डॉ मनमोहन बैद्य
सह सरकार्यवाह, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
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कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तुलना ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ के साथ करने पर संघ से परिचित और राष्ट्रीय विचार के लोगों का आश्चर्य होना स्वाभाविक है. भारत के वामपंथी, माओवादी और क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ के लिए राष्ट्र विरोधी तत्वों के साथ खड़े लोगों को इससे आनंद होना भी स्वाभाविक है.
वैसे, राहुल गांधी जिहादी मुस्लिम आतंकवाद की वैश्विक त्रासदी से अनजान नहीं हैं. ऐसा भी नहीं कि वे समाज-हित में चलनेवाले संघ के कार्यों तथा समाज से संघ को सतत मिलते और लगातार बढ़ते समर्थन के बारे में नहीं जानते. फिर भी वे ऐसा क्यों कह रहे हैं?
कारण- उनके राजनीतिक सलाहकार उन्हें बताने में सफल रहे हैं कि संघ की बुराई करने से, संघ के खिलाफ बोलने से उन्हें राजनीतिक फायदा हो सकता है. इसलिए नाटकीय आवेश के साथ आरोप करना उन्हें सिखाया गया है. आरोप साबित करने की जिम्मेदारी उनकी नहीं है.
संघ वास्तव में भारत की परंपरागत अध्यात्म आधारित सर्वांगीण और एकात्म जीवनदृष्टि के आधार पर संपूर्ण समाज को एक सूत्र में जोड़ने का कार्य कर रहा है. इसकी तुलना जिहादी मुस्लिम ‘ब्रदरहुड’ से करना समस्त भारतीयों का, देश की महान संस्कृति का घोर अपमान है.
आज 11 सितंबर को स्वामी विवेकानंद के शिकागो व्याख्यान को 125 वर्ष हो रहे हैं. उन्होंने भारत के सर्वसमावेशी एकात्म और सर्वांगीण जीवन दृष्टि के आधार पर विश्वबंधुत्व का विचार सबके सम्मुख रखा था.
शिकागो में अपने ऐतिहासिक संबोधन में स्वामी विवेकानंद ने उद्बोधन की शुरुआत ही ‘मेरे अमेरिकन भाइयों और बहनों’ से की थी, जिसे सुनकर पूरा सभागार अचंभित एवं उत्तेजित हो उठा था और कई मिनटों तक सबकी तालियों से सारा सभागार गूंज उठा था. स्वामी विवेकानंद ने 125 वर्ष पहले समुद्र पार जाकर भारत की सनातन सर्वसमावेशी संस्कृति की विजय पताका फहरायी थी. आज उसी देश का एक नेता समुद्र पार जाकर इसी भारतीय संस्कृति की तुलना इस्लामिक ब्रदरहुड से कर विवेकानंद का, इस भारत की महान संस्कृति का और भारत का अपमान कर रहा है.
भाषण में विवेकानंद ने कहा था- ‘मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूं, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति, दोनों की ही शिक्षा दी हैं. हम लोग सभी धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरन् समस्त धर्मों को सच्चा मानकर स्वीकार करते हैं.
मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है. मुझे यह बताते हुए गर्व होता है कि हमने अपने वक्ष में यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था, जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी, जिस वर्ष उनका पवित्र मंदिर रोमन जाति के अत्याचार से मिटा दिया गया था. ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूं, जिसने महान जरथुष्ट्र जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा है.’
डॉ अांबेडकर ने ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ में कहा है- ‘इस्लाम एक बंद समुदाय है’. और वह मुसलमान और गैर-मुसलमान के बीच जो भेद करते हैं, वह वास्तविक है. ‘इस्लामिक ब्रदरहुड’ समस्त मानवजाति का समावेश करनेवाला ‘विश्वबंधुत्व’ नहीं है. यह मुसलमानों का मुसलमानों के लिए ही ‘बंधुत्व’ है. जो उसके बाहर हैं, उनके लिए तुच्छता और शत्रुता के सिवा और कुछ भी नहीं है.
मुस्लिम ब्रदरहुड सर्वत्र शरिया का राज्य लाना चाहता है, संघ हिंदू राष्ट्र की बात करता है, जो सभी का स्वीकार करते हुए स्वामी विवेकानंद द्वारा प्रतिपादित ‘विश्वबंधुत्व’ (यूनिवर्सल ब्रदरहुड) का प्रसार करता है.
जिहादी कट्टर मुस्लिम ब्रदरहुड की तुलना स्वामी विवेकानंद के विश्वबंधुत्व के साथ कैसे हो सकती है! ऐसे महान विचारों को लेकर चलनेवाले और संपूर्ण समाज का संगठन करने की सोच रखनेवाले संघ के बारे में राहुल गांधी ऐसा वैमनस्यपूर्ण विचार क्यों रखते होंगे?
एक वरिष्ठ स्तंभ लेखक ने कांग्रेस के बारे में कहा कि कांग्रेस पार्टी किसी भी हद तक जाकर सत्ता में आने का प्रयास करती है और पार्टी की बौद्धिक गतिविधि उन्होंने कम्युनिस्टों को सौंप दी है. कांग्रेस की बौद्धिक गतिविधि जब से कॉमरेडों ने संभाल ली है, तब से पार्टी असहिष्णुता का परिचय देते हुए राष्ट्रीय विचारों का घोर विरोध करने लगी है.
स्वतंत्रता के पूर्व कांग्रेस एक खुले मंच के समान थी. उसमें हिंदू महासभा, क्रांतिकारियों के समर्थक, नरम-गरम आदि सभी का समावेश था. क्रमशः इसमें राजनीतिक दल का स्वरूप आने लगा और असहमति रखनेवाले लोगों को दरकिनार किया जाने लगा. स्वतंत्रता के बाद भी विभिन्न विचार प्रवाह के लोग कांग्रेस में थे.
पंडित नेहरू संघ का घोर विरोध करते थे, तो सरदार पटेल जैसे नेता संघ को कांग्रेस में शामिल होने का निमंत्रण दे रहे थे. साल 1962 के चीन के आक्रमण के समय संघ के स्वयंसेवकों ने जान की बाजी लगाकर सेना की जो सहायता की, उससे प्रभावित होकर पंडित नेहरू ने 1963 के गणतंत्र दिवस परेड में शामिल होने के लिए स्वयंसेवकों को निमंत्रित किया था.
लोकतंत्र में विभिन्न दलों में मतभेद तो हो सकते हैं, पर राष्ट्रीय हित के मुद्दों पर अपनी राजनीतिक पहचान से भी ऊपर उठकर एक होने से ही राष्ट्र प्रगति करेगा और भीतरी-बाहरी संकटों को मात देकर अपनी समस्याओं का समाधान ढूंढ़ सकेगा.