एम करुणानिधि के बाद क्या!
आर राजागोपालन वरिष्ठ पत्रकार rajagopalan1951@gmail.com तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री और डीएमके प्रमुख एम करुणानिधि अब हमारे बीच नहीं हैं. उन्हें भरपूर श्रद्धांजलि देना ही काफी नहीं होगा. करुणानिधि के आदर्शों, उनके समय में उनकी सामाजिक अभियांत्रिकी का प्रभाव, द्रविड़ वैचारिकी आदि तो अनिवार्य हैं ही, लेकिन भविष्य की पीढ़ियों के लिए इन्हें आकार देना निश्चय […]
आर राजागोपालन
वरिष्ठ पत्रकार
rajagopalan1951@gmail.com
तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री और डीएमके प्रमुख एम करुणानिधि अब हमारे बीच नहीं हैं. उन्हें भरपूर श्रद्धांजलि देना ही काफी नहीं होगा. करुणानिधि के आदर्शों, उनके समय में उनकी सामाजिक अभियांत्रिकी का प्रभाव, द्रविड़ वैचारिकी आदि तो अनिवार्य हैं ही, लेकिन भविष्य की पीढ़ियों के लिए इन्हें आकार देना निश्चय ही मुश्किल से भरा होगा.
तात्कालिक राजनीतिक प्रश्न यह है कि डीएमके इस सदमे को कैसे सहन करता है. करुणानिधि डीएमके की आंतरिक प्रेरक शक्ति थे. यह काफी कुछ कांग्रेस की मौजूदा स्थितियों की हूबहू प्रतिलिपि जैसा है. करुणानिधि को लेकर इस वक्त जो कुछ भी कहा या किया जाये, लेकिन अंतत: मूल प्रश्न तमिलनाडु के भविष्य का ही है.
निश्चित रूप से करुणानिधि का जाना राष्ट्रीय राजनीति में एक छोटी, किंतु मजबूत लहर की मौजूदगी का थम जाना है. इसके बाद यह सवाल बना रहेगा कि अब डीएमके और उसका भविष्य क्या होगा? इसकी परीक्षण भूमि अागामी साल 2019 का लोकसभा चुनाव बनेगा. अब देखना होगा कि बड़ी कामयाबी हासिल करने के लिए एमके स्टालिन किस तरह डीएमके का नेतृत्व करते हैं.
कविता के रूप में, पटकथा के रूप में अथवा व्यक्तिचित्र के रूप में करुणानिधि को दी गयी श्रद्धांजलि ही पर्याप्त नहीं होगी. निश्चय ही, इसके लिए उनकी पात्रता तमिल भाषा और संस्कृति के विकास हेतु किये गये उनके योगदान के लिए है, लेकिन करुणानिधि का कद इससे कहीं ज्यादा बड़ा है. उनका मूल आधार द्रविड़ राजनीति रहा है.
यह ध्यान रहे कि ईवी रामास्वामी नायकर और सीएन अन्नादुर्रई के एक विद्यार्थी के तौर पर करुणानिधि ने द्रविड़ आंदोलन के संदेशों को तमिलनाडु के कस्बों और गांवों तक पहुंचाने के लिए अपनी समझ और भाषण कौशल को गति दी थी.
आगे क्या होगा? इस प्रश्न का जवाब ढूंढना बहुत दिलचस्प होगा. डीएमके के भविष्य के लिए, निश्चय ही एमके स्टालिन की राजनीतिक शैली में एक बड़ा बदलाव होने जा रहा है. डीएमके की पार्टी राजनीति सीधे-सीधे करुणानिधि की पारिवारिक राजनीति से जुड़ी रही है.
सवाल है कि क्या स्टालिन डीएमके के बड़ों के साथ सौहार्द व सामंजस्य का रिश्ता कायम कर साथ चल सकेंगे? स्टालिन और अलागिरि एक साथ होंगे? कनिमोझी का क्या भविष्य होगा? क्या डीएमके में किसी सुदूर विभाजन की कोई संभावना है? इन प्रश्नों के अभी तात्कालिक जवाब नहीं हैं. समय हर घाव को भर देता है.
