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अपराधमुक्त हो राजनीति

राजनीति के अपराधीकरण की समस्या के समाधान के प्रयास कारगर नहीं हो सके हैं. न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के आपसी उलझाव के कारण आधे-अधूरे मन से उपाय किये जाते रहे हैं. इस मामले में फिर सरकार और न्यायालय में टकराव और तकरार की स्थिति बनी है. राजनीति में अपराधियों के प्रवेश को रोकने से संबद्ध […]

राजनीति के अपराधीकरण की समस्या के समाधान के प्रयास कारगर नहीं हो सके हैं. न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के आपसी उलझाव के कारण आधे-अधूरे मन से उपाय किये जाते रहे हैं.

इस मामले में फिर सरकार और न्यायालय में टकराव और तकरार की स्थिति बनी है. राजनीति में अपराधियों के प्रवेश को रोकने से संबद्ध एक जनहित याचिका की सुनवाई में सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय खंडपीठ ने कहा है कि चुनाव आयोग को न्यायालय निर्देश दे सकती है.

इसके तहत चुनाव आयोग के आदेश पर राजनीतिक दलों को अपने उम्मीदवारों पर चल रहे आपराधिक मामलों की जानकारी सार्वजनिक करनी होगी ताकि विभिन्न दलों में दागियों की मौजूदगी के बारे में जान सकें. परंतु, इस अदालती टिप्पणी पर सरकार का पक्ष है कि लोकतंत्र में न्यायापालिका, विधायिका और कार्यपालिका के बीच शक्तियों का स्पष्ट बंटवारा है और निर्वाचित प्रतिनिधियों को अयोग्य ठहराने का अधिकार सिर्फ विधायिका के पास है.

यह तर्क सही है, लेकिन हर चुनाव के साथ गंभीर होती जा रही समस्या का समाधान की राह तो निकालनी ही होगी? साल 1977 में नेशनल पुलिस कमीशन ने रेखांकित किया था कि राजनीतिक दल चुनावों के वक्त मतदाताओं को अपने पाले में लाने की कोशिश में ‘बाहुबलियों’ और ‘गुंडा-तत्वों’ का इस्तेमाल करते हैं. चार दशक बाद आज न सिर्फ लोकसभा और विधानसभाओं और लोकसभा में आपराधिक पृष्ठभूमि के जन-प्रतिनिधियों की संख्या बढ़ी है, बल्कि चुनावों में दागी उम्मीदवारों की तादाद में भी इजाफा होता जा रहा है.

साल 2004 के लोकसभा चुनाव में आपराधिक पृष्ठभूमि के निर्वाचित प्रतिनिधियों की संख्या सांसदों की कुल संख्या का 24 फीसदी थी. यह आंकड़ा 2009 में 30 फीसदी और 2014 में 34 फीसदी तक पहुंच गया. मौजूदा लोकसभा के 21 फीसदी सदस्यों पर हत्या, अपहरण, महिला उत्पीड़न जैसे गंभीर किस्म के अपराध के मामले दर्ज हैं.

इन तथ्यों से यही इंगित होता है कि राजनीति को अपराधमुक्त करने के उद्देश्य से अब तक किये गये उपाय कामयाब साबित नहीं हुए हैं. डेढ़ दशक पहले सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के अनुरूप चुनाव आयोग ने उम्मीदवारों के लिए शैक्षिक, वित्तीय तथा आपराधिक पृष्ठभूमि संबंधी जानकारी सार्वजनिक करना अनिवार्य किया था.

लेकिन इस प्रतीकात्मक पहल का कोई विशेष सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा. एक जनहित याचिका की सुनवाई के क्रम में सरकार एक हलफनामे के जरिये अदालत में कह चुकी है कि दोषी करार दिये गये व्यक्ति को वह राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने से नहीं रोक सकती है.

ऐसे में जरूरी है कि राजनीति के अपराधीकरण की इस जटिल समस्या के समुचित हल के लिए व्यापक राष्ट्रीय सहमति बने. सियासी जमातों के साथ समाज और मीडिया को भी सक्रिय होना होगा.

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