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हिंदी की ताकत

संजीव कुमार कथाकार sanjusanjeev67@gmai- .com बताते हैं कि प्रूफ-पठन के चरण में हिंदी के आधुनिक क्लासिक ‘मैला आंचल’ के साथ एक दुर्घटना हो गयी थी. प्रूफरीडर ने अपनी समझ से हर ‘गलत’ वर्तनी को ठीक कर दिया था. उसे इस बात का कोई गुमान न रहा होगा कि इसके लेखक फणीश्वर नाथ रेणु के लिए […]

संजीव कुमार
कथाकार
sanjusanjeev67@gmai- .com
बताते हैं कि प्रूफ-पठन के चरण में हिंदी के आधुनिक क्लासिक ‘मैला आंचल’ के साथ एक दुर्घटना हो गयी थी. प्रूफरीडर ने अपनी समझ से हर ‘गलत’ वर्तनी को ठीक कर दिया था. उसे इस बात का कोई गुमान न रहा होगा कि इसके लेखक फणीश्वर नाथ रेणु के लिए देसी जुबान का इस्तेमाल एक रचनात्मक खेल है. सोचिए, जब ‘शुद्धीकरण’ की मारक-मानक प्रक्रिया से गुजरकर आखिरी प्रूफ रेणु के पास पहुंचा होगा, तो उनकी क्या दशा हुई होगी! ‘गिरफ्फ’ की जगह ‘गिरफ्तार’ और ‘हिंसाबात’ की जगह ‘हिंसावाद’ देखकर खुद को हिंसा पर उतारू होने से रोक पाना उनके लिए कितना मुश्किल साबित हुआ होगा!
यह दुर्घटना इस बात का एक दिलचस्प उदाहरण है कि भाषा के मानकीकरण की जो कोशिशें उसके संदर्भ, प्रयोजन, स्रोत-वैविध्य और खूबसूरती का ध्यान रखे बगैर की जाती हैं, वे कितनी दयनीय और नुकसानदेह साबित होती हैं.
इसका मतलब यह नहीं कि भाषा का मानकीकरण अपने आपमें अनुचित है. इसका मतलब सिर्फ इतना है कि मानकीकरण की सीमाओं को, उसकी उपयोगिता के दायरे की हदों को भुला देना अनुचित है.
हमारे यहां सरकारी स्तर पर हिंदी के विकास की जितनी कोशिशें हुईं, वे अपने बहुलांश में इस अनौचित्य का शिकार रही हैं. जब ‘सबवे’ के लिए हिंदी में ‘भूमिगत पैदल पार पथ’ लिखा जाता है, तो एक तरह से यह सुनिश्चित कर दिया जाता है कि लोगों की जुबान पर ‘सबवे’ ही रचा-बसा रहे, हिंदी में उसे एक नाम देना तो औपचारिकता भर है. कहते हैं कि जवाहरलाल नेहरू के पास जब तीनमूर्ति भवन में बननेवाले ‘प्लेनेटोरियम’ के लिए ‘नक्षत्रमंडल’ नाम आया, तो उन्होंने चिढ़कर कहा था कि नक्षत्र कौन कहता है! जब आम आदमी तारा कहता है, तो ‘तारामंडल’ क्यों नहीं! लेकिन यह तो तीनमूर्ति भवन का मामला था, राजभाषा हिंदी के गढ़े जाने की पूरी प्रक्रिया में न तो वे हस्तक्षेप कर सकते थे, न उनकी सुनी जाती थी. गरज कि सरकारी हिंदी जैसी बन रही थी, उसकी विडंबना को नेहरू समझ रहे थे, लेकिन कुछ चीजों को विवश भाव से देखते भर रहना युगपुरुषों की भी नियति होती है.
इसमें कोई संदेह नहीं कि हिंदी के पास आज जो थोड़ी-बहुत ताकत है, वह सरकारी प्रयासों की वजह से नहीं, उनके बावजूद है. वह अगर फूल-फल रही है, तो उसमें हर साल मनाये जानेवाले हिंदी दिवसों और हिंदी पखवाड़ों का कोई योगदान नहीं है.
योगदान है तो लेखकों, साहित्यकारों, पत्रकारों, पटकथा और संवाद-लेखकों, ब्लॉग और फेसबुक-लेखकों, और हिंदी को कंप्यूटर-इंटरनेट की दुनिया में सत्वस्थ करनेवाले अनगिनत स्वयं सेवियों का, जिनसे इलेक्ट्रॉनिक और छापे के माध्यमों में हिंदी की पूरी दुनिया बनती है. योगदान है तो हिंदी को संपर्क-भाषा के रूप में बरतनेवाली उस बड़ी जनता का, जो हजारों तरीके से इस भाषा का इस्तेमाल करती है और जिसके तरीकों की छौंक से औपचारिक दुनिया भी अपना भाषा-आस्वाद बनाये-बचाये रखती है.
भाषाएं जितने संदर्भों में और जितने प्रयोजनों तथा पद्धतियों से इस्तेमाल की जाती हैं, उतना ही उनका विकास होता है. आज फेसबुक पर हर खासो-आम की लिखी हिंदी पढ़ते हुए आप गौर कर सकते हैं कि भाषा-दक्षता का औसत स्तर, संभवतः इस लिखित भाषिक व्यवहार में शामिल रहने की नियमितता के कारण, ऊपर उठा है.
