तर्क, असहमति और शिक्षा

डॉ अनुज लुगुन सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया anujlugun@cub.ac.in आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने अपने उपन्यास ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में लिखा है कि ‘सत्य के लिए किसी से नहीं डरना, न लोक से, न वेद से, न मंत्र से, न गुरु से.’ उपन्यास की अंतर्वस्तु में बाणभट्ट को मिली यह सीख जोखिमों से […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 6, 2018 9:03 AM
डॉ अनुज लुगुन
सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया
anujlugun@cub.ac.in
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने अपने उपन्यास ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में लिखा है कि ‘सत्य के लिए किसी से नहीं डरना, न लोक से, न वेद से, न मंत्र से, न गुरु से.’ उपन्यास की अंतर्वस्तु में बाणभट्ट को मिली यह सीख जोखिमों से भरी है. शायद ही आज के समय में कोई किसी को इस तरह की सीख देना चाहता है, न ही कोई यह सीख लेना चाहेगा. आजकल की दुनिया ‘प्रैक्टिकल’ होने की दुनिया है, ‘उसूलों’ वाली नहीं, यानी जहां जैसे अपना हित सधता हो उसी के अनुसार आचरण किया जाये.
‘शिक्षा’ यानी जीवन की सीख, जीवन का ज्ञान और विद्यार्थी, यानी उसके जिज्ञासु. ‘शिक्षक’ अर्थात उसका मार्गदर्शक. इन के रिश्तों से मानव सभ्यता के विकास का इतिहास जुड़ा है. इस रिश्ते की बुनियाद ‘अनुकरणमूलक’ से ज्यादा ‘तर्कमूलक’ है. यह सवाल की बुनियाद पर टिका रिश्ता है.
आमतौर पर हमने मान लिया है कि अच्छा शिष्य वह है, जो शिक्षक का अनुकरण करे. वैसे विद्यार्थी जो शिक्षक से तर्क करते हैं, सवाल करते हैं, वे आदर्श नहीं माने जाते. एक झटके में विद्यार्थियों की सर्जना को यह कहकर कुंद कर दिया जाता है कि ‘टीचर से जबान लड़ाते हो?’ यह सोच की विडंबना है. अगर ‘अनुकरण’ ही आदर्श होने का मापक हो जाये, तो नया ज्ञान कहां से आयेगा? ज्ञान के लिए जरूरी है सवाल और तर्क. बिना सवाल और तर्क के सत्य तक नहीं पहुंचा जा सकता है. इसके लिए टकराना पड़ सकता है, लोक से भी, वेद से भी, मंत्र से भी और गुरु से भी. शिक्षा का यह विचार अब हमारे बीच कहां है?
असहमति तर्क से पैदा हो, तो रचनात्मक होती है और यदि जिद से हो, तो यह हिंसक होती है. शिक्षा न केवल असहमति का विवेक देती है, बल्कि उसका ताकत भी है. हमारी ज्ञान परंपरा ऐसे ही बढ़ी है. शिक्षा की बुनियाद यही रही है. इस मामले में प्लेटो और अरस्तू की गुरु-शिष्य परंपरा दुनियाभर में लोकप्रिय है. अरस्तू ने प्लेटो के शिष्यत्व में रहते हुए उनके विचारों से असहमति जतायी और उनके मतों का खंडन भी किया.
कहा जाता है कि तब लोगों ने कहा कि अरस्तु अपने ही गुरु को लात मार रहा है. प्लेटो ने सहजता से जवाब दिया कि जैसे बछड़ा अपनी मां को दूध पीते हुए लात मारता है. यह असहमति की सुंदरता है. और यही मनुष्यता को बरकरार रखती है. लेकिन जबसे हम शिक्षा के जरिये व्यवसायिकता की ओर बढ़े हैं, सवाल, तर्क और असहमति हाशिये पर चले गये हैं. शिक्षा, शिक्षक और विद्यार्थी का रिश्ता भी व्यावसायिक हुआ है. जो जितना पिछलग्गू है, वह उतना ही गुरु का कृपापात्र है.
