषि और उद्योग क्षेत्र के मुकाबले अधिक उच्च दर से विकास हुआ, और सकल अर्थव्यवस्था में उसका हिस्सा काफी बड़ा है. इसी तरह, नयी सहस्त्रब्दी में आइटी क्षेत्र में बड़ी तेज गति से विकास हुआ जो नये बढ़ते उच्च शिक्षा संस्थानों द्वारा तैयार किये गये तकनीकी तौर पर प्रशिक्षित हजारों स्नातकों के लिए लाभकारी साबित हुआ. क्या आज यह संभव है कि इस वर्ग का बिल्कुल सही रूपाकार बताया जा सके? मेरे ख्याल से, भारतीय संदर्भ में, ऐसा कोई व्यक्ति जिसके पास रहने के लिए घर हो और जो अपने परिवार के लिए तीन वक्त का खाना जुटा सकता हो, जिसकी बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं, जन परिवहन और स्कूली शिक्षा तक पहुंच हो, और जिसके पास इन सभी जरूरतों को पूरा कर देने के बाद इतने पैसे बच जाते हों कि वह पंखा या घड़ी या साइकिल जैसी बुनियादी जरूरत की चीजों की खरीद सकता हो, तो वह मध्य-वर्ग के निचले दज्रे में जगह बना चुका है.
इन मानकों के आधार पर मध्य-वर्ग भारत की कुल एक अरब से अधिक आबादी का आधा से अधिक हो सकता है. इस तरह न भी देखें और बड़ी सख्ती से आर्थिक आधारों का पालन करते हुए इस वर्ग का निर्धारण करें तो यह संख्या पर्याप्त ही है. अगर हम मध्यवर्ग के अंतर्गत उस व्यक्ति को मानें जिसके परिवार की आय 20 हजार से एक लाख प्रति माह के बीच हो, जो भारतीय ढंग से जीवन यापन का बेहतर पैमाना है, तो अनुमानों के आधार पर मध्य-वर्ग करीब 20 करोड़ के आसपास हो सकता है और जो 2015 तक बढ़ कर 30 करोड़ तक हो जायेगा. 1996 में उस समय के जीवन स्तर के मुताबिक जिस वर्ग की आबादी करीब 2.5 करोड़ थी, उस लिहाज से यह वृद्धि सचमुच नाटकीय कही जायेगी. मैक्स वेबर ने सामाजिक वर्ग को परिभाषित करते हुए कहा है कि ऐसे लोगों का समूह जिसका सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षिक स्तर समान हो. दूसरी तरफ, जाति-जन्म के आधार पर एक निर्देशात्मक वर्गीकरण है. जाति व्यवस्था भारत में हजारों सालों से है, और ऐसा मानना सकारात्मक माना जायेगा कि कानून के द्वारा जनतांत्रिक स्वतंत्रता की वेदी पर उसके अस्तित्व को समाप्त कर दिया गया है.
इस बात को एक उदाहरण के द्वारा समझा जा सकता है कि मध्य-वर्ग पर उसका असर बरकरार है, वह है हर रविवार को समाचारपत्र में प्रकाशित होनेवाले वैवाहिक विज्ञापन, जहां बड़ी संख्या में विवाह के इच्छुक लोग अपनी जाति के अनुरूप ही अपना विवाह करना चाहते हैं. एक ऐसी संस्था जिसकी इतनी पुरानी परंपरा रही है वह कानून के द्वारा रातोंरात खत्म नहीं हो जायेगी. लेकिन यह बात भी उतनी ही सच है कि 1947 के बाद के दशकों में, और खास कर 1991 के बाद मध्य-वर्ग के ऊपर जाति की पकड़ साफ तौर पर कमजोर हुई है. इस विकास के क्या कारण हैं? एक से दूसरी जगह पर आवागमन निश्चित तौर पर एक महत्वपूर्ण पहलू है. शिक्षा की आधारभूत संरचना के विस्तार के साथ, और अर्थव्यवस्था के सर्वागीण विकास के कारण, शिक्षा के अवसरों एवं नौकरियों के कारण मध्य-वर्ग के लोगों को अपने जन्मस्थान और गृहस्थान से दूर कर दिया है. जाति की पकड़ तब अधिक मजबूत होती है जब आप अपने वास स्थान में होते हैं और अपने हर कार्य के लिए पारिवारिक संबंधों के प्रति कृतज्ञ होते हैं. जब वे विश्वविद्यालयों एवं संस्थानों में पढ़ते हैं और सामूहिक कार्य के रूप में नौकरी पाते हैं जो पुरानी विचारहीन निष्ठाओं को समाप्त करनेवाला होता है.
(पवन के. वर्मा की किताब ‘भारत का नया मध्य-वर्ग : 2014 और उसके बाद की चुनौतियां’ का एक अंश)