जनचेतना से होती है राष्ट्र की रक्षा
तरुण विजय नेता, भाजपा tarun.vijay@gmail.com यह गलतफहमी है कि सेना और बमों के भंडार से देश की रक्षा हो सकती है. यदि सेना है, पर नागरिक मूर्ख और शोर-शराबे में अपने-अपने स्वार्थों के लिए राष्ट्रहित भुला देते हैं, तो उस देश को ईश्वर भी आकर नहीं बचा सकता. सेना, नागरिकों की हिम्मत, जोश, राष्ट्रीयता और […]
तरुण विजय
नेता, भाजपा
tarun.vijay@gmail.com
यह गलतफहमी है कि सेना और बमों के भंडार से देश की रक्षा हो सकती है. यदि सेना है, पर नागरिक मूर्ख और शोर-शराबे में अपने-अपने स्वार्थों के लिए राष्ट्रहित भुला देते हैं, तो उस देश को ईश्वर भी आकर नहीं बचा सकता.
सेना, नागरिकों की हिम्मत, जोश, राष्ट्रीयता और देशभक्ति से साहस पाती है. कमजोर समाज की मजबूत सेना व्यर्थ हो जाती है, जबकि मजबूत समाज कम हथियार तथा छोटी संख्या की सेना के बावजूद जीत जाता है. इस्राइल का उदाहरण हमारे सामने है- मई 1948 में स्वतंत्र देश बनते ही उस पर चारों ओर से अरब देशों ने हमला किया, पर कई गुना बड़ी, संगठित ताकत को इस्राइल ने परास्त किया. केवल यहूदी समाज की एकजुट राष्ट्रभक्ति के कारण ऐसा हुआ.
सन् 1947 में आज ही के दिन भारत को खंडित आजादी मिली. देश बंटा, लाखों लोग बेघर हुए, नरसंहार और आगजनी, दस लाख हिंदू-सिख मारे गये. पर क्या यह हमारी प्रथम आजादी थी? क्या शिवाजी, राजेंद्र चोल, विक्रमादित्य, महाराजा रणजीत के कालखंड आजादी के कालखंड नहीं थे?
वस्तुत: सन् 1947 की आजादी, ऐसे अनेक कालखंडों के क्रम में प्राप्त स्वराज का पर्व ही कहा जा सकता है. यदि हमें अपनी पूर्व की आजादियों का स्मरण तथा उनके खोने के कारण ध्यान में नहीं होंगे, तो क्या हम वर्तमान आजादी की रक्षा कर पायेंगे?
जो समाज अपने शहीद सैनिकों का पर्याप्त सम्मान न कर पाये (काैस्तुभ राणे के सम्मान में उमड़ी भीड़ अपवाद है, बाकी शहीद सैनिकों की अंतिम यात्राएं देखी है आपने?), जहां व्यक्ति की गुणवत्ता से ज्यादा राजनीति में जाति का बोलबाला हो, जो धनवान, अहंकारी नेता जनता को खिलौना समझ चींटी की तरह उनको देखें, जहां किसान का बेटा किसान बनने से हिचकिचाये, जहां विपक्ष समग्र देश के चिंतन के बजाय हल्की भूमिका में केवल शोर और तमाशों से सत्ता में आना चाहे, वहां समाज से अजाने, अबूझे नायक पैदा होते ही हैं.
भारत की आजादी आज ऐसी ही अग्निपरीक्षा के काल से गुजर रही है. सीमाओं पर खतरे हैं- हर दिन एक खूनी संघर्ष और अल्पविराम का युद्ध हम देख रहे हैं. आंतरिक सुरक्षा, सामाजिक सद्भाव को पलीता लगानेवाले जाति-पंथ-भाषा के विस्फोटक आंदोलनों से तोड़ा जा रहा है.
कहीं मराठा आरक्षण, कहीं पटेल आरक्षण, कहीं दलितों पर दुर्भाग्यजनक हमलों का जहरीला राजनीतीकरण, कर्नाटक तथा महाराष्ट्र में लिंगायतों को अलग धर्म का दर्जा देने के आंदोलन और पंजाब के ग्रामीण क्षेत्रों में धीरे-धीरे सुलग रहा अलगाववादी खालिस्तानी लावा- ये सब देश की सुरक्षा के लिए यदि कम खतरा थे, तो उस पर एक खंडित राजनीति का विष हमारी आजादी को ग्रस रहा है. भाजपा और कांग्रेस के अलावा किसी भी राजनीतिक दल के एजेंडे में संपूर्ण भारत नहीं दिखता है. जहां उनका वोट बैंक है, वहीं उनका देश है, बल्कि सिर्फ उनके चुनावी-प्रभाव क्षेत्र तक ही उनका भारत है.
