तालिबान की ताकत में फंसी कूटनीति
।। पुष्परंजन ।। ईयू एशिया न्यूज के नयी दिल्ली संपादक पांच बड़े तालिबान नेताओं को ग्वांतानामो बे से आजाद कर अमेरिका ने अच्छा किया या बुरा, इस पर बहस शुरू है. लेकिन, हेरात में भारतीय एनजीओ कर्मी को अगवा किये जाने से यह बात सिद्ध हो चुकी है कि राष्ट्रपति हामिद करजई कुछ कर पाने […]
।। पुष्परंजन ।।
ईयू एशिया न्यूज के
नयी दिल्ली संपादक
पांच बड़े तालिबान नेताओं को ग्वांतानामो बे से आजाद कर अमेरिका ने अच्छा किया या बुरा, इस पर बहस शुरू है. लेकिन, हेरात में भारतीय एनजीओ कर्मी को अगवा किये जाने से यह बात सिद्ध हो चुकी है कि राष्ट्रपति हामिद करजई कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं हैं.
शुक्रवार, 30 मई को भारत की विदेश सचिव सुजाता सिंह हेरात में भारतीय वाणिज्य दूतावास की सुरक्षा व्यवस्था का जायजा लेने गयी थीं. उन्होंने काबुल में करजई के अलावा राष्ट्रपति चुनाव लड़नेवाले दोनों प्रत्याशियों अब्दुल्ला अब्दुल्ला और अशरफ गनी अहमदजई से भेंट की, और भारतीयों की सुरक्षा पर बात भी की.
लेकिन भारतीय विदेश सचिव के इस दौरे के 72 घंटे भी पूरे नहीं हुए थे कि हेरात में एक भारतीय अगवा कर लिया गया. अगवा किया गया व्यक्ति एक एनजीओ ‘जेसुइट रिफ्यूजी सर्विस’ का ‘कंट्री हेड’ प्रेम कुमार बताया गया है, जो हेरात के सोहादात गांव में एक स्कूल का निरीक्षण करने गया था. अपहरण करनेवाले क्या तालिबान के लोग हैं? इस प्रश्न पर भारतीय विदेश मंत्रालय चुप है. बस इतना संकेत मिला है कि अपहर्ताओं के संपर्क सूत्रों से रिहाई की बात चल रही है.
दस दिनों के भीतर भारत के विरुद्ध दो घटनाओं से तालिबान क्या संदेश देना चाहता है, इस पर नयी दिल्ली को सोचने की जरूरत है. कहीं ऐसा तो नहीं कि तालिबान, भारत के नये निजाम से बातचीत चाहता है? पहली घटना मोदी के शपथ से तीन दिन पहले, 23 मई को हेरात स्थित भारतीय वाणिज्य दूतावास पर हमले की थी, जिसमें चार हमलावर मारे गये थे. शायद अतिवादी इस कार्रवाई के जरिये यह कहना चाहते थे कि राष्ट्रपति हामिद करजई, मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में न जाएं. यह बात ध्यान में रखने की जरूरत है कि 2008 और 2009 में काबुल स्थित भारतीय दूतावास पर हुए हमलों में 75 लोग मारे गये थे.
अफगानिस्तान में एक और कहानी साथ-साथ चल रही है. 28 साल के अमेरिकी सार्जेट बोव बेर्गडेल की रिहाई के बदले पांच बड़े तालिबान नेताओं को ग्वांतानामो बे से आजाद कर अमेरिका ने अच्छा किया या बुरा, इस सवाल पर दुनियाभर में बहस शुरू है. करजई के हिसाब से यह बुरा हुआ है. इसमें अंतरराष्ट्रीय नियमों की अवहेलना हुई है. लेकिन, कैदियों के आदान-प्रदान के 24 घंटे के भीतर हेरात में भारतीय एनजीओ कर्मी को अगवा किये जाने की घटना से यह बात सिद्ध हो चुकी है कि राष्ट्रपति हामिद करजई कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं हैं.
जिस देश के राष्ट्रपति और उसकी खुफिया एजेंसियों को इसका पता तक नहीं हो कि उनके खोस्त प्रांत में शनिवार सात बजे अमेरिकी सार्जेंट बोव बेर्गडेल की रिहाई हो रही है, उनसे आप क्या उम्मीद करेंगे? सार्जेंट बोव बेर्गडेल को जैसे ही अमेरिकी स्पेशल फोर्स के सुपुर्द किया गया, ठीक उसी समय क्यूबा के कुख्यात अमेरिकी कारा ग्वांतानामों बे में संकेत गया कि पांचों तालिबान कैदी छोड़ दिये जाएं. उनकी रिहाई के लिए मध्यस्थ, कतर सरकार के प्रतिनिधि ग्वांतानामों खाड़ी में थे. पांचों तालिबान कैदी रिहा कराकर दोहा लाये गये. कतर की राजधानी दोहा में ‘पॉलिटिकल ब्यूरो ऑफ अफगान तालिबान’ और ‘लीड कौंसिल ऑफ इसलामिक एमरैट’ के सदस्य गले मिले, और माहौल जश्न में बदल गया.