तमिलनाडु की राजनीति के पर्यवेक्षक यह देखने को उत्सुक हैं कि डीएमके के भीतरी झगड़े 2019 के लोकसभा चुनावों को किस कदर प्रभावित करेंगे.
तमिलनाडु में 2019 मार्च के लोकसभा चुनाव अभियान में कई बातें पहली बार होंगी. पहली बार इस अभियान में न करुणानिधि होंगे और न ही जयललिता होंगी. पहली बार रजनीकांत और कमल हासन अपनी चुनावी पारी परख रहे हैं. पहली बार एडीएमके के तीन धड़े अम्मा की विरासत के साथ मतदाताओं के पास जायेंगे. एमजीआर की माया से जुड़ा अम्मा का जादू क्या साल 2019 के लोकसभा चुनावों में काम करेगा?
पहली बार ही तमिलनाडु में पंचकोणीय संघर्ष के नतीजाें का भी परीक्षण करेगा, देखेगा भी. एडीएमके के मुकाबले डीएमके, टीटीवी दिनाकरन गठबंधन है. कहने की आवश्यकता नहीं कि दो प्रतिद्वंद्वी और रजनीकांत एवं कमल हासन होंगे.
निश्चय ही करुणानिधि को लेकर सहानुभूति होगी और डीएमके इसे मतों के रूप में भुनाने की कोशिशें करेगा. चूूंकि, करुणानिधि के अवसान से वास्तविक क्षति तमिलनाडु राज्य तथा तमिल भाषा की हुई है. इसलिए फिलहाल तो इस खालीपन को भरनेवाला कोई दिखायी नहीं दे रहा है.
मीडियाकर्मियों के साथ करुणानिधि का एक जीवंत संपर्क था. वे बहुत हाजिरजवाब थे. संवाददाता सम्मेलनों में भी उनकी हाजिरजवाबी दिखती थी. कई बार असहज सवालों के जवाब में एक कटाक्ष के साथ पेश आते थे. एक सम्मेलन में जब एक पत्रकार ने कहा कि रामादोस (पीएमके नेता) ताड़ी की दुकानें खोलने की मांग कर रहे हैं, इस पर तत्कालीन मुख्यमंत्री ने पत्रकारों के बीच पीएमके नेता का नाम उछालते हुए पूछा, ‘ये रामादोस कौन हैं?’
साल 1998 में एआईडीएमके-बीजेपी के बीच गठबंधन होने के बाद करुणानिधि के भांजे मुरासोली मारन ने कहा था कि राजनीतिक तौर पर कोई दल अछूत नहीं है, जिससे विवाद पैदा हो गया. जब इस बारे में पूछा गया, तो करुणानिधि ने रहस्यमय अंदाज में जवाब दिया था. और अगले ही साल भाजपानीत एनडीए सरकार से डीएमके जुड़ गयी थी.
करुणानिधि कैसे मोरारजी देसाई के विरुद्ध गये. अपने राजनीतिक गुरु सीएन अन्नादुर्रई की मृत्यु के बाद मुख्यमंत्री बनने के एक माह बाद, मार्च 1969 में उप प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई, जिनके पास वित्त मंत्रालय भी था, से भेंट करने के लिए गये थे.
उन्होंने सूखा राहत के लिए उनसे पांच करोड़ की मांग रखी. मोरारजी की प्रतिक्रिया थी कि ‘मेरे पास अपने बगीचे में पेड़ लगाने को पैसे नहीं है.’ इसके प्रत्युत्तर में करुणानिधि ने कहा था कि, ‘जब पेड़ों को उगाने के लिए पैसा नहीं है, तो फिर आप केबगीचे में वे क्यों कर हो सकते हैं?’