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और उन्मुख होनेवाला है हिंदी का बाजार

सत्य व्यास उपन्यासकार satyavyas11@gmai- .com इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ में जो सबसे बड़ी घटना हुई, वह सूचना क्रांति का प्रादुर्भाव थी. सूचना क्रांति ने प्रारंभ से ही लोगों के जनजीवन में आमूलचूल परिवर्तन किया. कोलकाता और नोएडा जैसे केंद्र विरह भूमि तो अब भी थे, मगर अब दूरियां नहीं रह गयीं. लोग बस एक फोन […]

सत्य व्यास
उपन्यासकार
satyavyas11@gmai- .com
इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ में जो सबसे बड़ी घटना हुई, वह सूचना क्रांति का प्रादुर्भाव थी. सूचना क्रांति ने प्रारंभ से ही लोगों के जनजीवन में आमूलचूल परिवर्तन किया. कोलकाता और नोएडा जैसे केंद्र विरह भूमि तो अब भी थे, मगर अब दूरियां नहीं रह गयीं. लोग बस एक फोन कॉल की दूरी पर थे. दूरियां कम हुईं तो सामाजिक, आर्थिक, और बौद्धिक परिवेश भी बदले. ऐसे में साहित्यिक परिवेश भला कैसे अछूता रहता! सूचना क्रांति ने साहित्य को भी प्रभावित किया. पहले-पहल पाठकों के बीच जो दूरी थी, वह आश्चर्यजनक रूप से कम हुई.
सूचना क्रांति से पहले लेखक चाहे भी तो अपने पाठकों से सीधा संवाद स्थापित नहीं कर पाता था. उसे इसके लिए लेखकीय संवाद या फिर पत्रों की जरूरत पड़ती थी. समयाभाव के कारण सभी पाठकों तक पहुंच पाना और उनसे संवाद स्थापित कर पाना दुष्कर कार्य था. यही कारण था कि लेखक के बारे में गैरजरूरी राय भी कायम कर ली जाती थी. लेखक अपने पाठकों से बौद्धिजीविक संबंध स्थापित नहीं कर पाता था.
पाठक भी दूसरी ओर, अब तक अपने लेखकों तक अपनी पहुंच को एक असंभव सा कार्य ही मानते थे. किसी पाठक को पत्र का जवाब दे दिया, तो पाठक के लिए एक संपदा सरीखा होता था. हालांकि, इस वक्त का भी अपना एक अलग ही महत्व था.
मगर जो सबसे बड़ी समस्या बनी हुई थी, वह लेखक और पाठकों के बीच सीधे संपर्क की थी. इस संपर्क को स्थापित किया सूचना क्रांति ने. थोड़ा और गहरे उतरें, तो कह सकते हैं कि इस संपर्क को स्थापित किया सोशल मीडिया ने. सोशल मीडिया इस युग का सबसे बड़ा हथियार साबित हुआ.
लेखकों-प्रकाशकों ने अपनी पहुंच पाठकों तक स्थापित करने में इसे एक टूल की तरह उपयोग किया. यह तकनीकी रूप से जीरो बजट सिद्धांत पर लागू होनेवाला एक सशक्त माध्यम बनकर उभरा. सोशल मीडिया के निर्माण का तात्कालिक लक्ष्य जो भी रहा हो, इसका दूरगामी लक्ष्य यह रहा कि विभिन्न समूहों ने अपनी जरूरतों के अनुसार इसे साध लिया.
लेखक और प्रकाशक वर्ग ने इसे प्रचार-प्रसार के माध्यम के रूप में उपयोग करने का प्रयोग किया, जो सही साबित हुआ. थोड़ा पीछे जाएं, तो देख पायेंगे कि लोकप्रिय कवि कुमार विश्वास ने इसके उपयोग से महत्वपूर्ण ख्याति अर्जित की. वह भी तब, जब यह मीडिया भी नया था और यह प्रयोग भी नया था.