यह स्थानीयकरण ‘समग्र राष्ट्रीय’ चिंतन की धारा को जख्मी करता है. कश्मीर की चिंता नागालैंड को क्यों हो? तमिलनाडु का दर्द बिहार क्यों महसूस करे? तो फिर अखिल भारतीयता का मानस कैसे तैयार होगा? और फिर क्या दुर्बल, ‘बुद्धितंग’ कांग्रेस विपक्ष की न्यूनतम परिभाषा के अंतर्गत भी काम कर पा रही है?
इस परिदृश्य में नरेंद्र मोदी के शक्तिशाली नेतृत्व और निर्णायक क्षमता का कालखंड आशा और विश्वास की वापसी का समय कहा जायेगा.
जब सारी दुनिया में मंदी थी, तो भारत की आर्थिक विकास की दर बढ़ी, शत्रुओं पर प्रहार तीव्र हुए, डोकलाम पर बढ़ती दृढ़ता, बैंकों पर कॉरपोरेट शिकंजे को तोड़ना, लघु उद्योगों पर कॉरपोरेट टैक्स में कमी, ग्रामीण और सुदूरवर्ती सीमा क्षेत्रों को राजमार्गों- हवाई और रेल सेवा से जोड़ने के क्रांतिकारी कदम, एक देश, एक कर-व्यवस्था से राज्यों के राजस्व में वृद्धि, विश्वविद्यालयों और विशेष प्रतिभा संपन्न महाविद्यालयों, संस्थानों को यूजीसी के कालबाह्य ढांचे से मुक्ति, चिकित्सा महाविद्यालयों में प्रतिभाशाली छात्रों के प्रवेश में पारदर्शिता और सबसे बढ़कर एक आत्मविश्वास के वातावरण का सृजन कि देश के लिए अब बड़े लक्ष्य पाना संभव है.
जिन्होंने ‘चलो जीते हैं’, यह आधे घंटे की फिल्म देखी है, वे अवाक रह गये कि इस व्यक्ति के भीतर कितना बड़ा ज्वालामुखी बचपन से पलता रहा है. दलितों के प्रति क्रूर भेदभाव, गरीबी के कारण बच्चों का पढ़ने न जा पाना, आत्मकेंद्रित, आत्ममुग्ध समा का अपनी व्यक्तिगत जरूरतों के सिवाय कुछ और न सोचना न करना और उसमें से उपजता बाल सुलभ, पर सुलगता प्रश्न कि ‘हम जीते किसके लिए हैं?’ यह मन मथनेवाला प्रश्न हमारी आजादी का सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न बन गया है. हमारा जीने, कमाने, खाने, विरोधी पर आक्रमण करने का हेतु क्या है?
क्या सिर्फ इतना कि सत्ता सुख में कुछ बंदरबांट हो या फिर उनके लिए कुछ करने की जिद, जो आज भी फुटपाथ पर जिंदगी बसर करते हैं, जूठा अन्न बीनकर खाते हैं, जो कभी फल, दूध, दाल खाने या तीर्थ-पर्यटन करने का स्वप्न भी नहीं देख पाते. जब तक यह गरीब, आतंकग्रस्त, स्वतंत्र-देश में विस्थापित होने का दर्द झेलता, खेतों में प्रभु को आत्महत्या की ओर जाते देखता देश बदलता नहीं, तब तक संसद के नाटकों, झप्पियों, आंख मटकाने का बड़े-बड़े अलंकारिक व्याख्यानों, महापुरुषों की स्तुतियों का कोई अर्थ नहीं.चुनौतियां भीतरी हों या बाहरी आक्रमणों की, मूल बात नागरिकों के चैतन्य पर ही आ टिकती है.
चापलूस, जातिवादी, व्यवसाय काे देश से बड़ा माननेवाले, देश की रक्षा नहीं कर पाते. भारत यदि जीवित है, तो इसलिए, क्योंकि यहां का मानस मूलत: विद्रोही, यथास्थिति सहन न करनेवाला, बड़े लक्ष्यों के सामने छोटे विवाद और भेद भूलनेवाला रहा है.
यह भारत कालजयी और सदा विजयी है. इस भारत में वर्तमान समय उसी कठिन दौर का स्मरण कराता है, जो 1857 के बाद हमारे पूर्वजों ने झेला था. आज के भारत का जीतना, एकजुट होना, अहंकारी- धन और सत्ता के मद में चूर- राजनेताओं काे धूल चटाना और तिरंगे की आन-बान-शान बनाये रखने की पहली शर्त है.