बाजार में शिक्षा के आने से उसका उद्देश्य ‘ज्ञान’ के बजाय ‘लाभ’ पर केंद्रित हुआ है. अब ज्ञान की परिभाषा बदल रही है. जिससे तात्कालिक हित जुड़ा हो, जो बाजार के अनुकूल हो, सिर्फ उसे ही ज्ञान माना जा रहा है और संस्थाओं पर दबाव डाला जा रहा है कि उसी तरह का पाठ्यक्रम भी हो. माना कि यह जरूरी है, लेकिन सिर्फ इसे ही लक्ष्य मान लेना आत्मघाती होगा. इसका असर समाज के मनोविज्ञान पर पड़ता है.
समाजशास्त्र, मानविकी, साहित्य-कलाओं से रहित व्यावसायिकता की दिशा में बढ़ी शिक्षा से जो पीढ़ी तैयार होगी, वह स्वभावतः अराजक होगी. सवाल, तर्क और असहमति का अभ्यास न होने से न उसमें धैर्य होगा और न ही विपरीत विचार से संवाद का विवेक होगा. माॅब लिंचिंग इसका ज्वलंत उदाहरण है. जहां सवाल, तर्क और असहमति का विवेक नहीं होगा, वहां हिंसा को रोकना चुनौती बन जायेगी.
आज हमारा समाज जिस अराजकता की ओर बढ़ रहा है, उसकी एक बड़ी वजह यह रही है कि हमने सिर्फ शिक्षा के बाजारू लक्ष्यों को हासिल किया है. कथित अच्छी संस्थाओं में पढ़ाई, ज्यादा से ज्यादा फीस और सबसे अच्छे पैकेज का सपना इत्यादि शिक्षा में किया गया निवेश माना जाता है.
सरकारें खुद शिक्षा में पूंजी निवेश की छूट देकर शिक्षा के सामाजिक दायित्व को समाप्त कर रही हैं. जहां निवेश होगा, वहां लाभ कमाने का लक्ष्य अपने आप पैदा हो जायेगा. यही वजह है कि समाज में कई द्वीप बनते नजर आ रहे हैं. सामाजिक समूहों के बीच आपसी रिश्ते बिखर रहे हैं, उनके बीच संवाद के रास्ते बंद हो रहे हैं.
एक सामाजिक समुदाय दूसरे समुदाय को पूंजी निवेश में एक-दूसरे को प्रतिस्पर्धी के रूप में देख रहा है. इससे कमजोर सामाजिक समूहों की सुरक्षा और उनके हितों का विचार खत्म हो रहा है. राजनीतिक अवसरवाद को बढ़ने का पूरा अवसर मिला है और जनता की बुनियादी जरूरतों का संघर्ष उपेक्षित हो गया है. अब सवाल, तर्क और असहमति की गुंजाइश ही कहां रही?
पिछले दिनों जिस तरह से मोतिहारी केंद्रीय विवि के एक प्रोफेसर हिंसक समूहों के हमले का शिकार हुए, जिस तरह से अचानक कई मानवाधिकार-सामाजिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी हुई, उसी तरह यदि असहमतियों का दमन होता रहेगा और केवल सुर में सुर मिलानेवाली अनुकरणमूलक प्रवृत्ति को ही बढ़ावा दिया जाता रहेगा, तो उस सामाजिक ठहराव को रोक पाना असंभव होगा, जिसका परिणाम अंततः हिंसा ही होगी.
व्यक्तिगत और संस्थागत इकाई के अंदर सवाल, तर्क और असहमति को स्वीकार करने का अभ्यास होना चाहिए. संवाद के दरवाजे हमेशा खुले होने चाहिए. यदि शिक्षक और संस्थाएं असहमति और संवाद का अवसर न दें, यदि विद्यार्थी मौन होकर लीक पर चलते रहें, यदि शिक्षा से तर्क और सवाल का विचार खत्म हो जाये, तो फिर लोकतांत्रिक मूल्य कहां पल्लवित होंगे, लोकतंत्र कैसे टिक पायेगा?

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