ज्ञान के दरवाजे खुले रहें
डॉ अनुज लुगुन सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया anujlugun@cub.ac.in पाब्लो नेरुदा की कविता है- ‘अगर पीला रंग खत्म हो जाये / तो हम किससे बनायेंगे रोटी?’ यह कविता बाल सुलभ मासूमियत से लिखी गयी है. अपने जीवन के अंतिम समय में लिखी गयी नेरुदा की इस तरह की कविताएं न तो काव्यशास्त्रीय मानकों […]
डॉ अनुज लुगुन
सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया
anujlugun@cub.ac.in
पाब्लो नेरुदा की कविता है- ‘अगर पीला रंग खत्म हो जाये / तो हम किससे बनायेंगे रोटी?’ यह कविता बाल सुलभ मासूमियत से लिखी गयी है. अपने जीवन के अंतिम समय में लिखी गयी नेरुदा की इस तरह की कविताएं न तो काव्यशास्त्रीय मानकों को स्थापित करने के उद्देश्य से लिखी गयी हैं और न ही इनका राजनीतिक स्वर है.
ये सहज मानवीय जिज्ञासा की कविताएं हैं. ये कविताएं मूलतः सवाल हैं और शायद ये सवाल इसलिए छोड़े गये हैं, ताकि इनके जवाब तक पहुंचने के लिए पुराने रास्तों को छोड़ नये रास्तों की खोज की जाये. प्रो यशपाल ने एक बार छात्रों को संबोधित करते हुए कुछ सवाल पूछे जैसे, ताली क्यों बजती है? मच्छर मर कर कहां जाते हैं?
इन सवालों का महत्व बताते हुए उन्होंने कहा कि ऐसे सवालों में ही ज्ञान-विज्ञान के महान खोज छुपे होते हैं. बच्चों को सवाल करने से रोककर उनकी कल्पना और रचनात्मकता को कुंद कर दिया जाता है. कठोपनिषद् में नचिकेता का प्रसंग आता है, जो अपने पिता से कहता है कि उन्होंने उसे क्यों नहीं दान में दे दिया? वह यम से भी सवाल करता है कि ‘मृत्यु का रहस्य क्या है?’
सवाल करने की महत्ता के ऐसे कई उदाहरण हैं हमारे मानव समाज के इतिहास में. स्वाभाविक सी बात है कि जिज्ञासा सवाल पैदा करती है और जवाब की खोज ज्ञान पैदा करती है. लेकिन, यह इतना आसान नहीं है. ये स्वाभाविक सवाल असहज करनेवाले होते हैं. अगर ये असहमति में पूछे गये हों, तो इसके लिए जोखिम भी उठाना होता है. लेकिन ज्ञान, विज्ञान और खोज का रास्ता इन्हीं सवालों से होकर गुजरता है.
सोलहवीं सदी के उतरार्द्ध में इटली के महान तर्कवादी खगोलविद एवं वैज्ञानिक जियार्दनो ब्रूनो के सिद्धांत तत्कालीन चर्च एवं उसके अधिकारियों की स्थापना के विरुद्ध सवाल ही थे.
उन्होंने कहा कि अंतरिक्ष के केंद्र में पृथ्वी नहीं, बल्कि सूर्य है और ब्रह्मांड की अपनी उत्पत्ति और उसका अपना अंत है, न कि यह ईश्वरीय है. उनकी स्थापनाएं बाइबल के विपरीत थीं, इसलिए धर्म के अधिकारियों ने उन पर ‘ईश्वर को गाली’ देने का आरोप लगाया. उसे कई वर्षों तक जेल में यातनाएं दी गयी, ताकि वह अपना सिद्धांत त्याग दे. लेकिन, जब उसने इनकार कर दिया, तो अंततः उसे एक दिन जिंदा जला दिया गया.
