।। प्रमोद जोशी ।।
वरिष्ठ पत्रकार
जिस रक्षा सामग्री को हम विदेश से खरीदते हैं, उसे विदेशी श्रम से तैयार किया जाता है, जबकि भारतीय कारखाने में बड़ी संख्या में भारतीयों को रोजगार मिलेगा. ऐसे कारखाने भारतीय पूंजीपतियों के सहयोग से भी लगाये जा सकते हैं.
इस हफ्ते 4 जून से शुरू हो रहे संसद के पहले सत्र में नरेंद्र मोदी सरकार की नीतियों पर रोशनी पड़ेगी. संसद के संयुक्त अधिवेशन में राष्ट्रपति का अभिभाषण इस सरकार का पहला नीतिपत्र होगा. सरकार के सामने फिलहाल तीन बड़ी चुनौतियां हैं- महंगाई, आर्थिक विकास दर बढ़ाना और प्रशासनिक मशीनरी को चुस्त करना. महंगाई को रोकने और विकास दर बढ़ाने के लिए सरकार के पास खाद्य सामग्री की सप्लाई और विदेशी निवेश बढ़ाने का रास्ता है. सरकार एफसीआइ के पास पड़े अन्न भंडार को निकालने की योजना बना रही है. इस साल मॉनसून खराब होने का अंदेशा है, इसलिए यह कदम जरूरी है.
नयी सरकार के कुछ सकारात्मक कदमों का विदेशी निवेशकों तक अच्छा संदेश गया है. डॉलर की वापसी हो रही है. इससे रुपये की कीमत बढ़ी है. इसका असर पेट्रोलियम की कीमतों पर पड़ेगा. अंतरराष्ट्रीय पेट्रोलियम बाजार में इस वक्त तेजी का रुख है, लेकिन डॉलर की कीमत गिरने से यह झटका उतना तेज नहीं लगेगा, जितना कि लगता. उधर वाणिज्य मंत्रालय ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाने के लिए एक कैबिनेट नोट जारी किया है, जिसने देश का ध्यान खींचा है. इसमें सबसे बड़ी पेशकश रक्षा उद्योग में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) सौ फीसदी करने का सुझाव है, जो अप्रत्याशित रूप से क्रांतिकारी कदम है.
पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (सिपरी) की हालिया रिपोर्ट के अनुसार 2009 से 2013 के बीच रक्षा सामग्री के आयात में भारत पहले स्थान पर था. हम अपनी सुरक्षा तकनीक में स्वावलंबी नहीं हैं. रक्षा जरूरतों से जुड़ी लगभग 60 फीसदी सामग्री बाहर से आती है. इसके कारण विदेशी मुद्रा बाहर जाती है और रोजगार की संभावनाएं खत्म हो जाती हैं. कुछ साल पहले तक चीन रक्षा सामग्री का सबसे बड़ा आयातक था, पर उसने तेजी से अपना आयात घटाया. अब वह दुनिया में चौथा सबसे बड़ा निर्यातक है. बेशक चीन आज भी बड़ा आयातक है, पर भारत से नीचे. ऐसा क्यों है, इसे समझने की जरूरत है.
भारतीय सेनाएं इस वक्त आधुनिकीकरण के दौर में हैं और यह खर्च बढ़नेवाला है. रक्षा आधुनिकीकरण की जो योजना है उसके अनुसार, अगले कुछ साल में हम तकरीबन 20 लाख करोड़ रुपये इस मद में खर्च करनेवाले हैं. 2014-15 के अंतरिम बजट में 2,24,000 करोड़ रुपये रक्षा व्यय के लिए मुकर्रर हैं. अब नयी सरकार जो बजट पेश करेगी, उसमें रक्षा व्यय की वास्तविक तसवीर सामने आयेगी.
नयी सरकार अपने काम-काज के तरीकों में बदलाव लाने की कोशिश कर रही है. सरकार ने एक झटके में ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स (जीओएम) और एम्पावर्ड ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स की परंपरा खत्म कर दी है. जीओएम की व्यवस्था भी हमें ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था से मिली है, पर उसमें ऐसे ग्रुप की जरूरत कभी-कभार पड़ती है.
ऐसे ग्रुप की शुरुआत 1989 में केंद्र में बहुदलीय सरकार बनने के बाद हुई थी. एनडीए के कार्यकाल में 32 जीओएम बनाये गये और यूपीए-1 के कार्यकाल में 40. यूपीए-2 में बने जीओएम की संख्या इससे थोड़ी ज्यादा ही थी. तमाम मसलों पर अलग-अलग राय होने के कारण आम सहमति बनाने के लिए मंत्रियों के छोटे समूहों की जरूरत महसूस हुई. इन्हें बनाने का उद्देश्य कैबिनेट की कार्यक्षमता बढ़ाना था, पर हुआ इसका उल्टा. तमाम फैसले ठप पड़ गये.
