डॉलर के मुकाबले रुपये की लगातर गिरती कीमत बेहद चिंताजनक है. इस साल जनवरी से अब तक रुपये के मोल में 11.8 फीसदी तथा बीते सवा चार साल में 21.7 फीसद की कमी आयी है. फिलहाल भारतीय मुद्रा अर्जेंटीना के पेसो, ब्राजील के हेयल, तुर्की के लीरा और दक्षिण अफ्रीका के रैंड के साथ दुनिया की पांच सबसे कमजोर मुद्राओं में है. हालांकि, तात्कालिक तौर पर विशेष संकट नहीं है, क्योंकि मौजूदा वित्त वर्ष के पहली तिमाही के आर्थिक विकास के आंकड़े उत्साहवर्द्धक हैं.
अप्रैल से जून के बीच वृद्धि दर 8.2 फीसदी के साथ बीते दो सालों में सर्वाधिक रही. इससे पहले 2016-17 की पहली तिमाही में आठ फीसदी की दर हासिल की जा सकी थी. उस वक्त भी डॉलर की कीमत ज्यादा हो गयी थी. लेकिन, साल 2016 की स्थितियों को हिसाब से अभी निश्चिंत नहीं हुआ जा सकता है.
तब से वैश्विक परिस्थितियां बड़ी तेजी से बदली हैं. सितंबर, 2016 के शुरू में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत करीब 43 डॉलर प्रति बैरल थी, जबकि मौजूदा दर 78 डॉलर के आसपास है. रुपये की गिरती कीमत के कारण फिलहाल कच्चे तेल के आयात पर हमें कहीं ज्यादा विदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ रही है. घरेलू बाजार में तेल की कीमतें ऐतिहासिक उछाल पर हैं.
अंतरराष्ट्रीय माहौल को देखते हुए निकट भविष्य में कच्चे तेल की कीमतें घटने की कोई उम्मीद नहीं है. भारत, चीन, दक्षिण कोरिया और जापान से अमेरिका कह चुका है कि वे ईरान से तेल की खरीदारी बंद करें. वैसे ये बड़े आयातक देश अभी ईरान से तेल ले रहे हैं, परंतु पहले की तुलना में खासा कमी आयी है.
इसका मतलब है कि ईरान पर नवंबर के पहले हफ्ते से लागू होनेवाले अमेरिकी प्रतिबंधों ने पहले से ही असर दिखाना शुरू कर दिया है. तेल की आपूर्ति घटने पर दाम का बढ़ना अवश्यंभावी है. रुपये में गिरावट के साथ चिंता का दूसरा मोर्चा निर्यात का है. अमूमन रुपये की कीमत गिरने पर निर्यात में बढ़ोतरी होती है, क्योंकि बाहरी खरीदारों के लिए भारतीय वस्तुएं डॉलर की चढ़ी हुई कीमत के कारण सस्ती पड़ती हैं.
पर ऐसा नहीं हो पा रहा है. बीते चार साल में रुपये की कीमत डॉलर के मुकाबले 20 फीसदी से ज्यादा गिरी है, लेकिन निर्यात 314.40 अरब डॉलर से घटकर 303.52 अरब डॉलर पर आ गया है. निर्यात की अपेक्षित बढ़वार नहीं होने से विदेशी मुद्रा के व्यापारी और आयातक फिलहाल पसोपेश में हैं और रुपये की कीमत में ठहराव का इंतजार कर रहे हैं.
अगर हालात ऐसे ही बने रहे, तो पहली तिमाही की आठ फीसदी से ज्यादा की आर्थिक वृद्धि दर को कायम रख पाना बहुत मुश्किल हो जायेगा. उम्मीद की जानी चाहिए कि रुपये की कीमत को थामने के लिए सरकार और रिजर्व बैंक द्वारा आंतरिक स्तर पर ठोस पहल करने के साथ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी समुचित प्रयास किये जायेंगे.