क्या आप ‘डालडा’ का अर्थ जानते हैं?
।। डॉ बुद्धिनाथ मिश्र।। (वरिष्ठ साहित्यकार) नयी दिल्ली से ताशकंद जाते समय, उज्बेक एयरलाइंस में जो गृह-पत्रिका हम यात्रियों को दी गयी थी, वह उज्बेक और अंगरेजी में थी. मैं रूस में कुछ दिन रह चुका हूं, इसलिए रूसी लिपि (साइरिलिक,स्लाव वर्णमाला) को थोड़ा-बहुत पहचान लेता हूं. मैंने गौर किया कि उज्बेक भाषा की लिपि […]
।। डॉ बुद्धिनाथ मिश्र।।
(वरिष्ठ साहित्यकार)
नयी दिल्ली से ताशकंद जाते समय, उज्बेक एयरलाइंस में जो गृह-पत्रिका हम यात्रियों को दी गयी थी, वह उज्बेक और अंगरेजी में थी. मैं रूस में कुछ दिन रह चुका हूं, इसलिए रूसी लिपि (साइरिलिक,स्लाव वर्णमाला) को थोड़ा-बहुत पहचान लेता हूं. मैंने गौर किया कि उज्बेक भाषा की लिपि वही साइरिलिक है,जो रूसी भाषा की है.सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस की आधिकारिक लिपि तो वही साइरिलिक रही, जिसका निर्माण ईसाई प्रचारक दो ग्रीक भाई साइरिल और मेथोडिअस के अनुयायियों ने पुरानी ग्रीक लिपि में नये संयुक्ताक्षर और नये स्वर पुरानी ग्लैगोलिटिक वर्णमाला से जोड़कर किया था. उज्बेक भाषा मूलत: तुर्की भाषा है, जिसको बोलनेवाले लगभग दो करोड़ लोग हैं. पहले उज्बेक भाषा का नाम ‘चगताई’ था,जो चंगेज खान के एक बेटे के नाम पर था. (बहुत संभव भारतीय लेखिका इस्मत चुगताई का भी संबंध उसी वंश से हो.) चौदहवीं सदी में जब यह साहित्यिक भाषा के रूप में उभरी,तब इसकी लिपि अरबी थी. 1927 में अरबी की जगह लैटिन वर्णमाला का प्रयोग होने लगा, लेकिन 1940 में उसकी जगह साइरिलिक वर्णमाला ने ले ली. फिल्हाल, उज्बेकिस्तान में उज्बेक और रूसी दोनो भाषाओं का प्रयोग होता है. इसी तरह लिपि भी साइरिलिक और लैटिन- दोनो लिपियां साइन बोर्डो पर दिखायी पड़ती हैं. इसलिए ताशकंद शहर में घूमते हुए साइन बोर्डो को पढ़ने में मुङो कोई परेशानी नहीं हुई.
हमारी भाषाओं में अरबी-फारसी के शब्दों के साथ-साथ इन पड़ोसी देशों के न जाने कितने शब्द घुल-मिल गये हैं. भारत में जितने वर्षो तक अंग्रेजों ने राज किया, उससे कई गुना ज्यादा वर्षो तक मंगोलों (मुगलों) ने राज किया. कई सदियों तक भारत पर राज करनेवाले मंगोलों के मूलस्थान, वहां की संस्कृति, वहां की सामाजिक रीति-रिवाज और वहां की भाषा के बारे में हमलोग कितना कम जानते हैं! चंगेज खान और तैमूर लंग जैसे आक्रांताओं को पैदा करनेवाले ताशकंद-समरकंद शहर भी बाहरी आक्रांताओं द्वारा बारंबार ध्वस्त किये गये हैं. आज का ताशकंद भी तीन हजार वर्ष पुराना होने के बावजूद इसलिए बिलकुल नया और तरोताजा दिखता है कि इसके भवनों और इमारतों को भी कभी बाहरी हमलावर और कभी भूकंप भूलुंठित करता रहा है. इसी तरह इसके मुहल्लों और रास्तों का नाम भी बार-बार बदलता रहा है.