कुछ दिनों पहले ही वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी ने अपने एक साक्षात्कार में कहा है कि सोशल मीडिया में चूंकि संपादक नहीं होता, इसलिए त्रुटियों का सुधार नहीं होता और ‘ये जो अधकचरी भाषा सोशल मीडिया से उठकर मुख्य मीडिया में आ गयी, ये मुझे लगता है कि अच्छी चीज नहीं हुई है.’ (‘हंस’, सितंबर 2018, पृष्ठ 64) मेरा खयाल है कि लिखित भाषा के छपाई पूर्व या छपेतर रूपों से गुजरने का जिनका लंबा अनुभव हो, जिन्हें पता हो कि अलेखकों और यहां तक कि लेखकों से भी कितनी तरह की ‘गलतियों’ की सामान्यतः उम्मीद की जा सकती है, उनके लिए थानवी जी की इस बात से इत्तेफाक रख पाना मुश्किल होगा.
मुझे ऐसा लगता है कि सोशल मीडिया ने हिंदी को अधिक अभिव्यक्ति-क्षम बनाया है, हालांकि इस पर अभी ठोस आंकड़ों के साथ कई काम होना बाकी है.
अलबत्ता, हिंदी के फूलने-फलने की चर्चा करते हुए उसके उपयोग के संदर्भों और प्रयोजनों की विविधता भी हमारे ध्यान में होनी चाहिए. कई बार संदर्भ और प्रयोजन को भुलाकर भाषा से एक खास तरह की मांग की जाती है. अंग्रेजीदां समूहों में अक्सर साहित्यालोचन या समाजवैज्ञानिक लेखन में चलनेवाली हिंदी के कठिन होने का हौव्वा खड़ा किया जाता है. वहां तर्क वही होता है, जो इस लेख की शुरुआत में राजभाषा हिंदी यानी सरकारी हिंदी की आलोचना के लिए दिया गया है. पर समाजवैज्ञानिक अकादमिक लेखन के संदर्भ में इस तर्क का इस्तेमाल गलत है.
राजभाषा हिंदी ने पहले से प्रचलन में रहते आये शब्दों को हटाकर नये शब्द (‘मुख्यतः संस्कृत, गौणतः अन्य भारतीय भाषाओं से’) प्रचलन में लाने की कोशिश की, जिसके चलते वह अव्यावहारिक होकर रह गयी. आज भी एक आम आदमी के लिए राजभाषा हिंदी में लिखा मजमून अंग्रेजी में लिखे मजमून से बहुत अलग नहीं है. लोकतंत्र की मांग के अनुरूप जिस जनता को ध्यान में रखकर हिंदी को सरकारी कामकाज की भाषा बनाया गया था, उसके लिए वह लगभग अंग्रेजी जैसी ही बनी रही.
लेकिन, यह बात समाजवैज्ञानिक-अकादमिक लेखन की हिंदी पर लागू नहीं होती. जिस तरह अंग्रेजी में लिखा अकादमिक लेख उस भाषा को बरतनेवाले आम आदमी के लिए नहीं होता, वैसे ही हिंदी में लिखा अकादमिक लेख भी नहीं होता. इसमें हैरत की क्या बात है! अगर किसी और भाषा से यह उम्मीद नहीं की जाती कि उसके कठिन अवधारणात्मक पद हर व्यक्ति समझ लेगा, तो हिंदी से ही यह उम्मीद क्यों की जाती है?
हिंदी से यह मांग करना कि वह हर तरह के पाठ में बिल्कुल आमफहम हो, क्या हिंदी को विचार की भाषा बनने से बरजना नहीं है? कहीं आप यह तो नहीं कहना चाहते कि हिंदी में लिखनेवालों को संस्मरण, कहानी और सरल पत्रकारीय लेखन से बाहर आने की जरूरत ही क्या है?
एक अंग्रेजीदां बंधु को मैंने कहते सुना कि भई, हिंदी में ये क्या-क्या शब्द हैं, नव-उ-दा-र-वा-द, नव-उ-प-नि-वे-श-वा-द! मुझे आश्चर्य हुआ कि वे दो ऐसे पदों को कठिन भाषा के उदाहरण के रूप में पेश कर रहे थे, जो हिंदी में गंभीर निबंध लिखने-पढ़नेवालों के लिए बहुत सामान्य हैं! हां, जनता के एक बड़े हिस्से के लिए ये शब्द कुछ मुश्किल हैं, पर इस मुश्किल का संबंध अवधारणा से है. उसमें भाषा क्या कर लेगी?
हिंदी को अगर विचार की भाषा बनना या बने रहना है, तो उसे अंग्रेजीदां बुद्धिजीवियों के इस आक्षेप को, जो वे एक स्वर से सरकारी हिंदी और विचार की हिंदी दोनों पर लगाते हैं, दरकिनार करना होगा. उन्हें यह जवाब देना होगा कि एक झाड़ू से दोनों को बुहारा नहीं जा सकता, और यह भी कि अकादमिक लेखन की हिंदी इस सोच से निर्देशित नहीं होगी कि वह अंग्रेजीदां बौद्धिकों को समझ में आती है या नहीं.

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