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फर्जी खबरों और गलत सूचनाओं से होते नुकसान के मद्देनजर सरकार ने जरूरी पहलकदमी की है. इंटरनेट की सेवाएं मुहैया करा रहे ऑपरेटरों से दूरसंचार विभाग ने कहा है कि वे ऐसे विकल्प खोजें, ताकि राष्ट्रीय सुरक्षा और सामाजिक सद्भाव पर खतरे की स्थिति में फेसबुक, व्हाॅट्सएप, इंस्टाग्राम जैसे मोबाइल एप्स को ब्लॉक किया जा […]

फर्जी खबरों और गलत सूचनाओं से होते नुकसान के मद्देनजर सरकार ने जरूरी पहलकदमी की है. इंटरनेट की सेवाएं मुहैया करा रहे ऑपरेटरों से दूरसंचार विभाग ने कहा है कि वे ऐसे विकल्प खोजें, ताकि राष्ट्रीय सुरक्षा और सामाजिक सद्भाव पर खतरे की स्थिति में फेसबुक, व्हाॅट्सएप, इंस्टाग्राम जैसे मोबाइल एप्स को ब्लॉक किया जा सके.

यह पहल सूचना प्रौद्योगिकी से संबंधित अधिनियम की धारा 69ए के अनुरूप है. इसमें कहा गया है कि केंद्र सरकार स्वयं या सक्षम प्राधिकारी के मार्फत इंटरनेटी स्रोतों पर मौजूद सूचना को लोगों तक पहुंचने से रोकने के निर्देश दे सकती है, बशर्ते ऐसा करना राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता, सुरक्षा, शासन और कानून की बहाली, दूसरे मुल्कों से दोस्ताना रिश्ते बनाने, या फिर किसी संज्ञेय अपराध के लिए दिये जा रहे उकसावे को रोकने के लिए जरूरी हो. बहरहाल, ऐसी किसी कोशिश को पुराने अनुभवों के आलोक में देखा जाना चाहिए.

सर्वोच्च न्यायालय ने 2015 में सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक टिप्पणी करने के मामले में लगनेवाली धारा 66ए को संविधान के अनुच्छेद 19(1)ए के अंतर्गत हासिल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन मानते हुए रद्द कर दिया था.

अदालत ने कहा था कि बेशक अभिव्यक्ति की आजादी लोकतंत्र को जीवित रखने के जरूरी है, पर संविधान इसे निरपेक्ष नहीं मानता, इसलिए यह अधिकार युक्तिसंगत नियमन के दायरे में ही स्वीकृत है. अदालत ने यह भी ध्यान दिलाया था कि किसी अभिव्यक्ति से विधि-व्यवस्था या सामाजिक सद्भाव को खतरा पैदा होने की पहले से आशंका के आधार पर उसे सार्वजनिक होने से रोकना युक्तिसंगत व्यवहार नहीं है.

सवाल यह उठता है कि खतरे की आशंका और वास्तविक खतरे में भेद करना किसके लिए न्यायसंगत होगा? इसके संभावित जवाब का एक संकेत अदालत के फैसले में ही था, जिसमें अदालत ने माना था कि अभिव्यक्ति की आजादी विधायिका के स्वरूप में बदलाव लाने तथा सरकार बदलने की जनता की इच्छा में अनिवार्य रूप से मददगार है, सो अगर किन्हीं उचित आधारों पर इस आजादी का नियमन किया जाता है, तो सही यही होगा कि इसका फैसला कोई स्वायत्त प्राधिकरण करे. इससे एक अर्थ यह भी निकलता है कि सरकार व्यापक जनहित में नहीं, बल्कि अपने स्थायित्व के लिए नियमन के प्रयास कर सकती है.

इस लिहाज से सूचना के सार्वजनिक प्रवाह को सुगम बनानेवाले नये मीडिया तंत्रों और युक्तियों के नियमन का प्रयास अगर सीधे सरकार या उसके विभाग करते हैं, तो इसे अदालत में चुनौती मिलने की आशंका बनी रहेगी, जैसा कि धारा 66ए के मामले में हुआ था. उचित यही होगा कि सरकार साइबर-संसार के नित-नूतन विस्तार से पैदा होती जटिलताओं को ध्यान में रखते हुए अभिव्यक्ति के मंचों के नियमन के प्रयास करे और इस प्रक्रिया में सभी संबद्ध पक्षों की राय का भी समुचित संज्ञान ले.

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