इस मीडिया ने लेखक और पाठकों के बाहम एक सिलसिला कायम किया. लेखक अब अपनी किताबों को सीधे पहुंचाने में सफल हो रहे थे. लेखक सीधा संपर्क स्थापित कर पा रहे थे. अपनी बातों को सीधा वहीं पहुंचा पा रहे थे, जहां के लिए वह निर्दिष्ट थी. लेखक को इस सूचना क्रांति ने एक बड़ा पाठक वर्ग दिया. हिंदी की बात करें, तो लुप्तप्राय पाठकों को ढूंढकर लाने में सोशल मीडिया का महती योगदान रहा है.
पाठकों की जानिब से देखें, तो भी सोशल मीडिया का महत्व ज्यादा ही दिखता है. पहले पाठक अच्छी किताबों के लिए तरसते थे. कारण यह नहीं था कि अच्छी किताबें उपलब्ध नहीं थीं, मगर जिन माध्यमों से उनकी सूचना पहले पाठकों तक पहुंचा करती थी, वे बंद हो रहे थे. किताबों से अलग वह लेखकों तक पहुंच को पारलौकिक मानते थे. सूचना क्रांति ने बाजार का ऐसा विस्तार किया कि यही सूचना अब उन्हें सहज उपलब्ध हो रही है.
वह अपने लेखकों से राब्ता कायम कर पा रहे हैं. मनोनुकूल प्रश्न कर पा रहे हैं और अपने लेखकों से जवाबदेही भी मांग रहे हैं. वे अपने लेखकों को समझ पा रहे हैं और अपने लेखकों को स्वीकार या खारिज भी कर पा रहे हैं. पाठकों के पास अब विकल्प उपलब्ध है. वे यह समझ पा रहे हैं कि लेखक भी अपने पात्रों से इतर एक इंसान है. लेखक में भी वही बुनियादी गुण-अवगुण हैं, जो एक आम इंसान में होते हैं. लेखक अपनी किताबों का आदर्श पात्र नहीं है.
सूचना क्रांति ने जो बाजार पैदा किया, वह अब साहित्य को पाठकों के घर तक सहज ही उपलब्ध करा रहा है. दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही व्यस्तताओं के मद्देनजर किताबें यात्राओं तक महदूद हो गयी थीं; मगर सूचना क्रांति से यह बात अंगूठे तक आ गयी और अब तो किताबें सीधे कमरे तक आ गयी हैं.
ऐसा नहीं है कि सूचना क्रांति का साहित्य जगत को महज फायदा ही हुआ है. इसके अपने नुकसान भी हैं. कई बार यह भी हुआ है कि पाठकों ने लेखकों की छवि टूटती देखी है. इस लिहाज से सोशल मीडिया छविहंता भी है.
किताबें जब डिजिटल हुईं, तब भी किताबों के प्रेमियों को उसे पूर्ण रूप से स्वीकार करने में देरी या यूं कहें अन्यमनस्कता हुई. सूचना क्रांति ने किताबों की पीडीएफ संस्करण को भी हवा दी. यह एक तरह से साहित्य की पायरेसी कही जा सकती है. इसका नुकसान प्रकाशकों को ज्यादा हुआ. लेखक जो पहले से ही रॉयल्टी की समस्या को लेकर हताश थे, उन्हें पायरेसी ने और हतोत्साहित ही किया. फिर भी यदि विस्तृत परिप्रेक्ष्य में देखा जाये, तो सूचना क्रांति ने साहित्य जगत को सकारात्मक रूप से ही प्रभावित किया है.
सोशल मीडिया के नित नये विस्तार ने साहित्य के लिए भी नये आयाम खोले हैं. नव लेखकों के पास साधनों के विकल्प मौजूद हैं. विलंबित किताबों के इंतजारी लेखकों के पास प्रश्न करने के साधन मौजूद हैं. अब लेखकों-पाठकों की लगभग सभी सोशल पोर्टल पर उपस्थिति एक जरूरत बन गयी है.
पारदर्शिता की संभावना भी पहले की अपेक्षा कमोबेश ज्यादा है. लेखन से प्रकाशन तक के सभी अंगों यथा लेखक, पाठक, संपादक, प्रकाशक और वितरक इत्यादि की जवाबदेही तय हुई है. यह प्रभाव दृश्य है और यही प्रभाव आनेवाले दिनों में और भी विस्तृत और बाजार उन्मुख होगा, ऐसी प्रबल आशा है.

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