पुराने समय से जारी समझ तो यही है कि हार से नहीं, पर जग-हंसाई से डरना चाहिए, क्योंकि यह जीते-जी मार डालती है. विडंबना देखिए कि आम चुनावों के बाद यूपी में परिवार तक सिमट जानेवाली समाजवादी पार्टी न तो हार से डर रही है और न ही जग-हंसाई से, जबकि लोकतंत्र में शासक को सर्वाधिक फिक्र लोकनिंदा की ही करनी चाहिए.
लोकतंत्र में शासन व्यवस्था-तंत्र के सहारे कम, व्यवस्था पर लोगों के भरोसे के सहारे कहीं ज्यादा चलता है और लोकनिंदा शासन से उठते भरोसे का ही प्रमाण है. बदायूं कांड की चतुर्दिक निंदा के बीच यूपी सरकार के अगुआ अखिलेश यादव, सपा के सर्वेसर्वा मुलायम सिंह और वरिष्ठ नेता रामगोपाल यादव प्रदेश में व्याप्त अराजकता को ढंकने के लिए जो तर्क गढ़ रहे हैं, उससे तो यही साबित हो रहा है कि यूपी में सामाजिक न्याय की राजनीति ने अपनी शुरुआती चमक ही नहीं, बल्कि चरित्र भी खो दिया है.
अहंकार का पहला लक्षण है खुद को आलोचना से परे समझना, इसलिए अहंकारी अपनी आलोचना में खुलती जुबान को ही निशाना बनाता है. वह संदेश को नहीं देखता, संदेशवाहक के दोष गिनाने लगता है. अखिलेश यही करते दिख रहे हैं. दो नाबालिग बहनों की लाश पेड़ पर लटकाने की क्रूरता को ढंकने के लिए उनकी दलील है कि मीडिया बदायूं की घटना को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहा है, वरना यूपी में अब भी महिलाओं के प्रति अपराध कई प्रदेशों से कम है. क्या ऐसी दलील से बदायूं की घटना की क्रूरता और पीड़ित को मुंह चिढ़ाने सरीखा पुलिस का रवैया ढंक सकता है?
अगर ऐसा होता तो संयुक्त राष्ट्र महासचिव बदायूं की घटना को ही आलोचना के लिए नहीं चुनते. रामगोपाल यादव को लगता है कि दोष शासन में नहीं, मीडिया में है, जो नग्नता परोस कर लोगों को बलात्कार के लिए उकसावा दे रहा है. सपा नेताओं ने बलात्कार की व्याख्या का एक नया शास्त्र भी गढ़ दिया है. यह शास्त्र कहता है कि बलात्कार कुछ होता ही नहीं, ‘कई स्थानों पर जब लड़के-लड़कियों के रिश्ते सामने आ जाते हैं तब इसे बलात्कार करार दिया जाता है.’ शासकवर्ग के ये बयान हृदयहीनता की पराकाष्ठा को छू रहे हैं और ऐसे में कोई (पूर्व गृहसचिव आरके सिंह) यह कह दे कि यूपी राष्ट्रपति शासन के लिए ‘फिट केस’ है, तो क्या आश्चर्य!