काश! अच्छे दिनों की उम्र लंबी होती

।। अखिलेश्वर पांडेय ।। प्रभात खबर, जमशेदपुर नयी दिल्ली में मोदी सरकार को काम-काज संभाले एक सप्ताह हो चुका है. इस देश के लोगों के ‘अच्छे दिन’ आये कि नहीं यह तो पता नहीं, पर इस बार इस कॉलम में एक ऐसे ‘अच्छे दिन’ की चर्चा जिससे अधिकांश लोग वाकिफ हैं. आपने गौर किया हो […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 4, 2014 5:04 AM

।। अखिलेश्वर पांडेय ।।

प्रभात खबर, जमशेदपुर

नयी दिल्ली में मोदी सरकार को काम-काज संभाले एक सप्ताह हो चुका है. इस देश के लोगों के ‘अच्छे दिन’ आये कि नहीं यह तो पता नहीं, पर इस बार इस कॉलम में एक ऐसे ‘अच्छे दिन’ की चर्चा जिससे अधिकांश लोग वाकिफ हैं. आपने गौर किया हो तो सैलरी (वेतन) मिलते ही हमारी जिंदगी कितनी खुशनुमा हो जाती है. मन मयूर नाचने लगता है, दिल में मधूर संगीत बजने लगता है. यह दुनिया कितनी हसीन लगने लगती है. बीबी-बच्चों पर कितना प्यार उमड़ने लगता है.

मोबाइल फोन में फुल टॉक टाइम का बैलेंस डलवा कर पहली फुरसत में मां-बाबूजी, भइया-भाभी, मामी-मामा, दीदी-जीजा और न जाने किस-किस रिश्तेदार समेत यार-दोस्तों से लंबी बातचीत कर उनके घर में क्या पक रहा है से लेकर कितना नमक डाला जा रहा है तक का हालचाल जान लेना आवश्यक जान पड़ता है. लगता है हम कितने ऊर्जावान हैं, कितनी जवाबदेही है हमपर. हम अधिक सजग और व्यवस्थित हो जाते हैं. इसे कहते हैं ‘अच्छे दिन’. पर यह स्थिति अधिक दिनों तक नहीं रहती. अचानक सबकुछ तेजी से बदलने लगता है.

जैसे-जैसे एकाउंट से पैसा खत्म होता जाता है, वैसे-वैसे हमारे अंदर परिवर्तन होना शुरू हो जाता है. फिर छोटी-छोटी बातें हमें परेशान करने लगती हैं. लगने लगता है कि महंगाई जरूरत से ज्यादा बढ़ गयी है. घर में बच्चों की किलकारी भी शोर का शक्ल अख्तियार कर लेती है. पत्नी की मीठी बातें भी कड़वी लगने लगती हैं और कहीं अगर कुछ खरीदने वगैरह की फरमाइश हो गयी, तो लगता है जैसे कोई ताना मार रहा हो. खाद्य वस्तुओं से सजा घर का रसोईघर और फ्रिज धीरे-धीरे खाली होने लगता है. बाहर निकलते वक्त कहीं बच्चे ने साथ जाने की जिद कर दी, तो लगता है बच्च कुछ खरीदने के लिए न कह दे. सो, बच्चे को तरह-तरह की बातों से बहलाने की जुगत लगानी पड़ती है.

मोबाइल में बैलेंस सिर्फ मिस्ड कॉल के लायक ही बचा होता है. ऐसे में अगर कोई दूसरा मिस्ड कॉल करता है, तो आप सोच सकते हैं खुद पर क्या गुजरती है. मन कुछ उचाट-सा हो जाता है. लगने लगता है कि जिम्मेदारियों का बोझ कुछ ज्यादा ही हो गया है. यह दुनिया बेरहम-सी लगने लगती है. तब बस मन में एक ही ख्याल आता है..काश! यह महीना जल्दी से खत्म हो जाये. म्यूजिक से तो जैसे चिढ़ ही हो जाती है.. लगता है किसी ने मन वीणा के तार तोड़ दिये हों. सब कुछ बेसुरा-बेलय-सा हो जाता है. यानी, अच्छे दिन शीघ्र ही बीत जाते हैं. कहानी सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने भी तो कहा ही है ‘वेतन तो पूर्णिमा के चंद्रमा की तरह है, जो महीने के हर दिन खर्चे के कारण घटता जाता है.’

कभी-कभी ख्याल आता है.. कितना अच्छा होता इन अच्छे दिनों की उम्र थोड़ी और लंबी होती. तो सबकुछ यूं ही अच्छा-अच्छा सा रहता. या कम से कम अच्छे का अहसास तो रहता.

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