करुणानिधि का सामाजिक न्याय

योगेंद्र यादव अध्यक्ष, स्वराज इंडिया yyopinion@gmail.com देश के अधिकांश इलाकों में एम करुणानिधि का गुजरना कोई बड़ी खबर नहीं है. उनके निधन और अंत्येष्टि की खबर जरूर देशभर के अखबारों के मुखपृष्ठ पर छपी है. सबने बताया है कि वे पांच बार मुख्यमंत्री रहे, तेरह बार विधायक. लेकिन पता नहीं तमिलनाडु के बाहर कितने पाठक […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 10, 2018 12:01 AM
योगेंद्र यादव
अध्यक्ष, स्वराज इंडिया
yyopinion@gmail.com
देश के अधिकांश इलाकों में एम करुणानिधि का गुजरना कोई बड़ी खबर नहीं है. उनके निधन और अंत्येष्टि की खबर जरूर देशभर के अखबारों के मुखपृष्ठ पर छपी है. सबने बताया है कि वे पांच बार मुख्यमंत्री रहे, तेरह बार विधायक. लेकिन पता नहीं तमिलनाडु के बाहर कितने पाठक इस खबर को पढ़ेंगे, कितने लोग इसका महत्व समझेंगे. उनके लिए जैसी जयललिता वैसे ही करुणानिधि. किसी दूर देश के अनजाने, अबूझे नायक, नायिका.
यह हमारे राष्ट्रवाद की विडंबना ही है कि आज भी एक औसत पढ़ा-लिखा हिंदीभाषी ‘द्रविड़ मुनेत्र कषगम’ का नाम भी नहीं ले पाता है. अगर द्रविड़ आंदोलन के बारे में पूछा जाये, तो इतना ही बता पायेगा कि यह हिंदी के विरुद्ध था. आज भी अधिकांश गैर-तमिल लोग तमिलनाडु की राजनीति को एक अजूबा समझते हैं. पता नहीं फिल्मी लोग वहां कैसे राजनीति में चले आते हैं? पता नहीं क्यों नेताओं के प्रेम में वहां लोग इतने दीवाने रहते हैं?
करुणानिधि का निधन इस राष्ट्रीय अज्ञान और पूर्वाग्रह से मुक्त होने का अवसर है. उनका जीवन हम सबके लिए बीसवीं सदी के तमिल राष्ट्रवाद, द्रविड़ आंदोलन और क्षेत्रीय राजनीति को समझने का एक झरोखा हो सकता है. यानी भारतीय लोकतंत्र और राष्ट्रवाद को समझने का एक मौका हो सकता है.
करुणानिधि फिल्म की पटकथा लिखते-लिखते राजनीति में यूं ही नहीं चले आये. वे और उनके सहयोगी सामाजिक क्रांति के पुरोधा रामास्वामी ‘पेरियार’ के शिष्य थे. बेशक, द्रविड़ आंदोलन ने उत्तर भारत के दबदबे के खिलाफ आवाज उठायी, जबरदस्ती हिंदी लादने का विरोध किया, ‘हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान’ की अवधारणा को खारिज किया.
लेकिन, इस आधार पर उन्हें भारतीय राष्ट्रवाद का विरोधी मानना एक गहरी भूल होगी. दरअसल, द्रविड़ आंदोलन और इस जैसे अन्य क्षेत्रीय आंदोलनों ने राष्ट्रवाद की नींव गहरी की है. भारतीय राष्ट्रवाद क्षेत्रीयता के फूल को मसल कर नहीं, बल्कि उसे राष्ट्रीय माला में गूंथकर बना है.
करुणानिधि और उनके राजनीतिक गुरु अन्नादुरई ने एक अलग ‘द्रविड़ स्तान’ या स्वतंत्र तमिल राष्ट्र के विचार को खारिज कर भारतीय गणतंत्र के भीतर लोकतांत्रिक तरीके से तमिल आकांक्षाओं को पूरा करने की राजनीति शुरू की. इससे तमिलनाडु की क्षेत्रीय राजनीति और भारतीय राष्ट्रवाद दोनों मजबूत हुए. सन् 1967 से लेकर आज तक तमिलनाडु की सत्ता पर द्रविड़ आंदोलन से निकली किसी-न-किसी पार्टी का कब्जा रहा है.
उधर तमिल अलगाव का खतरा समाप्त होने से भारतीय गणतंत्र भी मजबूत हुआ. अगर श्रीलंका की तमिल अलगाववादी राजनीति और भारत के द्रविड़ आंदोलन की तुलना करें, तो समझ आता है कि तमिल आकांक्षाओं का सम्मान करने से भारतीय गणतंत्र कैसे मजबूत हुआ.
