पीड़ितों को कमजोर करता कानून
रुचिरा गुप्ता सामाजिक कार्यकर्ता ruchira@apneaap.org मोदी सरकार ने एक और लिंगवादी कदम उठाते हुए लोकसभा से ट्रैफिकिंग ऑफ परसंस (प्रिवेंशन, प्रोटेक्शन एंड रिहैबिलिटेशन) बिल, 2018 पारित करा लिया है, जो यौन शोषण हेतु मानव व्यापार (सेक्स ट्रैफिकिंग) के लाखों शिकारों को अपनी परिभाषा से बाहर रखते हुए मानवाधिकार के सिद्धांतों की अनदेखी तो करता ही […]
रुचिरा गुप्ता
सामाजिक कार्यकर्ता
ruchira@apneaap.org
मोदी सरकार ने एक और लिंगवादी कदम उठाते हुए लोकसभा से ट्रैफिकिंग ऑफ परसंस (प्रिवेंशन, प्रोटेक्शन एंड रिहैबिलिटेशन) बिल, 2018 पारित करा लिया है, जो यौन शोषण हेतु मानव व्यापार (सेक्स ट्रैफिकिंग) के लाखों शिकारों को अपनी परिभाषा से बाहर रखते हुए मानवाधिकार के सिद्धांतों की अनदेखी तो करता ही है, भारत के अंतरराष्ट्रीय कानूनी दायित्व का भी उल्लंघन करता है.
अपने उद्देश्यों तथा औचित्य के बयान के अंतर्गत एक ओर यह बिल जहां यह कहता है कि ‘मानव प्राणियों का व्यापार यौन तथा शारीरिक शोषण के लिए हो सकता है’, वहीं दूसरी ओर, परिभाषाओं की धारा अथवा आपराधिक प्रावधानों में यौन शोषण का कोई जिक्र ही नहीं है. वर्ष 2011 में भारत ने पालेर्मो संलेख (प्रोटोकॉल) की पुष्टि की, जिसका उद्देश्य मानव प्राणियों तथा खासकर महिलाओं-बच्चों के व्यापार का निवारण, दमन तथा कसूरवारों को दंडित करना था और इसलिए हमारा दायित्व है कि हम इसे अंगीकार करें. इस संलेख की परिभाषा के अंतर्गत यह कहा गया कि मानव प्राणियों का व्यापार विभिन्न भांति के शोषणों हेतु होता है, जिनमें वेश्यावृत्ति हेतु शोषण, यौन शोषण, जबरन मजदूरी या सेवा, दासता अथवा दासता जैसी दूसरी प्रथाएं, संपूर्ण अधीनता अथवा शरीर के अंग निकालना अवश्य शामिल हैं.
यहां तक कि मानव व्यापार के गंभीर रूपों में भी यह बिल जबरन मजदूरी, भीख मंगवाने तथा शादी रचाने का उल्लेख करता है, मगर यौन शोषण तथा दूसरों से वेश्यावृत्ति कराने को छोड़ देता है. यौन शोषण के लिए मानव व्यापार को परिभाषित करने हेतु यह बिल भारतीय दंड संहिता (आइपीसी) की धारा 370 जैसे एक अन्य कानून को संदर्भित तो करता है, पर उसका स्पष्ट जिक्र न कर एक अस्पष्टता का सृजन कर देता है. यह अस्पष्टता पुलिस तथा न्यायपालिका को इस संदर्भ में इस कानून की व्याख्या हेतु अधिक आजादी दे देती है.
मामलों की तफ्तीश करने तथा कानून प्रवर्तन एजेंसियों एवं गैर सरकारी संगठनों के बीच तालमेल स्थापित करने के नाम पर यह बिल राष्ट्रीय मानव व्यापार रोधी ब्यूरो को निगरानी की कठोर शक्तियां देता है, जिनका दुरुपयोग पीड़ितों तथा एक्टिविस्टों के खिलाफ किये जाने की संभावनाएं हैं. हजारों पीड़ितों को, जिनमें निरक्षरों की तादाद खासी होगी, अब अपने मानव व्यापारियों के विरुद्ध शिकायत दर्ज कराने हेतु बिल के उद्देश्यों के अंतर्गत ‘हो सकता है’ जैसी शब्दावली की व्याख्या के लिए पुलिस की कृपा पर निर्भर होना होगा.
सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी यौन शोषण हेतु मानव व्यापार की परिभाषा के लिए न्यायपालिका की मर्जी पर निर्भर होना होगा अथवा उसे पुराने कानून दिखाने होंगे. कानूनों की बहुतायत प्रायः पीड़ितों को भ्रमित करते हुए उन्हें शिक्षित वकीलों और न्यायपालिका पर निर्भर बनाती है.
यह भी दिलचस्प है कि यह बिल मानव व्यापार का दोष पूरी तरह ‘गरीबी, निरक्षरता तथा आजीविका विकल्पों के अभाव पर’ थोपता है और किसी भी तरह लिंग/लैंगिक भिन्नता (जेंडर)/जाति संबंधी असमानता को इसके शिकार होने की दुर्बलताओं की वजह करार नहीं देता.
इस प्रकार, सरकार यौन शोषण हेतु मानव व्यापार के अपराधियों एवं पीड़ितों के खरीदारों को दंडित करने, साथ ही हाशिये पर पहुंचे समूहों के लिए अधिक बजटीय आवंटन के द्वारा लैंगिक भिन्नता अथवा जातिगत असमानता को संबोधित करने के दायित्व से बच जाती है.
यौन शोषण हेतु मानव व्यापार के भारत में स्थित वर्तमान एक करोड़ साठ लाख पीड़ितों में से अधिकांश दलित, आदिवासी, अन्य पिछड़े वर्ग तथा अधिसूचित जनजातियों से आते हैं. सरकारी आंकड़ों में अब उन्हें मानव व्यापार के पीड़ितों के रूप में बताया अथवा नहीं बताया जा सकता है.
इस तथाकथित ‘व्यापक’ कानून की परिभाषा से कुछ अहम अवयवों को छोड़ देने से सरकारी मुलाजिमों को पीड़ितों की संख्या से एक बड़ा भाग बाहर कर देने में मदद ही मिलेगी.
शशि थरूर सहित कई सांसदों द्वारा इस बिल की समीक्षा हेतु इसे संसद की स्थायी समिति के हवाले किये जाने की मांग ठुकराते हुए मोदी सरकार द्वारा इसे जल्दबाजी में पारित कराया जाना अत्यंत संदिग्ध है.
दुर्भाग्यवश, यह वर्ष 2016 के उस वाकये जैसा ही है, जब परिवार आधारित उद्यमों एवं दृश्य-श्रव्य मनोरंजन के काम में लगे दसियों लाख बच्चों को बाल मजदूरी की परिभाषा से बाहर कर सरकार यह दिखाने में सफल रही थी कि देश में बाल मजदूरों की तादाद कम हुई है.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े यह बताते हैं कि अगले ही वर्ष बच्चियों के बलात्कार में 82 प्रतिशत की वृद्धि हो गयी. श्रमशक्ति में धकेल दिये गये ये अदृश्य बच्चे भले ही स्कूलों से बाहर कर आंकड़ों से गायब कर दिये गये हों, पर अपराधियों के लिए तो उनका अस्तित्व बना ही रहा.
यौन शोषण हेतु मानव व्यापार के पीड़ितों के साथ भी यही होने जा रहा है, जब आर्थिक फायदे के लिए उनका बलात्कार जारी रहेगा और उनकी तादाद में बढ़ोतरी भी होती रहेगी. क्योंकि मानव व्यापारी दंड से बचे रहेंगे और पीड़ितों के लिए यह भी बताना कठिन होगा कि वे किस परिभाषा के दायरे में आते हैं. उधर, सरकारी आंकड़े यह बता रहे होंगे कि बाल मजदूरी तथा यौन शोषण हेतु मानव व्यापार में कमी आयी है.
(अनुवाद: विजय नंदन)