उफ! ये सियासी बड़े भाई

हरिशंकर त्रिपाठी व्यंग्यकार हम हिंदुस्तानी रिश्तों को बनाने एवं निभाने में बहुत रईस हैं. मुहल्ले का हर शख्स हमसे किसी न किसी रिश्ते में जुड़ा होता है. आंटी-अंकल, भईया-भाभी, ताई-ताऊ जाने क्या-क्या. भले ही रिश्ते सगे न हों, किंतु ताऊम्र बदलते नहीं और पूरी शिद्दत से निभाये जाते हैं. किंतु हमारे यहां की सियासी दुनिया […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 19, 2018 6:45 AM
हरिशंकर त्रिपाठी
व्यंग्यकार
हम हिंदुस्तानी रिश्तों को बनाने एवं निभाने में बहुत रईस हैं. मुहल्ले का हर शख्स हमसे किसी न किसी रिश्ते में जुड़ा होता है. आंटी-अंकल, भईया-भाभी, ताई-ताऊ जाने क्या-क्या. भले ही रिश्ते सगे न हों, किंतु ताऊम्र बदलते नहीं और पूरी शिद्दत से निभाये जाते हैं. किंतु हमारे यहां की सियासी दुनिया बड़ी ही मायावी है. यहां पुरातनी रिश्तों की संस्कृति कोमा में होती है.
यहां मामला बिल्कुल उलट है. यहां तो सभी को सिर्फ ‘बड़ा’ भाई बनने का है. गलाकाट होड़ चल रही है. कब रिश्ता बदल जाये, कह नहीं सकते.
इनकी उम्र बांचने में ऊपर वाला भी पसीना-पसीना हो जाये. वर्षों से सत्ता की चाशनी में साथ-साथ डुबकी लगाकर ‘तर’ हो रही पार्टियों के रिश्ते कब तार-तार हो जाएं, कह नहीं सकते. छोटे भाई की भूमिका में लंबे अर्से तक साथ रहनेवाले भाई में कब अचानक बड़ा भाई बनने की चाह कुलांचे मारने लग जाये, इसका भय कायम रहता है.
अब देख लीजिए, लाख कोशिशों के बावजूद विपक्षी ‘एका’ नहीं बन पा रही है. कारण वही, बड़ा भाई कौन बनेगा. बाप-बेटे में ‘बड़ा’ भाई बनने की रस्साकशी चल रही है. ‘बउओं’ की छोड़िए, ‘बुआ’ और ‘दीदी’ भी बड़ा भाई बनने को बेताब हैं.
यहां बड़ा भाई बनने के लिए कुदरती रूप से बड़ा होना मायने नहीं रखता. छोटा भाई अगर तनिक ज्यादा ओजस्वी हो, तो वह भी बड़ा भाई बनने के लिए ‘क्वाॅलीफाइड’ होता है. भाईगीरी छोड़ नेतागीरी के ‘प्रोफेशन’ में पदार्पण से हमें कृतार्थ कर रहे कुछ भाई तो छह-छह महीने के लिए ही बड़ा भाई बनने की शर्तों पर भी रेडी तैयार बैठे रहते हैं.
बड़ा भाई बनने का संघर्ष सिर्फ विपक्ष में हो ऐसा कतई नहीं. अंदर खाने सत्ता पक्ष में बैठी पार्टियों के भाइयों में भी शीत संघर्ष बदस्तूर चलता रहता है.
ये बात और है कि असल ‘बड़ा भाई’ के सामने चूं-चपड़ करने की कोशिश यूं सरेआम नहीं होती. वैसे बड़े भाई के लिए भी बड़ा भाई बना रहना इतना आसान नहीं होता. कुनबे को सहेजकर रखना, तराजू में मेढक तौलने जितना कठिन है. क्या पता कब कोई हमसफर घर की ‘नमकीन’ छोड़ अलग ‘खीर’ पकाने लग जाये.
सियासतदानों में बड़ा भाई बनने की भूख दलों की संख्या बढ़ा रही है. दोनों ही अब अति की ओर तेजी से मुखातिब हैं. देश को दिनों-दिन दोनों ही दल-दल में ढकेल रहीं है. बेहद चिंतनीय. चलिए छोड़िए, ज्यादा गंभीर होने की जरूरत नहीं है. डरने की क्या बात है, जब ऊपर वाला बड़ा भाई साथ है.
सियासतदानों को सिर्फ बड़ा भाई बनने की आकांक्षा पाले रखने पर पुनर्विचार करना चाहिए. छोटा भाई बने रहना इतना भी घाटे का सौदा नहीं. अब इन भाइयों को कौन समझाए कि लोकतंत्र में तो जनता ही एक मात्र ‘बड़ा’ भाई है, जो जिसे चाहेगी अपनी पदवी सौंप देगी. इसलिए जनता की भावनाओं को समझें, छोटा भाई बनें एवं विश्वास रखें, एक दिन ‘चरण पादुका’ जरूर हाथ लग जायेगी.

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