वो पूछते हैं कि दर्द कहां होता है
।। कमलेश सिंह।। (इंडिया टुडे ग्रुप डिजिटल के प्रबंध संपादक) आप अगर अखबार पढ़ते हैं, तो आप को पता होगा कि उत्तर प्रदेश में आजकल दलित उत्पीड़न और लड़कियों का बलात्कार कर हत्या कर देने की घटनाएं बढ़ गयी हैं. अखिलेश सरकार पर इल्जाम है कि वह बलात्कारियों और हत्यारों को शह देती है और […]
।। कमलेश सिंह।।
(इंडिया टुडे ग्रुप डिजिटल के प्रबंध संपादक)
आप अगर अखबार पढ़ते हैं, तो आप को पता होगा कि उत्तर प्रदेश में आजकल दलित उत्पीड़न और लड़कियों का बलात्कार कर हत्या कर देने की घटनाएं बढ़ गयी हैं. अखिलेश सरकार पर इल्जाम है कि वह बलात्कारियों और हत्यारों को शह देती है और पिसती जनता को मात. समाजवादी पार्टी कुछ ऐसी प्रतीत होती है, मानो वह अपराधियों के लिए बनी, अपराधियों के लिए, अपराधियों की पार्टी है. मुलायम सिंह अपने मुख्यमंत्री बेटे का जब-जब बचाव करते हैं, बेवजह बड़ा घाव करते हैं. मुलायम और उनके भाई जैसी कठोर बयानबाजी पर उतरे हैं, उससे देश का भरोसा उन पर से उठ सा गया है. ये सब जो पंक्तियां आपने पढ़ीं, वह सिर्फ मीडिया में आयी खबरों के आधार पर बनी छवि की है. सच इससे ज्यादा गंभीर हो सकता है. सच यह है कि उत्तर प्रदेश में बलात्कार व हत्याएं पहले की संख्या में ही हो रहे हैं. फर्क इतना है कि आम के मौसम में दो बहनों को पेड़ से झूलता देख देश का दिल दहल गया है. उत्तर प्रदेश की दुर्दशा पर मीडिया का फोकस लौट आया है. ये जब लौट जायेंगे, तो स्थिति सामान्य हो जायेगी. अपराध वैसे ही होता रहेगा. वैसे तो हर हत्या मार्मिक होती है, पर हम इतने आदी हो चुके हैं कि हमारी संवेदनाएं भोथरा गयी हैं. कुछ अत्यंत चौंकानेवाला नहीं हो, तो हमारी नींद नहीं खुलती.
दिल्ली में पिछले साल करीब दो हजार लोग सड़क हादसों में मारे गये. रोज छह लोग राह चलते थाने की फाइलों में मृतक के तौर पर दर्ज हो जाते हैं. अखबारों में एक कॉलम की खबर बन कर रह जाना उनका नसीब हो जाता है. पर जब एक केंद्रीय मंत्री उसी दिल्ली की सड़क-संस्कृति का शिकार होते हैं, तो फिर राष्ट्रीय राजधानी की दुर्घटनाओं के आंकड़ों पर नजर दौड़ जाती है. मीडिया हिसाब मांगने लगता है. सरकार कार्रवाई करने लगती है. बेहिसाब जानों का हिसाब यह है कि योजनाएं व नीतियां गढ़ी जाने लगतीं हैं. देशभर के आंकड़े उछाले जाते हैं और हमको मालूम होता है कि तमिलनाडु इस तरह की मौतों में सबसे आगे है, वरना हमें खबर ही नहीं लगती. एक केंद्रीय मंत्री और होनहार नेता की जान जाती है, तो हमको सड़क की यह ज्वलंत समस्या याद आती है.
दिल्ली में बलात्कार की घटनाएं बंद नहीं हो गयीं. प्रदर्शन बंद हो गये. जिस लड़की को निर्भया नाम दिया, उसके ऊपर हुए जुल्म के पहले भी इस जुल्मतकदे में कोई रौशनी नहीं थी. फर्क इतना था कि उस पर हुई बर्बरता ने सबको झकझोर दिया. मोमबत्तियां लिए देश सड़क पर आ गया. एक मजबूत कानून की मांग ने वह जोर पकड़ी कि सरकार को झुकना पड़ा. कानून आया पर बलात्कार कानून से नहीं बंद होता. पर समाचार कब तक एक मुद्दे को उछालता रहता. लोग भी थक गये और ध्यान नये विषयों की ओर चला गया.
दो साल पहले जब पश्चिम बंगाल के अस्पतालों में नवजात शिशुओं की मौत की खबरों का सिलसिला चला, तो देश को यह लगा कि बंगाल के डॉक्टर नवजातों के दुश्मन हैं. हफ्ते भर एक-एक बच्चे का हिसाब देश ने देखा और चौंका. पर कब तक फोकस रहता एक ही मामले पर. सरकारी अस्पतालों में नवजातों की मौत का सिलसिला जारी है, पर उन खबरों पर दूसरी खबरें भारी हैं. बलात्कार उत्तर प्रदेश की समस्या नहीं है, नवजातों की रक्षा सिर्फ बंगाल में जरूरी नहीं है और सड़क दुर्घटनाएं दिल्ली की कमजोरी नहीं है. ये सब पूरे देश के लिए जख्म हैं. वो पूछते हैं कि दर्द कहां होता है. इक जगह हो तो बता दें कि यहां होता है.
उत्तर प्रदेश की दो दलित बेटियों की कुर्बानी जब तक रंग लायेगी हमारा ध्यान इस रंगरेज देश के और रंगों पर होगा. मुलायम के सुपुत्र वहां वैसे ही राज करेंगे. अखिलेश के चाचाओं की टोली बयानों की होली खेलते रहेंगे. क्योंकि इस देश में सबसे बड़ी समस्या यही है कि मीडिया सवाल उठाती है और सरकार की नजर जाती है. सरकार में बैठे लोग इन सवालों से जूझने के लिए संबल नहीं जुटा पाते. लीपापोती से काम नहीं चलता है, तो कुछ ठोस कदम उठाने के ठोस संकेत देकर काम चला लेते हैं. इच्छाशक्ति नहीं है कि सड़क को सुरक्षित बनायेंगे. हाइवे पर कुत्ते-बैल ना दौड़ें, इसका उपाय करवायेंगे. उनको ट्रैफिक नियमों के पालन की चिंता नहीं है, क्योंकि वे पायलट कार के पीछे सरपट निकल जाते हैं. सरकार में बैठे लोगों को यह बात नहीं सालती कि जो लड़कियां बड़ी होकर देश का गौरव बन सकतीं थीं, उनकी तार-तार आबरू आम के पेड़ों में झूल रही है. सरकारी तंत्र के लिए यह एक आपराधिक घटना मात्र है. मुकदमा दर्ज, काम खत्म. जहरीले पेड़ की पत्तियां तोड़ रहे हैं. ज्यादा दबाव हुआ, तो शाखें छांट दी. जड़ से खत्म करने के लिए कूवत चाहिए, हिम्मत चाहिए. वोट जुटाने में लगे लोग हिम्मत कहां से जुटायेंगे!