सत्ता में आने के दो वर्ष के भीतर ही अन्नादुरई चल बसे और इस आंदोलन को वैचारिक तथा राजनीतिक नेतृत्व देने की जिम्मेदारी करुणानिधि के कंधे पर आयी. पिछले 50 साल से तमिल राजनीति के शीर्ष पर रहते हुए करुणानिधि ने राष्ट्रीय दलों से रिश्ता बनाया, लेकिन दिल्ली दरबार के सामने कभी घुटने नहीं टेके.
करुणानिधि ने इंदिरा गांधी की इमरजेंसी का विरोध करने का साहस दिखाया, जिसके बदले में उनकी सरकार को बर्खास्त किया गया. उन्होंने राजमन्नार समिति बनाकर राज्यों के अधिकार मजबूत करने की शुरुआत की. भारतीय लोकतंत्र और संघीय ढांचे को यह करुणानिधि का ऐतिहासिक योगदान था.
करुणानिधि सिर्फ एक क्षेत्रीय आंदोलन के नेता नहीं थे. द्रविड़ आंदोलन एक अनीश्वरवादी तर्कशील और सामाजिक न्याय का वैचारिक आंदोलन था, जिसने धार्मिक पाखंडों का खंडन किया और धर्मसत्ता का विरोध करते हुए भी राजनीतिक सत्ता हासिल की. इस परंपरा का निर्वाह करते हुए करुणानिधि ने श्रीलंका और भारत के बीच सेतु बनाने के प्रस्ताव को रामसेतु के नाम पर धार्मिक रंग देने से इनकार कर दिया.
करुणानिधि अगर द्रविड़ आंदोलन के किसी एक विचार के सच्चे वारिस थे, तो वह थी इसकी सामाजिक न्याय की परंपरा. स्वयं करुणानिधि एक अत्यंत पिछड़ी जाति से संबंध रखते थे, जिसका पुश्तैनी पेशा था मंदिरों के बाहर वाद्य यंत्र को बजाना.
द्रविड़ आंदोलन ने तमिलनाडु में ब्राह्मण वर्चस्व को चुनौती दी. करुणानिधि की सरकार ने तमिलनाडु में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था को प्रभावी किया. सिर्फ सरकारी नौकरी में ही नहीं, राजनीति, समाज, अर्थव्यवस्था, हर जगह पिछड़ी जातियों को न्याय संगत जगह दिलायी. इस लिहाज से द्रविड़ आंदोलन उत्तर भारत की पिछड़ी जातियों की राजनीति से कहीं पहले शुरू हुआ और कहीं ज्यादा दूरदर्शी साबित हुआ.
करुणानिधि के नेतृत्व में सामाजिक न्याय की राजनीति केवल आरक्षण तक सीमित नहीं रही. इस मायने में द्रविड़ राजनीति हिंदी पट्टी की सामाजिक न्याय की राजनीति से कई कदम आगे थी. उनके नेतृत्व में द्रविड़ मुनेत्र कषगम (डीएमके) की सरकार ने अनेक समाज कल्याण के कार्यक्रमों की नींव डाली. गरीबी का दंश झेल चुके करुणानिधि ने तमिलनाडु में हाथ रिक्शा की अमानवीय प्रथा को समाप्त किया, साथ ही उन रिक्शे वालों को वैकल्पिक रोजगार भी दिया.
गरीब और पिछड़े वर्ग के बच्चों को शिक्षा के अवसर उपलब्ध करवाना, परिवार के पहले ग्रेजुएट को मुफ्त कॉलेज शिक्षा दिलवाना, गरीबों के लिए अस्पताल में बीमा और महिलाओं को देश में पहली बार संपत्ति का अधिकार दिलवाना कुछ ऐसी योजनाएं हैं, जिनके कारण तमिलनाडु की जनता उन्हें याद करेगी. द्रमुक या अन्नाद्रमुक जो भी पार्टी सत्ता में आयी, उसने इन समाज कल्याण योजनाओं को पहले से ज्यादा बढ़ाया. इसलिए आज भी देश में राशन की व्यवस्था और समाज कल्याण की तमाम योजनाएं शायद सबसे बेहतर तरीके से तमिलनाडु में काम करती हैं.
करुणानिधि के अंतिम दिनों में द्रविड़ आंदोलन का सूर्य भी अस्त होने लगा था. द्रमुक पार्टी पर उनके परिवार का कब्जा हो गया. स्वयं करुणानिधि पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे. द्रविड़ आंदोलन अपने मूल विचार से पूरी तरह भटक गया. आज तमिलनाडु की राजनीति द्रविड़ आंदोलन के बाद एक नये दौर के लिए तैयार खड़ी है. करुणानिधि को याद करना एक लोकतांत्रिक संघीय और न्याय संगत भारत के सपने को याद करना है. यह सपना सिर्फ तमिलनाडु का नहीं, पूरे देश का सपना है.

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