काले रंग का दासताबोध
सन्नी कुमार टिप्पणीकार sunnyand65@gmail.com कलुआ, धूप में मत जाओ, और काला हो जाओगे. यह वाक्य अक्सर हम अपने आस-पास सुनते हैं. कुछ दिन पहले एक तस्वीर में सौंदर्य प्रतियोगिता में भाग ले रही तीन स्त्रियां थीं. उनमें दो का रंग गोरा था, जबकि केन्या की प्रतिभागी मैगलीन का रंग काला. मैगलीन को चिह्नित करते हुए […]
सन्नी कुमार
टिप्पणीकार
sunnyand65@gmail.com
कलुआ, धूप में मत जाओ, और काला हो जाओगे. यह वाक्य अक्सर हम अपने आस-पास सुनते हैं. कुछ दिन पहले एक तस्वीर में सौंदर्य प्रतियोगिता में भाग ले रही तीन स्त्रियां थीं. उनमें दो का रंग गोरा था, जबकि केन्या की प्रतिभागी मैगलीन का रंग काला.
मैगलीन को चिह्नित करते हुए लिखा गया- ‘ये यहां क्या कर रही है?’ यानी सौंदर्य प्रतियोगिता में काले का क्या काम? और लोग हंस रहे थे. गोरेपन को लेकर हम भारतीय भी अपमान पर उतर आते हैं.
एक आम भारतीय के मन में गोरापन एक ‘आदर्श रूप’ का मानक बन चुका है. चाहे विवाह के लिए गोरा/गोरे वर/वधू की अनिवार्यता की बात हो, विदेशी पर्यटकों के विज्ञापनों में सिर्फ गोरी चमड़ी वालों को दिखाना हो या बुरी नजर वाले तेरा मुंह काला जैसे कहावत हों. इन सबके मूल में गोरेपन का वर्चस्व है, जो जाने-अनजाने हमारे व्यवहार के अंग बन चुके हैं.
रंग का संबंध भौगोलिकता से है. यूरोप का भूगोल गोरा रंग देता है और भारत का काला. पौराणिक आख्यानों में ‘श्याम वर्ण’ की श्रेष्ठता को व्याख्यायित किया गया है. राम,कृष्ण जैसे पात्र तो श्याम वर्ण के हैं ही, कालिदास की रचनाओं में भी इसे सुंदरता का पर्याय माना गया है.
वात्स्यायन ने तो यहां तक कहा है कि सुंदरता काले रंग में ही निवास करती है. ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जब गोरापन सौंदर्य का पर्याय नहीं बना था, किंतु भारत में अंग्रेजों के आगमन के साथ यह प्रवृत्ति बदली और अंग्रेजों की श्रेष्ठता के साथ गोरे रंग की श्रेष्ठता स्थापित होती चली गयी.
रुडयार्ड किपलिंग ने ‘व्हाॅइट मैन बर्डेन थ्योरी’ के जरिये औपनिवेशिक शासन के औचित्य को सिद्ध करना चाहा और कहा कि गोरे यहां कालों को सभ्य बनाने आये हैं. आर्य नस्ल का सिद्धांत देकर भारत में ही लोगों को कम अश्वेत और अधिक अश्वेत के बीच बांटा गया. अंग्रेज भारत में लंबे समय तक रहे, इसलिए गोरा रंग श्रेष्ठता का प्रतीक बन गया. वैश्विक स्तर पर भी गोरे प्रभुत्वशाली बने रहे, इसलिए उनके महान होने के दावे को खारिज नहीं किया जा सका.
गांधी, मंडेला, मार्टिन लूथर जैसों ने इसके खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ी, किंतु एक विचार के रूप में गोरेपन का वर्चस्व भले ही समाप्त हो गया हो, व्यवहार के रूप में यह अब भी मजबूत बना हुआ है.
इसको मजबूत करने में मानव शरीर के वस्तुकरण की प्रक्रिया के तेज होने ने भी योगदान दिया है. बाजारवाद का ज्यों-ज्यों विकास होता गया, त्यों-त्यों स्त्री देह का वस्तुकरण तेज होता चला गया. फिर एक उत्पाद की भांति ‘सुंदर’ दिखने की चाह में ब्यूटी पार्लर, सौंदर्य प्रसाधन का उपयोग बढ़ने लगा और इस तरह ‘सुंदर देह’ की सुंदर प्रस्तुति के लिए गोरापन एक मानक बन गया.
रंग को लेकर स्थापित रूढ़िवाद के साथ बाजार के शोषण को भी अनावृत्त करना होगा, क्योंकि ये दोनों हमारी मर्जी को गहरे तक प्रभावित करते हैं. यह इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि इसके बिना भारतीयता का स्वाभिमान अधूरा है. अपने रंग को निम्न समझने से अधिक दासताबोध और क्या हो सकता है.