शिक्षक यात्रा : मालिक से मजदूर तक

मृदुला सिन्हा राज्यपाल, गोवा snmridula@gmail.com अब भी हमारे समाज में वे लोग मौजूद हैं, जिनकी कमीज उठाइए, तो पीठ पर गुरुजी की छड़ी के निशान होंगे. किसी की उंगली टेढ़ी, तो किसी की आंख में भी कुछ खराबी. पूछने पर बिना दांत के जबड़े हिलाते वे बड़े फख्र से कहेंगे- ‘मैंने पंद्रह से बीस तक […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 5, 2018 7:57 AM
मृदुला सिन्हा
राज्यपाल, गोवा
snmridula@gmail.com
अब भी हमारे समाज में वे लोग मौजूद हैं, जिनकी कमीज उठाइए, तो पीठ पर गुरुजी की छड़ी के निशान होंगे. किसी की उंगली टेढ़ी, तो किसी की आंख में भी कुछ खराबी. पूछने पर बिना दांत के जबड़े हिलाते वे बड़े फख्र से कहेंगे- ‘मैंने पंद्रह से बीस तक पहाड़ा याद करके नहीं सुनाया था, गुरुजी ने अपनी छड़ी मेरी झुकी पीठ पर चलाते हुए सारा पहाड़ा सुन लिये.
पहाड़ा में जितने अंक, उतनी छड़ियां पड़ीं पीठ पर.’जोड़-घटाव में गलती हुई नहीं कि विद्यार्थी के कान और गुरुजी की उंगलियां. दोनों का संबंध तब तक बना रहता, जब तक कार्टिलेज का बना कान पृथ्वी के समान उंगली रूपी धुरी के दो तीन चक्कर न काट ले. फिर क्यों सीधा होता कान? वैसा हृदयहीन (आज की परिभाषा में) कार्य करनेवाला मास्साहब मालिक होता था उसी गांव का. कोई उसे कसाई नहीं कहता था. उसकी नीयत पर कोई उंगली नहीं उठाता था. क्या बाप, क्या दादा, शिक्षार्थी के घर वाले शीश झुकाते थे उनके आगे.
जिस दिन गुरुजी ने छड़ी से बेटे की पीठ फाड़ दी, उसी रात्रि को नानाविध भोजन सामग्री की थाल लिये उसके पिताजी पहुंच जाते गुरुजी को जिमाने. दर्द से कराहते लाड़ले की पीठ पर हल्दी-चूना लगाती मां आंसू बहाती हुई बेटे को समझाती- ‘बेटा! क्यों नहीं मानता गुरुजी की बात. तुम्हारे भले की तो कहते हैं. पढ़-लिखकर तू ही तो राजा बेटा बनेगा.’
कोई बच्चा विद्यालय नहीं आया, तो सायंकाल अपनी छड़ी डुलाते मास्साहब पहुंच गये उसके दरवाजे. सारा परिवार नतमस्तक होकर उनके आवभगत में लग गया. वह बीमार बच्चा भी. बीमार बच्चे के सिर पर गुरुजी ने स्नेह से हाथ क्या फेरे, घरवालों को विश्वास हो गया कि अगले दिन बच्चा स्वस्थ हो जायेगा. गांव के प्राथमिक विद्यालय के वे गुरुजी न हुए, गांव के सचिव, वैद्य और गुरु तीनों हो गये. और भी बहुत कुछ. सामाजिक अवसरों पर गुरुजी के आकर बैठते ही सज जाता था दरवाजा.
गरिमामय हो जाता था पूरा परिवेश. गांवों की तकरारों में गुरुजी का फैसला अंतिम फैसला होता था. गुरुजी गांव के हित के लिए और गांव गुरुजी की सुख-सुविधा (अत्यंत सीमित) के लिए चिंतित और प्रयत्नशील रहते थे. बच्चे अक्षर और अंक ज्ञान के साथ जीवन जीने की कला सीखते थे. और उनके माता-पिता निरक्षर होकर भी बहुत कुछ सीखते थे गुरुजी से.
अंग्रेजों के जमाने से ही शिक्षा व्यवस्थित होकर कुछ सरकारी कुछ गैरसरकारी हो गयी थी. स्वतंत्रता के उपरांत समाज ने अपनी पूरी बागडोर सरकार के हाथ में दे दी. मतदान करवाने से लेकर सरकार बनाने तक. गांव के गली-मुहल्ले के नालों की सफाई से लेकर शिक्षा द्वारा मनुष्य के मस्तिष्क प्रक्षालन तक. जनता को हाथ पर हाथ रखकर बैठने दिया.
