आ मेरे मेघा पानी दे

क्षमा शर्मा वरिष्ठ पत्रकार kshamasharma1@gmail.com वे मेघ, जो न जाने कितने कवियों, लेखकों, चित्रकारों, संगीतकारों का मन मोहते हैं, मेघदूत लिखने को प्रेरित करते हैं, जीवन को आधार देते हैं, फसलों के लिए जरूरी होते हैं, वे ही जब मूसलाधार बरसते हैं, तो बाढ़ की आफत आती है, जिससे निबटते-निबटते आदमियों का तो क्या, सरकारों […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 5, 2018 7:55 AM
क्षमा शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार
kshamasharma1@gmail.com
वे मेघ, जो न जाने कितने कवियों, लेखकों, चित्रकारों, संगीतकारों का मन मोहते हैं, मेघदूत लिखने को प्रेरित करते हैं, जीवन को आधार देते हैं, फसलों के लिए जरूरी होते हैं, वे ही जब मूसलाधार बरसते हैं, तो बाढ़ की आफत आती है, जिससे निबटते-निबटते आदमियों का तो क्या, सरकारों का भी दम फूल जाता है.
अपने देश में इस वक्त इतनी बारिश हो रही है कि जगह-जगह बाढ़ आ रही है. लाखों-करोड़ों का नुकसान हो रहा है, घर उजड़ रहे हैं. लोग बेघर-बार हो रहे हैं.
सड़कों पर, नदियों-नालों में बहते और बेकार जाते इतने पानी को देखकर हूक सी उठती है. एक ओर पानी की किल्लत हो रही है, लोग पानी के लिए त्राहि-त्राहि कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर ऐसा कोई इंतजाम नहीं कि आसमान से बरसती इस अमूल्य धरोहर को संभालकर रखा जा सके, सहेजा जा सके.
पानी के संरक्षण के लिए जीवन लगा देनेवाले मशहूर पर्यावरणविद अनुपम मिश्र कहा करते थे कि राजस्थान में जहां बहुत कम बारिश होती है, वहां लोगों ने एक-एक बूंद पानी को सहेजने के लिए लोगों खुद के प्रयासों से इतने इंतजाम कर रखे हैं, तो बाकी देश में ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता है. उन्होंने अपनी दो अनोखी किताबों- ‘आज भी खरे हैं तालाब’ और ‘राजस्थान की रजत बूदें’ में इसका विस्तार से जिक्र किया है.
कैसी विडंबना है कि अपने देश में इतनी नदियां हैं कि वे पूरे देश के पानी की जरूरत पूरी कर सकती हैं. मगर एक तो उद्योग और हमारी लापरवाही ने उनका पानी इतना प्रदूषित कर दिया है कि वे कराह रही हैं. गंगा-यमुना की सफाई को लेकर वर्षों से प्रयास किये जा रहे हैं. हमारे परंपरागत जल संसाधन और स्रोत जैसे कि कूएं, तालाब, बावड़ियां वक्त के साथ नष्ट हो गये हैं या नष्ट कर दिये गये हैं. नदियों में इतनी गाद-मिट्टी जमा है कि वे उथली हो गयी हैं.
यदि वे गहरी हों, तो बारिश के पानी को सहेज सकती हैं. पानी इधर-उधर फैलकर बाढ़ का रूप न ले, ऐसा हो सकता है. पानी बचाने के लिए नये सिरे से तालाब, बावड़ियों को जीवित किया जा सकता है, लोगों को उनके संरक्षण से जोड़ा जा सकता है. उन्हें उनकी रक्षा के बारे में सचेत किया जा सकता है, जिससे कि उन्हें जरूरत का पानी अपने ही प्रयासों से मिल सके.
अन्ना हजारे ने रालेगांव सिद्धि में पानी पंचायत से वहां की तकदीर बदलकर रख दी थी. और भी अनेक स्थानों पर लोग तालाब खोद रहे हैं, सूखी नदियों को पुनर्जीवित कर रहे हैं, लेकिन पानी की जरूरतों को देखते हुए ये प्रयास कम हैं.
जो पानी प्रकृति हमें तोहफे के रूप में देती है, उसे ऐसे ही बचाया जा सकता है. और इसके फलस्वरूप पानी न होने के कारण जो तकलीफ झेलनी पड़ती है, गंदे पानी के प्रयोग के कारण जो जानलेवा बीमारियां होती हैं, बाजार से पानी खरीदना पड़ता है या साफ पानी पीने के लिए आरओ लगाने पड़ते हैं, इनसे मुक्ति मिल सकती है. काश, अगर ऐसा हो सके, तभी तो सब गायेंगे- आ मेरे मेघा पानी दे, पानी दे गुड़धानी दे.

Next Article

Exit mobile version