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चिंताजनक व्यापार घाटा

आयात और निर्यात के बढ़ते फासले के कारण आशंका जतायी जा रही है कि मौजूदा वित्त वर्ष में चालू खाता घाटा सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) के 2.7 फीसदी तक पहुंच सकता है. नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने भी इसे रुपये की गिरती कीमत की तुलना में अधिक चिंताजनक बताया है. रिजर्व बैंक के […]

आयात और निर्यात के बढ़ते फासले के कारण आशंका जतायी जा रही है कि मौजूदा वित्त वर्ष में चालू खाता घाटा सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) के 2.7 फीसदी तक पहुंच सकता है.

नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने भी इसे रुपये की गिरती कीमत की तुलना में अधिक चिंताजनक बताया है. रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने भी गंभीर होते व्यापार युद्ध और अमेरिका द्वारा ब्याज दरों में कटौती के माहौल में इस मुश्किल की ओर ध्यान दिलाया है.

वर्ष 2017-18 में वस्तु व्यापार घाटा 161 बिलियन डॉलर के स्तर पर पहुंच गया था, जबकि 2016-17 में यह सौ बिलियन डॉलर के करीब रहा था. पिछले वित्तीय वर्ष का यह घाटा 2012-13 के बाद सर्वाधिक है. हालांकि, तेल की खरीद व्यापार घाटे का बड़ा हिस्सा है, पर मौजूदा घाटे में मुख्य कारक नहीं है.

साल 2013-14 में तेल की औसत कीमतें 2017-18 की तुलना में दुगुनी से भी अधिक थीं, पर तब व्यापार घाटा 134 बिलियन डॉलर ही रहा था. भारत सोने-चांदी का बड़ा आयातक है, पर इसका असर भी घाटे में कम ही है. साल 2011-12 में सोने-चांदी की सबसे ज्यादा खरीद (61.4 बिलियन डॉलर) हुई थी, पर 2017-18 में यह तब की तुलना में 60 फीसदी (36.9 बिलियन डॉलर) ही रही थी.

ऐसे में घाटे में वृद्धि तेल और सोने-चांदी से इतर वस्तुओं के आयात के बढ़ने से हो रही है. साल 2013-14 में इस श्रेणी में व्यापार घाटा सिर्फ 0.4 बिलियन डॉलर रहा था, जो पिछले वित्त वर्ष में 53.3 फीसदी के स्तर तक पहुंच गया. बीते सालों में हमारे आयात की मात्रा तेजी से बढ़ रही है, पर निर्यात में मामूली इजाफा हो रहा है.

आयात में तेज उछाल के कारण इस साल जुलाई में मासिक व्यापार घाटा पांच साल का रिकार्ड तोड़ते हुए 18.02 बिलियन डॉलर तक जा पहुंचा. साल 2013-14 और 2017-18 के बीच तेल को छोड़कर अन्य वस्तुओं का निर्यात 252 डॉलर बिलियन से बढ़कर महज 266 डॉलर बिलियन हुआ है, यानी सालाना वृद्धि दर सिर्फ 1.36 फीसदी रही है.

इसके बरक्स बीते दो वित्त वर्ष के अंतराल में आयात बढ़ने का आंकड़ा 19.59 फीसदी रहा है. यदि आयात में तेजी पूंजीगत चीजों की वजह से हुई होती, तो व्यापार घाटा चिंता का सबब नहीं होता. लेकिन हमारा विकास निवेश के बजाय उपभोग पर आधारित रहा है. अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के कारण चालू खाता घाटा की वित्तीय भरपाई भी मुश्किल ही है. उभरती अर्थव्यवस्थाओं की मुद्राएं उतार-चढ़ाव के दौर से गुजर रही हैं.

व्यापार युद्ध के दायरे में अन्य बाजारों के आने की प्रक्रिया भी शुरू हो चुकी है. चीन से बढ़ते आयात पर संसदीय समिति ने भी चिंता जाहिर की है और नीति आयोग की सलाह भी निर्यात बढ़ाने पर जोर देने की है. हालांकि, अर्थव्यवस्था की बढ़त बरकरार है, पर सरकार और रिजर्व बैंक को तेल की बढ़ती कीमतों और अमेरिकी आर्थिक नीतियों के बरक्स चौकस रहने की जरूरत है.

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