सिर्फ सुविधा की राजनीति
नवीन जोशी वरिष्ठ पत्रकार naveengjoshi@gmail.com हमारे देश में किसी मुद्दे पर विभिन्न राजनीतिक दल कैसा रुख अपनायेंगे और क्या पैंतरे दिखायेंगे, यह इस पर निर्भर करता है कि वह मुद्दा किन लोगों से जुड़ा है और वे आसन्न चुनाव को किस तरह प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं. बिल्कुल ताजा मामला एससी-एसटी एक्ट का है, […]
नवीन जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
naveengjoshi@gmail.com
हमारे देश में किसी मुद्दे पर विभिन्न राजनीतिक दल कैसा रुख अपनायेंगे और क्या पैंतरे दिखायेंगे, यह इस पर निर्भर करता है कि वह मुद्दा किन लोगों से जुड़ा है और वे आसन्न चुनाव को किस तरह प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं. बिल्कुल ताजा मामला एससी-एसटी एक्ट का है, जिसके बारे में सुप्रीम कोर्ट के कुछ दिशा-निर्देशों के बाद बीते 20 मार्च से आज तक संसद से सड़क तक हंगामा बरपा है.
चूंकि देश की चुनावी राजनीति दलित-केंद्रित हो गयी है, इसलिए सभी राजनीतिक दल दलित-हितैषी बन गये हैं. एक होड़ मची है कि उसका चेहरा दूसरों से अधिक दलित हितकारी दिखे. उन्हें इसकी कोई चिंता नहीं है कि पूर्व में इसी मुद्दे पर उनका रुख क्या रहा है. देश का दलित समुदाय किस हाल में है, यह भी उनकी चिंता का केंद्र नहीं है.
बीते 20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी (अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निरोधक) कानून, 1990 के बारे में दिशा-निर्देश दिये थे, ताकि किसी निर्दोष व्यक्ति को फंसाया न जा सके. पहले व्यवस्था थी कि दलित उत्पीड़न की शिकायत आते ही आरोपित व्यक्ति को बिना प्रारंभिक जांच के तुरंत गिरफ्तार किया जाये. उसकी जमानत की व्यवस्था भी नहीं थी. देश की सर्वोच्च अदालत ने माना कि इस सख्त कानून का दुरुपयोग भी हो रहा है. इसलिए उसने निर्देश दिया कि गिरफ्तारी से पूर्व प्रारंभिक जांच हो, सक्षम अधिकारी से अनुमति ली जाये और जमानत देने पर भी विचार किया जाये.
इन निर्देशों को एससी-एसटी एक्ट को ‘नरम’ बनाना माना गया. देशभर में विभिन्न दलित संगठन सड़कों पर उतर आये. मोदी सरकार का शुरुआती रुख था कि शीर्ष अदालत ने कानून को बदला नहीं है, बल्कि उसका दुरुपयोग न होने देने के लिए कुछ व्यवस्थाएं दी हैं. यह पैंतरा भाजपा की मूल राजनीति के अनुकूल था, क्योंकि उसका मुख्य जनाधार सवर्ण हिंदू जातियां रही हैं, जो इस कानून की चपेट में सबसे ज्यादा आते हैं और इसीलिए इसके विरोध में रहे हैं.
किंतु जैसे-जैसे दलितों का आंदोलन उग्र होता गया, विरोधी दलों ने मोदी सरकार को दलित-विरोधी बताना शुरू किया और सत्तारूढ़ एनडीए के दलित घटक दलों ने भी विरोध में आवाज उठायी, तो भाजपा सतर्क हो गयी. मोदी सरकार इसलिए भी घिरती दिख रही थी कि इस कानून को ‘नरम’ बनाने का आदेश देनेवाले एक न्यायमूर्ति एके गोयल को सरकार ने उनकी सेवानिवृत्ति के अगले दिन ही नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल का चेयरमैन बना दिया. रामविलास पासवान जैसे एनडीए सहयोगियों ने इसका खुला विरोध किया.
चूंकि 2019 में दलित वोट निर्णायक साबित होने हैं, इसलिए भाजपा ने फौरन पैंतरा बदला. सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दाखिल की गयी. कोर्ट का रुख पूर्ववत रहा तो संसद के चालू सत्र में ही नया विधेयक लाकर एससी-एसटी एक्ट को फिर से सख्त बनाने की रणनीति बनी.
