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सत्तर के स्तर पर रुपये का अर्थ

अजीत रानाडे सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन editor@thebillionpress.org अब अमेरिकी डॉलर एवं भारतीय रुपये के बीच विनिमय दर 70 को पार कर गयी, तो अखबारों की सुर्खियों ने ‘रुपये में रिकॉर्ड गिरावट’ का शोर मचा दिया. ऐसी सुर्खियों में प्रायः एक सनसनीखेज नाटकीयता होती है, जो सियासी पार्टियों की लफ्फाजी से प्रेरित होती हैं. इनका निहितार्थ […]

अजीत रानाडे

सीनियर फेलो,

तक्षशिला इंस्टीट्यूशन

editor@thebillionpress.org

अब अमेरिकी डॉलर एवं भारतीय रुपये के बीच विनिमय दर 70 को पार कर गयी, तो अखबारों की सुर्खियों ने ‘रुपये में रिकॉर्ड गिरावट’ का शोर मचा दिया. ऐसी सुर्खियों में प्रायः एक सनसनीखेज नाटकीयता होती है, जो सियासी पार्टियों की लफ्फाजी से प्रेरित होती हैं. इनका निहितार्थ यह होता है कि जब डॉलर के मुकाबले रुपया ‘कमजोर’’ होता है, तो मानो यह राष्ट्रीय अस्मिता तथा आर्थिक शक्ति पर आघात होता है. हमारे राष्ट्रीय प्रतीक रूपी मुद्रा तथा इसकी अंतरराष्ट्रीय कीमत को कैसे कमजोर होने दिया जा सकता है?

क्या यह सरकार की विफलता नहीं है? वर्ष 2013 में कुछ इन्हीं परिस्थितियों में यूपीए सरकार की आलोचना की गयी थी और आज एनडीए सरकार की बारी आ गयी है. ऐसी दलीलें सिर्फ भावनाएं भड़काने के लिए ही हैं, जिनका आर्थिक तार्किकता से कुछ भी लेना-देना नहीं होता.

यदि हम रुपये द्वारा 70 के मनोवैज्ञानिक स्तर को पार करने की वजहों की परीक्षण करने चलें, तो यह जानना अहम होगा कि विनिमय दर एक कीमत के अलावा और कुछ भी नहीं है, जो मांग एवं आपूर्ति के हिसाब से ऊंची-नीची होती रहती है. ठीक जैसे प्रचुरता के दिनों में आलू की कीमत 5 रुपये किलो से उसकी कमी के वक्त बढ़कर 100 रुपये पर पहुंच जाती है, वही स्थिति विदेशी विनिमय के विषय में भी सत्य है.

जब डॉलर की कमी होती है, तो वह महंगा हो जाता है, जैसा अभी है और जब डॉलर बहुतायत से उपलब्ध रहता है, तो रुपये में मजबूती आ जाती है, जैसा कभी-कभी ही होता है. डॉलरों की मांग आयातकों तथा उन लोगों द्वारा की जाती है, जिन्हें निवेश अथवा ऋण के लिए विदेशी मुद्रा की दरकार है. दूसरी ओर, डॉलरों की आपूर्ति निर्यातों से आय हासिल करनेवालों तथा उन विदेशियों द्वारा होती है, जो भारत में निवेश करना चाहते हैं.

चालू खाते यानी जिंसों एवं सेवाओं के व्यापार में भारत हमेशा ही डॉलरों की कमी से जूझता है, जिसका अर्थ यह है कि हमारे आयात हमारे निर्यातों से अधिक हैं.

चालू खाते के इस घाटे के लिए खतरे का निशान जीडीपी के 3 प्रतिशत का स्तर है और वर्ष 1991 में इसी वजह से हमारे सामने मुद्रा का संकट खड़ा हो गया था. वर्ष 2013 में भी यह घाटा 5 प्रतिशत के अत्यंत खतरनाक स्तर पर पहुंच गया था, पर तब हम विदेशी विनिमय के पर्याप्त भंडार तथा कुशल वृहत आर्थिक प्रबंधन के बूते मुद्रा का संकट टाल सके थे. इस वर्ष यह जीडीपी के लगभग 2.5 प्रतिशत को पार कर जानेवाला है, जो चिंताजनक है.

