पर्वतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है
नाजमा खान टीवी पत्रकार nazmakhan786@gmail.com लेबनान में एक महान रचनाकार हुए हैं, खलील जिब्रान. वे लिखते हैं- ‘घूमिए (समझें- ट्रैवल कीजिए), लेकिन किसी को मत बताइये, सच्चा इश्क कीजिए, पर वह भी किसी को मत बताइए, जिंदगी को खुशी से गुजारिए और इसका इजहार भी किसी से मत करिए, क्योंकि खूबसूरत चीजों को लोग बरबाद […]
नाजमा खान
टीवी पत्रकार
nazmakhan786@gmail.com
लेबनान में एक महान रचनाकार हुए हैं, खलील जिब्रान. वे लिखते हैं- ‘घूमिए (समझें- ट्रैवल कीजिए), लेकिन किसी को मत बताइये, सच्चा इश्क कीजिए, पर वह भी किसी को मत बताइए, जिंदगी को खुशी से गुजारिए और इसका इजहार भी किसी से मत करिए, क्योंकि खूबसूरत चीजों को लोग बरबाद कर देते हैं.’
ये लाइनें मुझे बेहद पंसद हैं और उसकी वजह है जिंदगी को समझने की मेरी जिद. मैं कोशिश करती हूं कि बचपन में एटलस में जो बेहद छोटे लाल, हरे और काले डॉट के रूप में शहर, राजधानी और जगहों को रटा करती थी, उन्हें हकीकत में देख सकूं, घूम सकूं और महसूस कर सकूं.
कभी दोस्तों के साथ, तो कभी तन्हा मैं सड़कों पर लगे मील के पत्थरों पर बैठने की कोशिश करती हूं, पहाड़ों पर छिटककर ऊपर-नीचे जाती पगडंडियों को पकड़ती हूं, तंग गलियों से झांकती नजरों को पढ़ने की कोशिश और हंसी में छुपी खुशी में शामिल होने की तमन्ना लिये बिन बुलाये गुलों की महफिल में जा पहुंचती हूं और दिल को खुश रखने के लिए गालिब और मीर को पढ़ती हूं.
कुछ दिन पहले ऑफिस की चिकचिक और जिंदगी की किचकिच ने दिमाग में कुछ जमा दिया था, तो सोचा इन सब से बचने के लिए पहाड़ों पर चली जाऊं. मैं अक्सर उन जगहों पर जाती हूं, जो टूरिस्ट प्लेस नहीं होते. बस यूं ही कहीं भी निकल जाना ज्यादा रोमांचक लगता है. मैं निकल पड़ी पहाड़ घूमने. लेकिन कहां, यह जानना जरूरी नहीं है, ऐसा मुझे लगता है.
दिल्ली की उमस भरी गर्मी से दूर पहाड़ी बारिश में अचानक ही मुझे लगा कि हॉलीवुड की साइंस फिक्शन फिल्म का कोई सेट लगा हो, सैकड़ों फीट की ऊंचाई पर जाकर वादी में उतरते रास्ते पर चलते हुए बहुत हल्का महसूस कर रही थी.
घने देवदार के जंगल के बीच से गुजरते हुए हवा में घुला जादुई सुकून मेरी रूह में उतर रहा था और ऐसा लग रहा था कि दिमागी टेंशन पिघल रही हो. यकीनन मुझे इस जगह से प्यार हो गया.
मैंने मोबाइल से तस्वीरें क्लिक करनी शुरू कर दी. पर जो खूबसूरत मंजर मेरी आंखों के सामने था, उसका तिनका भी मेरा कैमरा रिकॉर्ड नहीं कर पाया. शायद यह कुदरती जादू था, जिसने देवदार के पेड़ों को ऐसे सजाया था कि वे वादी की तलहटी में होने के बावजूद ऐसे लग रहे थे कि पहाड़ों से गले मिल रहे हों. बादलों के बीच छुपी वादी से नीचे उतरते वक्त काई ने कहीं हल्का तो गहरे हरे रंग का एक कालीन बिछाया था, जिसमें जगह-जगह छिटके गुलाबी और पीले फूल कालीन में करीने से सेट किये हुए डिजाइन लग रहे थे.
मैं उस मंजर में खो गयी, जैसे उस खूबसूरत वादी का ही हिस्सा बन गयी हूं. मैं गुनगुनाने लगी, ‘पर्वतों के पेड़ों पर शाम का बरेसा है, सुरमई उजाला है चंपई अंधेरा है’… कुछ कदम ही आगे बढ़ी कि खुद से बतियाने लगी, क्यों न जज्ब हो जाएं इन हसीन नजारों में? लेकिन, मुझे वापस लौटना था. खैर, इस रोमांचक सफर के बाद मैं वापस दिल्ली आ तो चुकी थी, लेकिन पहाड़ का वह शांत मंजर मेरी आंखों में बस गया है.