‘उर्दू’ का शब्दार्थ हम लगाते रहे हैं, ‘सैनिक छावनी की भाषा’. मगर यह जिस उज्बेक शब्द से बना है, वह है तुर्की-मंगोल परंपरा का ‘ओर्दा’, जिसका अर्थ है वह ‘दुर्ग’ जहां सैनिकों के रहने का बंदोबस्त किया जाता था. हमारे देश के दुर्ग में राजा, उसका परिवार और उसके परिचर भी रहते थे, मगर ‘ओर्दा’ में केवल सैनिक रखे जाते थे, जो विभिन्न स्थानों के होते थे, इसलिए उनकी भाषा भी खिचड़ी होती थी. एक ओर्दा में दस हजार सैनिक और उनके ‘हाकिम’ रहते थे. वहां हमारी तरह ही मुहल्ला और मौजे हैं. बल्कि वहां का ‘महल्ला’ ही हमारे यहां ‘मुहल्ला’ या ‘महाल’ बन गया है. इन मुहल्लों में हमारे मुहल्लों की तरह ही पूरी सामाजिक संरचना होती थी. हर मुहल्ले में गुजर (आवास), मसजिद और उससे संलग्न मदरसे, चायखाना और हौज (कुंड) होते थे. हौज का पानी ही मुहल्ले की पूरी आबादी पीती थी. महीने में एक बार हौज का पानी बदल दिया जाता था. दूकानों पर नोवोय (नान), कुर्त (चीज़ बॉल) नोस्वॉय ( तंबाकू-चूना) जैसी दैनिक वस्तुएं उपलब्ध रहती थीं. वहां बैंक्वेट हाल को चायखाना कहते हैं. उज्बेक में ‘बुलंद’ का माने ‘लंबा’ होता है, जब तक यह नहीं जानेंगे, तब तक ‘बुलंद दरवाजा’ का अर्थ ही नहीं खुलेगा. वहां जब कोई नया घर बनाता है, तो सभी पड़ोसी बारी-बारी से छुट्टी के दिनों में उसकी मदद करते हैं. रोज सबेरे की नमाज के बाद परिवार के बूढ़े लोग गप्पें लड़ाने चायखाना चले जाते हैं, जवान काम पर और बच्चे गलियों में ‘ओशिक’ और ‘लंका’ खेल खेलते हैं. सूर्योदय से पहले ही घर की औरतें और लड़कियां झाड़ू-बहारू, बर्तन-बासन, पानी लाना, रसोई बनाना आदि काम में जुट जाती हैं. दोपहर में सिलाई-फराई और फलों का रस निकालने का काम होता है. वहां भी दस्तरखान और पुलाव (पिलोव) है. अगर किसी घर के आगे कचरा पड़ा है, तो इसका यही मतलब है कि या तो गृहिणी घर में नहीं है या बहुत फूहड़ है. ताशकंद के शिल्पकार अतीत में ‘कमानी’(वाण) बनाने के लिए प्रसिद्ध थे. ‘बाबरनामा’ में भी इसकी प्रशंसा की गयी है.
ताशकंद के विभिन्न स्थलों को देखते मुङो साइन बोर्ड पर जिस शब्द ने चौंकाया, वह था ‘डालडा’ शब्द. अंगरेजी स्नेतों से मिली जानकारी यह कहती है कि बीसवीं सदी के आरंभ में भारत में हाइड्रोनेटेड वनस्पति तेल का आयात डच कंपनी ‘डाडा एंड कं’ करती थी. 1933 में जब ब्रिटिश-डच कंपनी लीवर ब्रदर्स इंडिया लिमिटेड (वर्तमान हिंदुस्तान लीवर लिमिटेड) ने स्थानीय स्तर पर हाइड्रोनेटेड वनस्पति तेल का उत्पादन करना चाहा, तब उस कंपनी ने शर्त रखी कि इसके ब्रांड में उस कंपनी की झलक होनी चाहिए, सो ‘डाडा’ के बीच ‘लीवर’ का ‘ल’ डाल दिया गया और इस प्रकार जो वनस्पति का उत्पादन शुरू हुआ, वह ‘डालडा’ था, जिसने अपने विज्ञापनों में अमृत-तुल्य देसी घी से ज्यादा दमखम रखने का दावा किया. फल यह हुआ कि लोग घी को छोड़ ‘डालडा’ की ओर भागे और कुछ ही दशकों में ‘डालडा’ वनस्पति घी का पर्याय हो गया.
बाद में और कंपनियां इस गैर-पारंपरिक क्षेत्र में आगे आयीं और भारतीय बाजार में ‘डालडा’ का वर्चस्व टूटा, जिसके बाद हिंदुस्तान लीवर ने ‘डालडा’ ब्रांड विश्व की सबसे बड़ी बोतलबंद तेल उत्पादक कंपनी ‘बुंगे लिमिटेड’ को बेच दिया और आज यही कंपनी भारत में ‘डालडा’ वनस्पति और तेल का उत्पादन करती है. लेकिन इस प्रकार तो ‘डालडा’ कोई अर्थ नहीं बनता है. ‘डालडा’ शब्द हमारे पड़ोसी देशों का एक बहुत पारंपरिक और लोकप्रचलित शब्द है. उज्बेक भाषा में इसका अर्थ ‘प्रोत्साहन’ और ‘संवर्धन’ होता है. चूंकि समरकंद से अफगानिस्तान तक भाषाओं के बीच अंर्तसबंध है, इसलिए इस संपूर्ण क्षेत्र में ‘डालडा’ शब्द सदियों से इन्हीं अर्थो मे प्रचलित रहा है और लीवर ब्रदर्स ने जब दक्षिण एशियाइ देशों के व्यंजनों को नयी ऊर्जा देने के लिए नया उत्पादन शुरू किया, तब बहुत संभव है कि उसे इस क्षेत्र में प्रयुक्त ‘डालडा’ शब्द का अर्थ मालूम हो.