फिलहाल नया विधेयक लोकसभा से पारित हो गया है. सरकार यह प्रचारित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही कि एससी-एसटी एक्ट को पहले से अधिक सख्त किया जा रहा है.
कांग्रेस समेत अन्य विरोधी दल जो भाजपा को पहले से दलित विरोधी साबित करने में लगे थे, इस बहाने और सक्रिय हो गये. उन्होंने चुनौती दी कि एससी-एसटी एक्ट को फिर से सख्त बनाने के लिए सरकार तत्काल अध्यादेश क्यों नहीं ला रही. अध्यादेश आसान रास्ता था, लेकिन सरकार विधेयक पर संसद में बहस कराकर अपना दलित-प्रेमी चेहरा प्रस्तुत करने और दूसरों को दलित-विरोधी बताने का मौका क्यों छोड़ती.
दलितों की सबसे आक्रामक राजनीति करनेवाली बसपा-नेत्री मायावती को एससी-एसटी एक्ट को ‘नरम’ किये जाने पर सबसे ज्यादा बिफरना ही था.
उन्होंने इस कानून को डॉ आंबेडकर और दलितों के लंबे संघर्ष का परिणाम बताते हुए भाजपा को इसे नरम बनाने की साजिश करने का आरोप लगाया. अब जबकि एससी-एसटी एक्ट को फिर से उसी तरह सख्त बनाने के लिए विधेयक लोकसभा से पारित हो गया है, तो मायावती इसके लिए दलितों के आंदोलन तथा उनकी एकजुटता को श्रेय दे रही हैं.
सन् 2007 के चुनाव में मायावती को दलितों के अलावा सवर्णों के समर्थन ने बहुमत दिलाया था. एससी-एसटी एक्ट पर अमल से सवर्ण नाराज न हो जायें, इसलिए मई और अक्तूबर 2007 में दो अलग-आलग आदेशों से उन्होंने उत्तर प्रदेश में इस कानून को इतना नख-दंत विहीन कर दिया था, जितना वह सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों से भी नहीं हुआ.
उन आदेशों का सार यह था कि हत्या और बलात्कार को छोड़कर दलित उत्पीड़न के अन्य मामले एससी-एसटी एक्ट के तहत दर्ज न किये जायें और यदि कोई दलित किसी पर इस कानून का दुरुपयोग करे, तो उस पर आईपीसी की धाराओं में मुकदमा लिखा जाये. आज चूंकि दलों को सबसे पहले अपना दलित जनाधार बचाना है, इसलिए सवर्णों की नाराजगी की चिंता किये बगैर उसी कानून की सख्ती के लिए उन्हें आक्रामक रुख अपनाना पड़ रहा है.
इस वक्त एक भी राजनीतिक दल नहीं होगा, जो एससी-एसटी एक्ट के दुरुपयोग और संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होने के कारण इसे फिर से सख्त बनाने का विरोध करे.
भाजपा को, जिसे अपने सवर्ण वोट बैंक की निगाह से इसके खिलाफ खड़ा होना चाहिए था, इसकी सबसे बड़ी हिमायती दिखने का प्रयास कर रही है. कारण है दलितों का देशव्यापी बड़ा वोट बैंक.अस्सी लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में बसपा और सपा का गठबंधन उसकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा है. यहां उसे दलितों के पक्ष में मायावती से भी ज्यादा खड़े दिखना है. सवर्ण थोड़ा नाराज हुए भी तो साथ ही रहेंगे. दलित वोट मिल गये तो नैया पार.
विडंबना देखिए कि सुप्रीम कोर्ट की उसी पीठ ने पिछले साल जुलाई में यह कहते हुए कि दहेज निरोधक कानून की सख्ती का दुरुपयोग भी होता है, उसे ‘नरम’ बनाने के निर्देश दिये थे. अब दहेज कानून में बिना आरोपों की प्रारंभिक जांच के तुरंत गिरफ्तारी नहीं होती. देशभर की महिला संगठनों ने दहेज कानून को उत्पीड़क के पक्ष में उदार बनाने के खिलाफ आवाज उठायी थी.
खूब धरना-प्रदर्शन भी किये थे. अब चूंकि दलितों की तरह ये महिलाएं हमारे राजनीतिक दलों के लिए एकजुट वोट-बैंक नहीं हैं, इसलिए कोई राजनीतिक दल इन महिलाओं के साथ खड़ा नहीं हुआ. लेकिन, दलितों के साथ खड़ा दिखने के लिए दलों में युद्ध छिड़ा हुआ है.