महात्मा गांधी ने कहा था कि धरती हर एक व्यक्ति की जरूरत को पूरा कर सकती है, लेकिन किसी एक के भी लालच को नहीं. आज विश्व पर्यावरण दिवस के मौके पर पूरी दुनिया को पर्यावरण के संकटों पर विचार की जरूरत है, क्योंकि यह मसला किसी एक देश का नहीं है. अगर जलवायु परिवर्तन एवं वैश्विक उष्मा में बढ़ोतरी से ध्रुवीय प्रदेशों में ग्लेशियरों के पिघलने में अस्वाभाविक तेजी आती है, तो दूर-दराज के समुद्र तटीय इलाकों के डूबने का खतरा बढ़ जायेगा.
इस बढ़ती गर्मी का कारण विकसित देशों में जीवाश्म ईंधनों की भारी खपत भी हो सकता है और भारत या चीन में खेतों में अधिक पानी का इस्तेमाल भी. निश्चित रूप से विकसित देशों को इस मामले में बढ़-चढ़कर पहल करनी होगी, लेकिन भारत जैसे देशों को भी अपनी जिम्मेवारी निभाने से पीछे नहीं हटना चाहिए. 1972 से हर साल 5 जून को मनाये जा रहे विश्व पर्यावरण दिवस की कड़ी में 2014 को छोटे द्वीपीय देशों का अंतरराष्ट्रीय वर्ष घोषित किया गया है. कारण यह है कि समुद्री जलस्तर के बढ़ने से अनेक द्वीपों के डूबने का खतरा आसन्न है.
हमारे देश में भी मॉनसून की अनियमितता, बाढ़ व सूखे का संकट, भू-गर्भीय जल स्तर में निरंतर होती कमी, शहरों में बढ़ते वायु प्रदूषण आदि पर्यावरण को लेकर सचेत होने की गुहार कर रहे हैं. शोध संस्था टेरी के ताजा सर्वे के अनुसार 90 प्रतिशत से अधिक शहरी हर साल गर्मी में वृद्धि का अनुभव करते हैं और मानते हैं कि पानी की बरबादी एक सच्चाई है. 88 प्रतिशत लोग मानते हैं कि कूड़ा-कचरा का सही तरह से निपटारा नहीं होने से गंभीर बीमारियां फैल रही रही हैं. 97 फीसदी लोग प्लास्टिक के थैलों पर पाबंदी के पक्ष में हैं.
हालांकि बड़ा सवाल यह है कि विकास की जरूरत और पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन कैसे स्थापित हो? केंद्र सरकार ने संकेत दिया है कि वह पर्यावरण-संबंधी लंबित आवेदनों का तेजी से निपटारा करेगी, ताकि रुकी पड़ी परियोजनाएं शुरू हो सकें. लेकिन सरकार को पहले यह सोचना चाहिए कि कहीं तात्कालिक लाभ के चक्कर में दीर्घकालिक हानि न उठाना पड़े. विकास के साथ विवेक का होना ही पर्यावरण संरक्षण की गारंटी है. इसके लिए वैकल्पिक ऊर्जा तथा प्राकृतिक संसाधनों का समुचित इस्तेमाल ही एकमात्र रास्ता है.