गांव-गांव में विद्यालय खुले. कच्ची या पक्की छतें (जो अब दिखती नहीं) बनी. गांव तमाशबीन बना देखता रहा. मानो जो स्कूल के भवन बन रहे थे, वे उसके लिए नहीं. शिक्षक बहाल हुए. सूट-बूट में आये शिक्षक गांव में ‘जल में रहकर विलग जलज ज्यों’ की स्थिति में ही रहे. गांवों में इतनी राजनीति है, उनके झगड़े झंझट हैं, क्यों फंसे शिक्षक. उसका काम विद्यालय में आये बच्चों को पढ़ाना भर था. लेकिन, गांव के सुख-दुख और राजनीति से अलग रह रहे ‘सर और मैडम’ ने अपनी अलग राजनीति शुरू की. शिक्षक संघ की राजनीति.
सभी क्षेत्रों के हित-अनहित देखने के लिए संघ (यूनियन) बनने लगे, तो भला शिक्षा क्षेत्र कैसे पीछे रहता. वे भी तो बन गये थे सरकारी मुलाजिम. सरकारी मुलाजिमों पर सरकारी डंडा चलना ही था. इसलिए वे संगठित हो गये. शिक्षकों का साहस, समाज और शक्ति. उनका अपना संगठन. समाज और शिक्षार्थी उनसे विलग रहे. रागात्मक और परस्पर पूरकता का संबंध बिल्कुल समाप्त हो गया.
उन्हें भी गांव के लिए वह सब करना पड़ा, जो पहले के गुरुजी करते थे. फर्क इतना ही कि गुरुजी के वे कार्य स्वतःस्फूर्त थे, गांव हिताय थे. बदले में उन्हें सम्मान मिलता था. पर आज के शिक्षक पब्लिक सर्वेंट हो गये.
इसलिए गांव का काम करते हुए भी उन्हें गांव की स्वीकृति और सम्मान नहीं मिल रहा. सरकार ने उन्हें बंधुआ मजदूर से भी बदतर समझ रखा है. उन्हें पढ़ाने-लिखाने का समय नहीं मिलता. ‘नौकर ऐसा चहिए, जो मांग-चांग कर खाये. चौबीस घंटे हाजिर रहे, घर कब-हूं नहीं जाये.’ इन दो पंक्तियों में से ‘मांग चांग कर खाये’ हटा दीजिए, क्योंकि प्राथमिक विद्यालय के शिक्षकों को अब तनख्वाह अच्छी मिलती है. पर यह भी पुरानी बात हो गयी. तनख्वाह तथा अन्य सुविधाएं बढ़ाने के लिए संघ की ओर से आंदोलन की योजना पुनः गर्भावस्था में है.
घर-घर में जाकर भी आज शिक्षक अभिभावकों से जुड़ते नहीं. उनके बच्चों की पढ़ाई-लिखाई की बात नहीं करते. वे ड्यूटी पर रहकर भी ड्यूटी से विलग रहते हैं.
तब के गुरुजी और अब के सर या मैडम में मालिक और मजदूर वाला ही फर्क रह गया है. उस मालिक से फायदा समाज और शिक्षार्थी को होता था. इस मजदूर से हानि समाज और शिक्षार्थी की हो रही है. वह मालिक अपनी साधारणतम स्थिति से भी संतुष्ट था, सुखी था. आज का मजदूर अपनी स्थिति से कभी संतुष्ट हो ही नहीं सकता. क्योंकि उसके हाथ फैलाने के लिए सामने सरकार है.
प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षकों की उदासीनता और अन्य सरकारी कामों के बोझ के कारण विद्यालय खाली पड़े हैं. कुकुरमुत्तों की तरह अंग्रेजी विद्यालय खुल रहे हैं. वहां न्यूनतम अंग्रेजी जाननेवाले ‘सर’ और ‘मैडम’ हैं. अभिभावक को अधिक पैसा खर्च करना पड़ रहा है. पर उनके बच्चों को शिक्षा उपयुक्त नहीं मिल रही. सरकारी प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षक संतुष्ट नहीं, तो व्यावसायिक विद्यालयों से अभिभावक भी संतुष्ट नहीं.
उनकी संतुष्टि और असंतुष्टि का सीधा असर शिक्षार्थी और समाज पर होना था, हो रहा है. अब सर और मैडम को गुरुजी के सांचे में नहीं ढाला जा सकता, परंतु शिक्षा के सरकारीकरण से उत्पन्न शिक्षकीय दुर्दशा को देखते हुए उसमें परिवर्तन की बात तो सोचनी ही होगी. शिक्षक दिवस भी आये और यूं ही बीत जाये, तो बात नहीं बनेगी. यह दिवस मनाया इसलिए जाता है कि इस क्षेत्र की समस्याओं पर हम गहराई से विचार करें.
शिक्षार्थी के भविष्य के बारे में उसकी सोच को अभिभावकों के द्वारा शक की नजर से नहीं देखा जाये. उसके कार्य का निरादर न हो. मात्र पढ़ाना ही उसका कार्य हो. समाज उसका आदर करे, पर इन सब स्थितियों को पाने के लिए स्वयं शिक्षकों को बहुत प्रयास करने होंगे. सम्मान तो अधिकार से बहुत बड़ा है. शिक्षक को तो सम्मान ही चाहिए.

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