मरते हुए उनका कहा गया यह कथन प्रसिद्ध है- ‘आप दंड देनेवाले हैं और मैं अपराधी हूं, मगर अजीब बात है कि कृपासिंधु भगवान के नाम पर अपना फैसला सुनाते हुए आपका हृदय मुझसे कहीं अधिक डर रहा है.’ अपने सवालों से और अपनी कुर्बानी से ब्रूनो ने मानव समाज के अंधेरे दरवाजों को खोल दिया था. अगर इस तरह के सवाल नहीं होते तो क्या होता? क्या बिना जिज्ञासा और सवाल के दुनिया आगे बढ़ सकती है? जरा सोचिए!
कोई भी लोकतांत्रिक समाज बिना सवाल के टिक नहीं सकता और न ही बौद्धिक विमर्शों के आगे बढ़ सकता है. वाद-विवाद और संवाद के जरिये ही नये और मौलिक रास्ते निकलते हैं. हमारे जीवन में घरों से लेकर दफ्तरों तक और बाजार-हाट से शासन तक एक नेता का वर्चस्व होता है.
वह न हमारे सवाल सुनता है और न ही हम उससे सवाल करने की हिम्मत करते हैं. यही प्रवृत्ति धीरे-धीरे वर्चस्व और दमन को जन्म देती है. आदिवासी विचारक पद्मश्री सिमोन उरांव कहते हैं कि जिस घर, गांव और ग्राम सभा में सप्ताह में तीसरे दिन, सातवें दिन और पंद्रहवें दिन नियमित संवाद होता हो, वहां किसी तरह का झगड़ा नहीं उठता. समाज में संवादहीनता के घातक परिणाम होते हैं.
इतिहास के उद्धरणों को देखना इसलिए भी जरूरी है कि हर युग अपनी जड़ताओं से बंधा रहता है और कुछ शक्तियां उसे बांधे रखना चाहती हैं. हाल ही में झारखंड में पत्थलगड़ी आंदोलन के बारे में सोशल मीडिया पर पोस्ट लिखने की वजह से कुछ लोगों पर प्राथमिकी दर्ज हुई है.
उधर कर्नाटक के बीजेपी विधायक ने एक दूसरे मुद्दे पर बयान दिया कि ‘यदि वह गृहमंत्री होते, तो बुद्धिजीवियों को गोली मार देते’. भले ही इस बयान की गंभीरता न हो, लेकिन इसके निहितार्थ को देखें, तो हमें यह संकेत मिलता है कि जिन सवालों से सत्ता या शासन को चुनौती मिलती है, वैसी आवाजों को वह दबा देना चाहती है.
तो क्या सभी बुद्धिजीवियों को गोली मार देनी चाहिए, जो सवाल करते हैं, जो असहमत होते हैं? क्या धर्म, ईश्वर और शासन सवाल से परे हैं?
धर्म के नाम पर लिंचिंग हो रही है, जाति के नाम पर ऑनर किलिंग हो रही है, तो क्या इसकी जिम्मेदारी के लिए सवाल नहीं किये जाने चाहिए? क्या सदन के बाहर आम जनता कश्मीर के मुद्दे, नक्सल मुद्दे, पत्थलगड़ी के मुद्दे या जन समस्याओं पर अपनी राय नहीं रख सकती है? क्या वह रेप का विरोध करने के लिए सड़कों पर नहीं उतर सकती है?
जैसे-जैसे देश, समाज और संस्थाओं के अंदर सवाल करने की प्रवृत्ति को रोका जायेगा, वैसे-वैसे इनमें आंतरिक लोकतंत्र संकुचित होता जायेगा. अगर हमारे बच्चे हमसे खुलकर सवाल नहीं कर सकते, अगर हमारे बौद्धिक खुलकर अपनी बात नहीं रख सकते, तो हम कैसे कह सकते हैं कि आनेवाली पीढ़ी के लिए ज्ञान के दरवाजे खुले होंगे? ऐसे में हमारे लिए यह संकोच की बात होगी कि हम बुद्ध, कबीर या प्रेमचंद के वंशज हैं.