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गौरैया को बचाने का प्रयास!

रमेश ठाकुर पत्रकार ramesht2@gmail.com विगत कुछ वर्षों से गौरैया को बचाने के लिए सामाजिक और सरकारी स्तर पर बड़े प्रयास किये गये. पर नतीजा निल बटे सन्नाटा ही रहा. स्थिति यह है कि गौरैया की प्रजाति अब इतिहास बनने के करीब पहुंच गयी है. पर्यावरण पर शोध करनेवाली एक रिपोर्ट बताती है कि देश में […]

रमेश ठाकुर

पत्रकार

ramesht2@gmail.com

विगत कुछ वर्षों से गौरैया को बचाने के लिए सामाजिक और सरकारी स्तर पर बड़े प्रयास किये गये. पर नतीजा निल बटे सन्नाटा ही रहा. स्थिति यह है कि गौरैया की प्रजाति अब इतिहास बनने के करीब पहुंच गयी है.

पर्यावरण पर शोध करनेवाली एक रिपोर्ट बताती है कि देश में गौरैया की संख्या लगातार कम हो रही है. करीब छह साल पहले दिल्ली सरकार ने गौरैया को राज्य पक्षी घोषित कर उसके संरक्षण के लिए कई कदम उठाये थे. उसका भी नजीता शून्य ही रहा. अगर गौरैया लुप्त होती है, तो उसके साथ घरेलू पक्षियों का एक युग भी समाप्त हो जायेगा.

गौरैया से हमें प्रथम परिचय 1851 में अमेरिका के ब्रुकलिन इंस्टीट्यूट ने कराया था. बड़े दुख की बात है कि हर कहीं दिख जानेवाली और चहचहानेवाली गौरैया अब रहस्यमय पक्षी बनती जा रही है. चुलबुल, मनमोहक और फुर्तीली गौरैया को हमेशा शरदकालीन एवं शीतकालीन फसलों के दौरान, खेत-खलिहानों में फुदकते देखा जाता था.

भारत के अलावा गौरैया पूरे विश्व में तेजी से दुर्लभ एवं रहस्यमय होती जा रही है. साल 2005 में बीएनएचएस सर्वेक्षण की रिपोर्ट ने गौरैया की कम हो रही संख्या का प्रतिशत 97 बताया था. आज के समय में पक्के मकान, लुप्त होते बाग-बगीचे, खेतों में कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग तथा भोज्य-पदार्थ स्रोतों की उपलब्धता में कमी आदि इनकी घटती आबादी के प्रमुख कारक हैं.

लेखक डाॅ सालिम अली ने अपनी पुस्तक ‘इंडियन बर्ड्स’ में गौरैया का वर्णन भगवान की निजी भस्मक मशीन के रूप में किया है, जिसकी जगह मानव के आविष्कार से बनी कृत्रिम मशीन कभी नहीं ले सकती है.

गौरैया केवल भारत से ही नहीं, बल्कि अनेक देशों से भी लुप्त हो रही है.

पौराणिक कथाओं में गौरैया की तुलना युगल प्रेमियों से की जाती है, क्योंकि गौरैया सदा जोड़े में दिखती हैं. इनका आकार और आकाश में उड़ने की उनकी क्षमता जैसी विशेषताएं ही उन्हें जोड़ा बनाने, प्रेम के सूत्र में बंधने, एक-दूसरे को सुरक्षा और प्यार देने में सहायक होती हैं. लेकिन, अब घर के बाहर चिड़ियों का उछलना और उनका चहचहाना किसी को शायद ही दिखायी पड़ता हो.

मुझे इस वक्त महादेवी वर्मा की कहानी ‘गौरेया’ याद आ रही है, जिसमें गौरया उनके हाथ से दाना खाती है, उनके कंधों पर उछलती-कूदती है और उनके साथ लुक्का-छिपी खेलती है. आज हर कोई चाहता है कि गौरेया महादेवी वर्मा की कहानी में सिमटकर न रह जाये, बल्कि वह हमारे नगरों-शहरों में पहले की तरह वापस आ जाये. केंद्र सरकार ने अप्रैल, 2006 में भारत में चिड़ियों के संरक्षण के लिए एक कार्ययोजना की घोषणा की थी.

चरणबद्ध ढंग से डाइक्लोफेनेक का पशुचिकित्सीय इस्तेमाल पर रोक तथा चिड़ियों के संरक्षण और प्रजनन केंद्र की भी घोषणा की थी, पर नतीजा कुछ खास नहीं निकला. योजनाओं की उदासीनता का ही कारण है कि गौरैया अब धीरे-धीरे हमारे बीच से दुर्लभ पक्षी होती जा रही है.

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