पटरी पर अर्थव्यवस्था

चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही यानी अप्रैल और जून के बीच सकल घरेलू उत्पादन की दर 8.2 फीसदी रही है. इस बढ़त में मुख्य योगदान मैन्युफैक्चरिंग, निर्माण और कृषि क्षेत्रों का रहा है. विभिन्न घरेलू एवं बाहरी कारणों से बीते कुछ समय से अर्थव्यवस्था में लगातार हलचल है. इस पृष्ठभूमि में वृद्धि दर का […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 2, 2018 11:30 PM

चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही यानी अप्रैल और जून के बीच सकल घरेलू उत्पादन की दर 8.2 फीसदी रही है. इस बढ़त में मुख्य योगदान मैन्युफैक्चरिंग, निर्माण और कृषि क्षेत्रों का रहा है. विभिन्न घरेलू एवं बाहरी कारणों से बीते कुछ समय से अर्थव्यवस्था में लगातार हलचल है.

इस पृष्ठभूमि में वृद्धि दर का आठ फीसदी से ऊपर जाना एक अहम उपलब्धि है और इसका श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्र सरकार द्वारा उठाये गये अनेक कदमों को जाता है. यह आकड़ा यह भी इंगित करता है कि नोटबंदी और जीएसटी जैसे बड़े फैसलों की वजह से पैदा हुई मुश्किलों के बादल भी छंट गये हैं. इन दो पहलों ने अर्थव्यवस्था के बड़े हिस्से को औपचारिक आर्थिक गतिविधियों के दायरे में लाने में बड़ी कामयाबी हासिल की है.

भले ही अलग-अलग कारकों के चलते बैंकों में जमा राशि और कर राजस्व की वसूली अपेक्षित स्तर पर नहीं हैं, परंतु आबादी का बहुत बड़ा भाग आज बैंकिंग प्रणाली से जुड़ा है तथा अपनी आय और अपने कारोबार का ब्योरा देनेवालों की तादाद बढ़ी है. अगर हम पिछली पांच तिमाहियों में जीडीपी का रुझान देखें, तो इसमें बढ़ोतरी ही होती रही है.

ये आंकड़े इस प्रकार हैं- 5.6, 6.3, 7.0, 7.7 और 8.2 फीसदी. मोदी सरकार की आर्थिक उपलब्धियों का आकलन करते समय यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि उसे विरासत में कैसी अर्थव्यवस्था मिली थी. बैंकों पर आज जो फंसे हुए कर्जों का भारी बोझ है, इसके तार भी पिछली सरकार के दौर से जुड़े हैं. साल 2008 में 18 लाख करोड़ रुपये के कर्ज दिये गये थे. साल 2014 में यह राशि 52 लाख करोड़ रुपये तक जा पहुंची थी. इसमें अगर फंसे कर्जों का आकलन करें, तो यह डेढ़ ट्रिलियन डॉलर की तत्कालीन अर्थव्यवस्था का करीब 12 फीसदी हिस्सा है.

यह अर्थव्यवस्था पर ग्रहण जैसा था और इस संदर्भ में प्रधानमंत्री का यह कहना बिल्कुल उचित है कि उन्हें बारूद के ढेर पर रखी अर्थव्यवस्था की जिम्मेदारी मिली थी. कोई भी आर्थिक विशेषज्ञ इस सच्चाई को खारिज नहीं कर सकता है कि खरबों के कर्जों की बंदरबांट में बेईमानी, सांठगांठ, घपले जैसे तत्व शामिल थे.

यह सही है कि वर्तमान सरकार इस लेन-देन पर अत्यधिक कठोर रुख अपना सकती थी और फंसे कर्जों में बीते सालों की बढ़त को रोक सकती थी, पर यह भी स्वीकार करना होगा कि बैंकों की सेहत की बेहतरी के लिए अनेक जरूरी पहलें हुई हैं. कर्जों की वसूली के कड़े नियम बने हैं, रिजर्व बैंक को ज्यादा अधिकार मिले हैं और भ्रष्ट जोड़-तोड़ का सिलसिला थमा है.

दिवालिया होने से जुड़े कानून से अक्षम और हेराफेरी में लिप्त उद्योगपतियों को हाशिये पर डालने की प्रक्रिया शुरू हुई है. रुपये की गिरती कीमत, निर्यात में ठहराव और निवेश में कमी जैसी चुनौतियां हैं, पर अर्थव्यवस्था के मजबूत होते जाने के क्रम में उनका सामना करना बहुत मुश्किल नहीं होना चाहिए.

Next Article

Exit mobile version