पेंटागन ने इस पूरी कार्रवाई को अमेरिकी कांग्रेस तक से छुपा कर रखा था. ऐसी कार्रवाई के लिए संसद को 30 दिन पहले सूचित करना होता है. अमेरिकी राष्ट्रपति यही जताना चाहते हैं कि उनका नागरिक, उनके लिए कितना अहम है. सार्जेंट बोव एकमात्र अमेरिकी सैनिक था, जो पिछले पांच वर्षो से तालिबान की कैद में था. तालिबान नेता मुल्ला उमर ने इसे एक बड़ी जीत बताया है. 11 सितंबर, 2001 के बाद से भूमिगत मुल्ला उमर ने पहली बार सार्वजनिक बयान दिया है. मुल्ला उमर के बयान का यही विेषण किया जा रहा है कि तालिबान फिर से 2001 से पहले की भूमिका में आना चाहता है.
यों, 14 जून को दूसरे दौर के मतदान के बाद तय हो जायेगा कि अफगानिस्तान की सत्ता अब्दुल्ला अब्दुल्ला के हाथ में होगी, या अशरफ गनी अहमदजई के. करजई राष्ट्रपति की कुर्सी छोड़ने के बाद कितने प्रभावी रह जाते हैं, इस सवाल का उत्तर भी इसी महीने मिल जायेगा. अमेरिका 2016 तक अपने एक हजार सैनिक अफगानिस्तान में रखेगा, ओबामा इसकी घोषणा कर चुके हैं. डॉ अब्दुल्ला अब्दुल्ला अमेरिका से सुरक्षा समझौता करने को तैयार हैं. लेकिन जिस तरह पिछले दो साल के भीतर तालिबान नेता कैद से रिहा किये गये, उससे उसकी बढ़ती ताकत का अंदाजा लगाया जा सकता है. फरवरी, 2014 में ही करजई ने 65 तालिबान कैदियों को रिहा किया था.
तब अमेरिकी सेना ने इसका प्रतिरोध करते हुए कहा था कि यह ‘खतरनाक’ है. अब जब अमेरिका ने पांच तालिबान कैदियों को ग्वांतानामों से रिहा किया, तो करजई इसे ‘खतरनाक’ मान रहे हैं. कहना मुश्किल है कि तालिबान नेताओं से कौन-कौन सुलह-सपाटे कर रहा है. पाकिस्तान की सेना और सरकार, तहरीके तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) से अपने देश में दो-दो हाथ कर रही है, लेकिन उन्हें इसकी भी फिक्र है कि तालिबान, फिर से ‘इसलामी एमीरात ऑफ अफगानिस्तान’ को वजूद में ले आये. उसके लिए उसे सीमा पार से मदद दी जा रही है.
भारत चाह कर भी तालिबान के बढ़ते प्रभाव को रोक पाने की स्थिति में नहीं है. भारत इस दुविधा से गुजर रहा है कि वह तालिबान का दोस्त बने, या रकीब. शायद, संबंध ठीक रखने की नीयत से नवंबर, 2013 के पहले हफ्ते में तालिबान नेता अब्दुल सलीम जईफ को गोवा आने के लिए वीजा दिया गया. मुल्ला उमर का बेहद करीबी अब्दुल सलीम जईफ को किस रणनीति के तहत भारत आने दिया गया, यह बातें गृह मंत्रालय के गलियारों से बाहर नहीं निकलीं. बस इतनी सी बात बाहर आयी कि हमारी खुफिया एजेंसियां अब्दुल सलीम जईफ से ‘बिरयानी पर चर्चा’ इसलिए चाहती थीं, ताकि अफगानिस्तान में अपनी रणनीति तय कर सकें. भारत ने अफगानिस्तान में जो साढ़े बारह अरब डॉलर खर्च किये, उन परियोजनाओं को भी बचाये रखना है.
दोहा इस समय तालिबान का ‘कूटनीतिक एपीसेंटर’ है. जून, 2013 में दोहा में तालिबान का ‘राजनीतिक कार्यालय’ खुलने और उसके ध्वज के लहराने पर करजई को आपत्ति थी. तब तालिबान ने कहा था कि विध्वंस में माहिर करजई, बिल्कुल नहीं चाहते कि अमेरिका से हमारे संबंध ठीक हों. कतर के अमीर, शेख तमीम बिन हमद अल-थानी से यदि नयी दिल्ली की दोस्ती बढ़ती है, तो इससे तालिबान से संबंध ठीक रखने में मदद मिलेगी. ग्वातानामों से पांच कै.दियों की रिहाई के बाद कतर के अमीर की साख तालिबान नेताओं के बीच काफी बढ़ी है. 2001 तक अफगानिस्तान की सत्ता में रहा एक आंख वाला मुल्ला उमर, भारत को फूटी आंख नहीं सुहाता था. अब इसी मुल्ला उमर को चश्मे-बद्दूर कहना क्या हमारी कूटनीतिक समझदारी होगी?