लंगड़ी भिन्न जैसी होती है राजनीति

।। चंचल ।। सामाजिक कार्यकर्ता जेठ तप रहा हो, परिंदे पानी की तलाश में चोंच ऊपर किये आहट ले रहे हों कि किस बरामदे की छांव में मिट्टी की परई में पानी रख कर कौन ‘मध्या’ पति आगमन का फल लेना चाहती है. परिंदे उड़ान भर लेते हैं. जेठ की भोर और भोर की पुरवइया […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 4, 2014 5:08 AM

।। चंचल ।।

सामाजिक कार्यकर्ता

जेठ तप रहा हो, परिंदे पानी की तलाश में चोंच ऊपर किये आहट ले रहे हों कि किस बरामदे की छांव में मिट्टी की परई में पानी रख कर कौन ‘मध्या’ पति आगमन का फल लेना चाहती है. परिंदे उड़ान भर लेते हैं.

जेठ की भोर और भोर की पुरवइया बयार, चौगिर्दा खुला मैदान. नीम की छांव और मनमर्जी बतकही का सुख केवल गांव में है. सूरज की आमद हुई नहीं कि पूरा गांव आ जुटता है चौराहे पर. चाय की तलब कम, चाय पर बहस ज्यादा. चाय पर होनेवाली बहस का नशा वही जानते हैं, जो इसके आदी हैं. आज लखन कहार नीम के नीचे अधलेटे पड़े हैं.

गमछा नीम के तने और उनके सिर के बीच फंसा है. पनही पैर में ही है. उनके बगल में लाल्साहेब बैठे बीड़ी पी रहे हैं. भट्ठी का कोयला सुलग रहा है. बोफोर्स के बाप ररा नाऊ ने यूं ही पूछ लिया- ए भाई! सूरज केतना निकला? लाल्साहेब ने पूरब झांका- बस लखन कहार के घुटने तक.

कीन उपाधिया कशमशाये. उनके मर्म को चोट लगी. उन्हें लगा यह बात उन्हें ही निहार कर कही जा रही है, क्योंकि इस राजनीति में इसी चौराहे पर जब उम्मीदवार नेता आनेवाले थे, तो कीन उपाधिया ने यही भासन किया था- नया सूरज उगेगा.. बच्चों ने ताली भी बजायी थी. कीन ने लाल्साहेब को तरेरा- इतनी घटिया बात राजनेति पर? हम बोले होते, तो अब तक फौजदारी हो जाती. सूरज घुटना पे निकले लगा! आयं? लाल्साहेब की आंख गोल हो गयी- हम्मे जो दिखा सो बता दिया.

आये हैं राजनेति वाले. बाप मरा अंधियारे बेटा क नाम पावर हाउस! एक बात सुन लो लाल्साहेब, बाप क नाम लिया तो हमसे.. चिखुरी ने दोनों को रोका. गुस्सा नहीं करते. तुम घुटने से गुस्सा हो रहे हो, धूमिल ने और भी आगे कह दिया है- मैं अपने बरामदे में आराम कुर्सी पर बैठा हूं/ सूरज मेरे जूते की नोक पर डूब रहा है.. चलो चाय पियो और खुश रहो.

लाल्साहेब की आदत है बाल की खाल निकालने की. एक बात बताया जाये, यह राजनेति क्या होती है? कयूम मुस्कुराये- यह एक तरह का गणित है बच्चू! धाधा पंडित जी पढ़ा के मरे हैं. यह लंगड़ी भिन्न की तरह होता है. इसे हल करना पड़ता है. जो हल कर गया वह सिकंदर. लंगड़ी भिन्न? भोला दुबे ने पूछा. ये मांटेसरी के पढ़े हैं. कयूम ने गौर से देखा. मुस्कुराये- लिख लो नहीं तो भूल जायेगा- प्रथम ‘का’ को तोड़िए/ फिर भाग का मुख मोड़िए/ताहि पीछे गुणा करके/ऋण घटा, धन जोड़िए.

इसे जो हल कर लेता है, वही सही सच्चा राजनीति कर पाता है. नवल के पल्ले कुछ नहीं पड़ा. चिखुरी ने समझाया. लेकिन नवल समझने के लिए तैयार नहीं- अच्छा हुआ हम राजनेति में नहीं गये. कयूम को मौका मिल गया- तुम्हें जहां जाना था, वहां चले गये. आराम से रहोगे बेटा. इस गर्मी से तो बच जाओगे. नवल हंस दिये, पर जाते-जाते सुनते रहे- पहले ‘का’ को तोड़िए.. जगदंबिका पाल समेत सौ से अधिक कांग्रेसी की ‘कोष्टक’ को तोड़ दिया. कांग्रेस की समाजवादी नीतियों को लगातार भाग देता रहा.

उत्तेजक नारों का गुणा फिट बैठाया. आडवानी जसवंत को ऋण में डाल कर पासवानों को जोड़ कर लंगड़ी भिन्न हल कर गया. बात चलती ही जा रही थी, लेकिन ट्रैक्टर की आवाज ने सब दबा दिया और भोर जवानी की ओर बढ़ गयी. हवा बंद हो गयी और तपिश बढ़ गयी. लोग घर चले गये, लेकिन दुपहरिया कहां जाती?

जेठ तप रहा हो, परिंदे पानी की तलाश में चोंच ऊपर किये आहट ले रहे हों कि किस बरामदे की छांव में मिट्टी की परई में पानी रख कर कौन ‘मध्या’ पति आगमन का फल लेना चाहती है. परिंदे उड़ान भर लेते हैं. बरामदे में लटके बांस पर बैठ कर टोह लेते हैं, परई के शीतल जल में करुणा है कि बहेलिये का खेल? गौरइया चुलबुली है, दादी की चहेती है. चावल बीनते समय दादी के बिलकुल बगल बैठ कर खाती रही है, भला उसकी बहू बहेलिया कैसे हो सकती है.

झपट्टा मार कर सीधे परई की पानी को छू आती है. शीतल है. सोंधा है. अपने बच्चे को बताती है और पूरा कुनबा परई की बारी पर बैठ जाता है. सुख बहू को मिलता है. पल भर के लिए भूल जाती है उसका पति ‘परदेस’ कमा रहा है. आने को कह गया था. कब आयेगा? हे गौरी! हमने तुम्हारी प्यास बुझायी है, हमारी आस कब पूरी होगी? उसकी आंख डबडबा आयी.

बुलबुल शैतान है – बात कर लो, बात कर लो.. बोलते-बोलते पानी तक आ गयी. बहू कुढ़ जाती है. मन में बुदबुदाती है- कहां से बात कर लें, महीनों से बिजली नहीं है. मोबाइल तक तो चार्ज नहीं है, खाक बात कर लूं. दखिनी छोर का बरामदा परिंदों से भर जाता है. और पानी देना पड़ेगा.. पानी.. प्यास.. तृप्ति.. दादा के बड़के कटोरा को पानी से भर दिया. परिंदे पानी पी रहे हैं, नहा रहे हैं ठीक कोलई दुबे की तरह नाक पकड़ कर. जिस तरह कोलई गांव के पोखर में दुबकी लगाते हैं ठीक उसी तरह. बहू कब सो गयी पता ही नहीं चला. नींद खुली तो बाहर के बरामदे में शोर हो रहा था. बजरंगी शतरंज जीत गये थे, उनका पैदल वजीर बन चुका था. चिखुरी मुस्कुरा रहे थे- पैदल से फर्जी भयो, टेढ़ो- टेढ़ो जाये.. अगली बाजी कल सजेगी. बहू! गुड़ भेजो, पानी पीया जाये..

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