आलू के साथ कमी तथा प्रचुरता की स्थितियों के विपरीत, विदेशी विनिमय के मोर्चे पर प्रायः हम तंगी का ही सामना किया करते हैं. यह भारतीय अर्थव्यवस्था तथा सरकार में विदेशी आस्था का सबूत है कि दशकों से हमारे आयात तथा निर्यात के बीच की खाई पाटने के लिए हमारे पास डॉलर चले आते हैं. सच्चाई तो यही है कि वर्ष 1991 के बाद हुए आर्थिक सुधारों के पश्चात, हमारे पास डॉलरों की जरूरत से ज्यादा आवक बनी हुई है.

विश्व के छह सर्वाधिक बड़े विदेशी विनिमय भंडार में एक भारत के पास है. इसे यहां से पूंजी पलायन अथवा विदेशी मुद्रा प्रवाह के अचानक बंद हो जाने की किसी संकटपूर्ण स्थिति का सामना करने के लिए कायम रखा जाता है. मध्यकालिक से लेकर दीर्घकालिक दौर में, डॉलर के मुकाबले रुपये का मूल्य हमेशा ही कम रहेगा, क्योंकि मुद्रास्फीति की वजह से रुपये की घरेलू क्रयशक्ति कमजोर होती जाती है.

पांच प्रतिशत मुद्रास्फीति का अर्थ यह होगा कि वर्ष के अंत तक 100 रुपये की कीमत केवल 95 रुपये ही रह जायेगी. डॉलर की दुनिया में मुद्रास्फीति की दर मात्र 1 से 2 प्रतिशत ही है. स्वभावतः, रुपये की अंतरराष्ट्रीय कीमत में इसकी घरेलू कीमत से कुछ समानता तो होनी ही चाहिए. इन दोनों मुद्रस्फीतियों के बीच का अंतर ही रुपया-डॉलर विनिमय दर की सापेक्ष ‘कमजोरी’ की दर है. डॉलर के विरुद्ध रुपये को खासी मजबूती देने की एक ही सूरत है कि हमारी मुद्रास्फीति दर अमेरिका से नीची हो जाये तथा हमारी आर्थिक एवं उत्पादकता विकास दर इतनी मजबूत हो उठे कि विदेशी निवेश हमारी ओर खिंचे चले आएं. यह संभावना अभी दूर की कौड़ी है.

रुपये में तेज गिरावट की एक वजह तुर्की के लीरा की गिरावट का व्यापक असर भी है. यह संतोष की बात है कि लीरा की बनिस्बत रुपये की गिरावट क्रमिक एवं व्यवस्थित है और यह काफी दिनों से अपेक्षित भी थी, क्योंकि मुद्रास्फीति एवं व्यापार समायोजन के हिसाब से पिछले चार वर्षों के अंतर्गत रुपया 20 प्रतिशत अधिक मजबूत हो गया था.

इसी अवधि में भारत का निर्यात विकास शून्य रहा है, जबकि चीन से यहां आयात तेजी से बढ़ा है. रुपये की तुलना में चीनी मुद्रा कमजोर हुई है, जिससे वहां से आयात को गति मिली है.

जब तक विनिमय दर का यह परिवर्तन उथल-पुथल की स्थिति की बजाय क्रमिक है, तब तक वह गंभीर चिंता का विषय नहीं होता. सस्ते आयात से दबे जा रहे निर्यातकों तथा हमारे घरेलू उद्योगों को इससे राहत ही मिलेगी. चिंता न करें, राष्ट्र की अस्मिता सुरक्षित है और किसी भी सूरत में विनिमय दर से इस पर आंच नहीं आनेवाली है.

(अनुवाद: विजय नंदन)

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