ग्राहकों पर बोझ

बैंकिंग प्रणाली अर्थव्यवस्था की रीढ़ है. उसके प्रबंधन और कार्य-कुशलता की खामियां आर्थिक विकास को नुकसान पहुंचाती हैं. संचालन और सेवा के माध्यम से ग्राहकों के हितों का ध्यान रखना इस तंत्र का प्रमुख कर्तव्य भी है, लेकिन यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे बैंकों ने इसका निर्वाह करने में कोताही बरती है. सरकार द्वारा […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 6, 2018 7:47 AM

बैंकिंग प्रणाली अर्थव्यवस्था की रीढ़ है. उसके प्रबंधन और कार्य-कुशलता की खामियां आर्थिक विकास को नुकसान पहुंचाती हैं. संचालन और सेवा के माध्यम से ग्राहकों के हितों का ध्यान रखना इस तंत्र का प्रमुख कर्तव्य भी है, लेकिन यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे बैंकों ने इसका निर्वाह करने में कोताही बरती है.

सरकार द्वारा लोकसभा में दी गयी जानकारी के मुताबिक बीते चार सालों में 24 सार्वजनिक और निजी बैंकों ने खाते में न्यूनतम राशि न रखने के दंड के रूप में 11,500 करोड़ रुपये ग्राहकों से वसूले हैं. इसमें 2,400 करोड़ रुपये अकेले स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने पिछले वित्त वर्ष (2017-18) में उगाहे हैं.

इसी अवधि में निजी बैंक एचडीएफसी ने 590 करोड़ की वसूली की है. पिछले एक-दो साल से बैंकों ने हर सुविधा और हर लेन-देन पर कुछ शुल्क का निर्धारण कर दिया है. कुछ समय पहले खबर आयी थी कि एसएमएस के जरिये किसानों को मौसम की जानकारी देने के बदले बैंकों ने खाते से पैसे काट लिये थे. अनेक शुल्क ऐसे हैं, जिनके बारे में ग्राहकों को साफ तौर पर बताया नहीं गया है.

इन कटौतियों में जीसटी भी जोड़ा जाता है. इस संदर्भ में दो बातें उल्लेखनीय हैं. नोटबंदी और जीएसटी जैसी पहलों के कारण छोटे व्यापार पर तथा किसानी के संकट से ग्रामीण अंचलों की आर्थिकी पर दबाव बढ़ा है. दूसरी तरफ बैंक भी फंसे हुए कर्ज के बढ़ते जाने और जमाराशि घटते जाने से परेशान हैं. उनकी परेशानी में कुप्रबंधन भी एक कारक है.

ऐसे में किसी तरह से पूंजी जुटाने की उनकी कोशिश ग्राहकों की जेब पर भारी पड़ रही है. यह भी ध्यान देने की बात है कि वे खाताधारक निम्न आयवर्ग और गरीब तबके से आते हैं, जो अपने खाते में निर्धारित न्यूनतम रकम नहीं रख पाते हैं. जागरूकता और शिक्षा की कमी से इन्हें बैंकों के कई नियमों का पता भी कम ही होता है.

पिछले कुछ समय से सरकार की कोशिश रही है कि हर परिवार में कम-से-कम एक खाताधारक हो तथा हर तरह का वित्तीय लेन-देन बैंकों के मार्फत हो. अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए ऐसे उपाय बेहद जरूरी हैं, परंतु इस प्रक्रिया में इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है कि हमारी आबादी के बड़े हिस्से की आमदनी बेहद कम है तथा रोजगार या कारोबार ज्यादातर अनौपचारिक क्षेत्र में हैं.

इस स्थिति में स्वाभाविक है कि सभी ग्राहकों के लिए बैंकों के एकसमान नियम बहुत लोगों के लिए नुकसानदेह हैं. दंड वसूलने के इस रवैये को बैंकों की विभिन्न कमियों से अलग रखकर नहीं देखा जा सकता है.

एटीएम का नहीं चलना, हेराफेरी या फर्जीवाड़ा, कर्ज मिलने में मुश्किलें आदि भी गंभीर समस्याएं हैं. ऐसी तमाम मुश्किलें गरीबों तथा निम्न आयवर्ग के लोगों को अवैध रूप से चलनेवाले लेन-देन और कर्ज के कारोबार के चंगुल में फंसने को मजबूर करती हैं. सरकार और बैंकों को इन बिंदुओं पर सकारात्मक कदम उठाने चाहिए.

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