पिछली सरकार ने पिछले साल जुलाई में एफडीआइ के लिए कुछ नये कदमों की घोषणा की थी. इसमें दूरसंचार, बीमा और रक्षा उद्योग में निवेश की सीमा बढ़ाने का फैसला शामिल था. नागरिक उड्डयन, एयरपोर्ट, मीडिया और फार्मा के क्षेत्रों में निवेश बढ़ाने पर कोई फैसला फिर भी नहीं हो पाया. इन्फ्रास्ट्रर का काफी काम अधूरा पड़ा है. वाणिज्य मंत्रालय के कैबिनेट नोट में रक्षा के अलावा रेलवे, बीमा और समाचार पत्र उद्योग में भी विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाने का प्रस्ताव है. खबर यह भी है कि सरकार पर्यावरणीय बंदिशों के कारण रुकी पड़ी 80,000 करोड़ रुपये की परियोजनाओं को मंजूरी देने जा रही है.
सेना के आधुनिकीकरण पर खर्च होनेवाले 20 लाख करोड़ रुपये में से आधी रकम साजो-सामान पर खर्च होगी, पर स्वदेशी रक्षा उद्योग की मौजूदा क्षमता सिर्फ 35 हजार करोड़ रुपये वार्षिक की आपूर्ति कर पाने की है. यानी हम अपनी मौजूदा क्षमता के आधार पर स्वदेशी रक्षा सामग्री की आपूर्ति कर ही नहीं सकते. वह तब, जब उसकी तकनीक भी हमारे पास हो.
मोटा अनुमान है कि रक्षा सामग्री के स्वदेशीकरण के लिए हमें मझगांव डॉक लिमिटेड जैसे दो और संस्थानों की जरूरत होगी. इसके अलावा एचएएल जैसे तीन, भारत इलेक्ट्रॉनिक्स व भारत डायनामिक्स जैसी 4-6 नयी कंपनियों की जरूरत होगी. इसके लिए कम से कम 50 हजार करोड़ रुपये का बुनियादी निवेश फौरन करना होगा. यह सामथ्र्य न तो सरकार के पास है और न निजी क्षेत्र के पास.
भारत में विदेशी पूंजी निवेश को लेकर कई प्रकार के संदेह हैं, खासतौर से रक्षा के क्षेत्र में अंदेशे बहुत ज्यादा हैं. जबकि शेयर बाजार में लगी विदेशी पूंजी के मुकाबले कारखानों में लगी पूंजी ज्यादा सुरक्षित होती है. जिस रक्षा सामग्री को हम विदेश से खरीदते हैं, उसे विदेशी श्रम से तैयार किया जाता है, जबकि भारतीय कारखाने में बड़ी संख्या में भारतीयों को रोजगार मिलेगा. ऐसे कारखाने भारतीय पूंजीपतियों के सहयोग से भी लगाये जा सकते हैं. हम लाइसेंस के आधार पर आज भी युद्धक विमान बना रहे हैं, पर लाइसेंस के आधार पर व स्वतंत्र उत्पादन दो अलग-अलग बातें हैं. हम भारत में तैयार सामग्री का निर्यात भी कर सकते हैं. विदेशी पूंजी को भारत में निर्माण सस्ता पड़ेगा, तो वह निवेश करने को उत्साहित भी होगा. भारत का कार उद्योग इसका उदाहरण है.
इतना ही नहीं, विदेशी उपकरणों की खरीद में घोटाले भी होते हैं. ऑगस्टा वेस्टलैंड हैलीकॉप्टर व टैट्रा ट्रक विवाद उदाहरण हैं. इसके कारण विदेशी कंपनियां ब्लैक लिस्ट हो रही हैं. रक्षा में आला दर्जे की मेटलर्जी व इलेक्ट्रॉनिक्स के लिए विदेशी मदद जरूरी है. हम कर सकते हैं, इसका सबसे अच्छा उदाहरण ब्रrाोस मिसाइल है, जिसके लिए भारतीय और रूसी पूंजी से संयुक्त क्षेत्र की एक अलग कंपनी बनायी गयी. ब्रrाोस दुनिया में सबसे अनोखी है. अमेरिका के पास भी ऐसी मिसाइल नहीं है. विदेशी सहयोग से रक्षा सामग्री विकसित करने के लिए रिवर्स इंजीनियरी के कौशल की जरूरत भी है, जो काम चीन ने किया. विचित्र है कि हम विदेश में बनी सामग्री खरीदने को तैयार हैं, पर उसे अपने ही देश में बनाने की अनुमति देने में अड़ंगे लगाते हैं. अच्छा हो कि यह चलन जल्द से जल्द खत्म हो.